भावानुवाद - श्रीमद्भगवद्गीता, प्रथम अध्याय

श्री गीता जी को बहुत बार पढ़ने का उपक्रम किया, सुखद अनुभूति होती रही, कुछ को आत्मसात करने का प्रयास हुआ और कुछ समझ नहीं आया। कालांतर में जब दोहा लिखने की समझ आयी और शौक चर्राया तो एक विचार कौंधा कि श्री गीता जी का भावानुवाद दोहों में किया जाय। परमपिता परमेश्वर के श्री मुख से उत्पन्न वाणी के समक्ष हम सभी नतमस्तक हैं। इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड में हमारा अस्तित्व सापेक्षता के सिद्धांत के अनुसार नगण्य है, हम सब की भूमिका सिर्फ एक गिलहरी के समान है।

श्री गीता सांसारिक, आध्यात्मिक, लोक एवं परलोक कल्याण से हमारा परिचय तो कराती है, साथ ही साथ यदि हम प्रबंधन के दृष्टिकोण से देखें तो यह मैनेजमेंट के समस्त पहलुओं से भी साक्षात्कार कराती है। जब हम अपने प्रोफेशनल लाइफ में किसी भी प्रोजेक्ट पर कार्य करते हैं तो हम मार्केट सर्वे करते हैं, मार्केट इनफार्मेशन इकट्ठा करते हैं, मार्केट प्लेयर्स यानी कि प्रतियोगियों के विषय में जानकारी प्राप्त करते हैं तत्पश्चात SWOT Analysis करते हैं। अपने व प्रतियोगी की शक्तियों एवं कमजोरियों का विश्लेषण करते हैं, अवसरों को तलाशते और उन अवसरों के साथ आने वाले जोखिमों का चिंतन कर रास्ता निकालते हैं और उस विचार या प्रोजेक्ट का सफलतापूर्वक निष्पादन करते हैं ।

श्री गीता का प्रथम अध्याय अपने प्रतियोगियों को जानने का उपक्रम है जिसमें अर्जुन ने श्री कृष्ण से अपने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले चलने का अनुरोध किया और यह जानना चाहा कि हमारे सम्मुख कौन-कौन से प्रतियोगी हैं। अर्जुन के मन में विभिन्न प्रकार की शंकाओं ने जन्म लिया। जिस प्रकार किसी भी विचार के निष्पादन के पूर्व शंकायें उत्पन्न होती हैं और उन शंकाओं के समाधान हेतु हम किसी विशेषज्ञ से राय प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार अर्जुन के मन में शंका उत्पन्न होने पर भगवान श्री कृष्ण ने उनकी समस्त जिज्ञासा का समाधान किया और कार्य के निष्पादन के लिये प्रेरित किया और जिसका निष्पादन सफलतापूर्वक हुआ।

हे संजय ! अब यह बता, कैसा है सब दृश्य ।
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे, कैसे द्रोणा-शिष्य ।।

दुर्योधन ने है कहा, गुरु से जाकर पास ।
देखें युद्धक-व्यूह को, द्रुपद-पुत्र संत्रास ।।

भीमा-अर्जुन सम वहाँ, कई अनेकों वीर ।
महारथी युयुधान के, तरकस में हैं तीर ।।

धृष्टकेतु, चेकितान व, नरपुंगव हैं वीर ।
काशिराज, पुरुजित सबै, राखे सब हैं धीर ।।

द्रोपदि के सब पूत ये, महारथी सौभद्र ।
युधामन्यु विक्रांत सा, वासुदेव सा भद्र ।।

अपनी सेना में मगर, अति विशिष्ट हैं लोग ।
नायक उत्तम हैं सभी, विजय-सुनिश्चित योग ।।

गुरु-द्रोणा औ भीष्म सम, कृपाचार्य अरु कर्ण ।
अश्वत्थामा, सौमदत्ति, जयद्रथ और विकर्ण ।।

युद्ध कला में निपुण हैं, दिव्य लिए हथियार ।
संकल्पित जीवन हमें, मरने को तैयार ।।

शक्ति हमारी अपरिमित, संरक्षित सब ओर ।
पूज्य-पितामह व्यूह से, पाण्डु-पुत्र कमजोर ।।

अपने मोर्चे डट सभी, करें भीष्म सहयोग ।
शंख बजा जब भीष्म का, युद्ध हुआ संयोग ।।

शंख, नगाड़े, बिगुल सब, तुरही औ सब सींग ।
करें कोलाहल सब यहाँ, हाँके अपनी डींग ।।

श्वेत-अश्व के स्यन्दने, कृष्ण सहित हैं पार्थ ।
दिव्य-शंख का घोष कर, करना है परमार्थ ।।

पांचजन्य के घोष से, प्रमुदित हैं सब वीर ।
देवदत्त अरु पौंड्र से, चले युद्ध में तीर ।।

पाण्डु-पुत्र के शंख से, मचा जगत में नाद ।
मणि पुष्पक के घोष से, अनंतविजय आह्लाद ।।

तुमुलनाद जब शंख के, करें शब्दयामान ।
कौरव-सेना के हृदय, जीवन है हलकान ।।

हनूमान-अंकित-ध्वजा, अर्जुन रथ आसीन ।
धनुष-तीर उद्यत हुए, पारथ हैं गमगीन ।।

हे अच्युत ! तुम ले चलो, रथ सेना के मध्य ।
देख सकूँ उन वीर को, जिनसे लड़ना युद्ध ।।

गुडाकेश-आदेश को, हृषीकेश को मान्य ।
रथ स्थापित अब है वहाँ, जहाँ दिखें कुरु-सैन्य ।।

भीष्म द्रोण सब हैं यहाँ, विश्व-प्रमुख सब ओर ।
देखा कुरुओं को यहाँ, पार्थ हुये गम्भीर ।।

चाचा-ताऊ, गुरु-पिता, मामा-भाई, पौत्र ।
शुभ-चिंतक चहुं सब दिखे, दिखे अनेकों पात्र ।।

देख अभी सब स्वजन को, दया-भाव अभिभूत ।
काँप रहे सब अंग थे, माया सफलीभूत ।।

सरक रहा था हाथ से, धनुष-बाण गांडीव ।
सिर चकराया देख जन, अर्जुन था निर्जीव ।।

भूल रहा हूँ स्वयं को, उखड़ रही है साँस ।
युध्द-भूमि में दिख रहा, खड़ा अमंगल पास ।।

इच्छुक बिल्कुल मैं नहीं, स्वजनों पर हो घात ।
विजय नहीं मैं चाहता, नतमस्तक हूँ तात ।।

लाभ मिलेगा क्या मुझे, बतलाओ गोविन्द ।
राज-पाट से हैं बड़े, अपने सब ये वृन्द ।।

तत्पर हैं सब वृन्द ये, मारन को तैयार ।
हरषित बिलकुल मैं नहीं, डालूँगा हथियार ।।

स्वजनों को मैं मारकर, नहीं चाहता लोक ।
भले मुझे वे मार दें, न्यौछावर त्रैलोक ।।

पाप चढ़ेगा स्वयं पर, वध करते हैं आज ।
कायरता दिखती मुझे, नहीं चाहिये राज ।।

पाप दिखे ना शत्रु को, लोभ-मोह से लिप्त ।
कुलक्षय करने के लिये, प्रमुदित सबके चित्त ।।

किन्तु हमें दिखता यहाँ, वंश-नष्ट है दोष ।
पाप-कर्म से लिप्त जो, नहीं उचित जय-घोष ।।

कुल-नाशे सब नष्ट हो, नष्ट होय कुल-धर्म ।
ऐसे कृत्यों से मिले, कुल में प्रमुख अधर्म ।।

दूषित हो जब कुल जहाँ, दूषित होयें नार ।
पतनोन्मुख हो सब वहाँ, हो वहाँ व्यभिचार ।।

संतान अवांछित जन्म दें, नष्ट करें परिवार ।
पितरों को भी ना मिले, पिंड-दान उद्धार ।।

कुल-धर्मा को नाश कर, नाश करें कल्याण ।
नरक-वास निश्चित मिले, नहीं शुद्ध हों प्राण ।।

उद्यत हम सब हैं यहाँ, लक्ष्य नष्ट को साध ।
राज्य-भोग के भाव से, करने को अपराध ।।

श्रेयस्कर होगा मुझे, कौरव मारें आज ।
युद्ध नहीं करना मुझे, नहीं चाहिये राज ।।

इतना कह कर पार्थ ने , डाल दिये धनु-बाण ।
बैठ गया रथ पर वहाँ, शोकाकुल हैं प्राण ।।