भारतीय संस्कृति में निहित जीवन के मूल्य

भारतीय संस्कृति को दुनिया की सबसे पुरानी, सबसे समृद्ध संस्कृतियों के रूप में माना जाता है। संस्कृति के शाब्दिक अर्थ की बात करें तो संस्कृति किसी भी देश जाति और समुदाय की आत्मा होती है। संस्कृति से ही देश जाति या समुदाय के उन समस्त संस्कारों का बोध होता है जिनके सहारे वह अपने आदर्शों, जीवन मूल्यों का निर्धारण करता है।

किसी भी राष्ट्र के उत्थान के लिए उसके नागरिकों का कर्तव्य निष्ठ, सदाचारी, शिक्षित और सभ्य होना आवश्यक है। उसका देश प्रेम की भावना से परिपूर्ण होना भी अत्यंत आवश्यक है। रामायण में श्री रामचंद्र जी अपने अनुज लक्ष्मण से कहते हैं कि "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"। देश प्रेम की भावना मानव के हृदय में तभी जागृत होगी जब उसे श्रेष्ठ संस्कार प्राप्त होंगे। मानव अपने अंदर शुभ संस्कारों को आत्मसात् करेगा अन्यथा देश में जयचंदो की कमी नहीं है जो अपनी अर्थलोलुपता एवं पद लिप्सा के कारण किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं। जीवन रूपी विटप का पुष्प संस्कृति है, उसी संस्कृति से जब वह परिचित होगा तभी वह संस्कृति का सम्मान करना सीखेगा।

बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि हम अपनी संस्कृति का सम्मान करना भूल गए हैं। अपनी संस्कृति को संभाल कर नई पीढ़ी को देना हमारा कर्तव्य है। मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव की श्रेष्ठ परंपरा अब हमें पसंद नहीं है। वृद्ध माता-पिता की उपेक्षा, अतिथि को बोझ समझना, भाई के प्रति प्रेम न रखना हमारा स्वभाव बनता जा रहा है। गुरु के प्रति सम्मान की भावना अब हमारे मन में शेष नहीं रह गई है। उसके लिए बच्चों को प्रारंभ से ही अपनी सभ्यता तथा अपनी संस्कृति से परिचित कराना होगा, जिससे उनमें उचित अनुचित का चयन करने का विवेक प्राप्त हो। हमारी संस्कृति त्याग तपस्या समन्वय और सहिष्णुता के ४ खंभों पर टिकी हुई है किंतु आज यह मूल मान्यताएं लड़खड़ाती नजर आ रही हैं। आधुनिक युग में विश्व की सभी संस्कृतियां एक दूसरे के प्रभाव में आई हैं जिसमें पाश्चात्य संस्कृति ने अन्य संस्कृतियों को निष्प्रभ बना दिया है। खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, भाषा सभी क्षेत्रों में पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव दृष्टिगोचर हो रहा है जैसे मां की जगह मॉम-डैड, एकल परिवार, कटिंग द केक कल्चर, दिया जलाने की भारतीय प्रथा के विपरीत मोमबत्ती बुझाने की पश्चिमी प्रथा का बढ़ता चलन। हम सभी पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण कर रहे हैं और उसके दुष्परिणाम भी देख रहे हैं, परंतु समझ नहीं रहे हैं भारतीय संस्कृति में "वसुधैव कुटुम्बकम की भावना निहित है। शैव हों अथवा वैष्णव, जैन हों अथवा बौद्ध सभी भारतीय धर्म तथा दर्शन मानव मात्र के कल्याण को परमार्थ मानते हैं। यहां उसी को महापुरुष माना गया, जिसने परहित में स्वार्थ का त्याग किया है। आज हमें आवश्यकता है कि हम अपनी संस्कृति को हृदय से, दिल से, मन से, अपने मस्तिष्क में, अपने जीवन में और क्रियाकलापों में स्वीकार करें।

ममता त्रिपाठी, कानपुर