भाभी की पहली विदाई

बात उन दिनों की है जब आवागमन के लिए अत्यंत सीमित साधन हुआ करते थे। एक स्थान से दूसरे तक पहुंचने के साधन रेलगाड़ी या सरकारी बसें ही हुआ करती थी और वो भी पूरे दिन में एक बार। और यदि समय से चूके तो वो भी गया हाथ से। बहरहाल, मैं सबसे पहले अपनी भाभी, जिनका आना हमारे परिवार के लिए एक नया अनुभव जो था, का परिचय करवाता हूँ। भाभी हमारे घर की सबसे बड़ी बहू थी और हम सब उनके लाड़ले।

१९७३ में जब भाभीश्री विवाहोपरांत पहली बार अपने मायके बकुलिहा (रायबरेली जिला में सेमरी के पास का एक गांव) गयीं तो उन्हें विदा करा कर अपने गांव गढ़ेवा (उन्नाव जिला में बीघापुर के पास) लाने का उत्तदायित्व मुझे सौंपा गया। उस समय मैं १५ वर्ष का किशोर था। सीधा सादा, दीन दुनिया के चातुर्य से अपरिचित। मैंने बीघापुर स्टेशन से, उस समय एकमात्र सरल साधन रेलगाड़ी में, जिसे अमूमन रायबरेली लढ़िया के नाम से जाना जाता था, बैठकर बकुलिहा के लिए प्रस्थान किया। मुझे रघुराजसिंह स्टेशन पर उतर कर बकुलिहा के लिए जाना था। पर, त्रुटिवश मैं बैसवारा स्टेशन, अर्थात् लगभग ५ कि.मी. पहले ही उतर गया। वहां उतरने के पश्चात पता चला कि बकुलिहा वहां से ६ कि.मी. दूर है। तब मुझे अपनी त्रुटि पर अत्यंत खीज आई।

पर, मरता क्या न करता और वहां से मैंने पैदल ही प्रस्थान किया। मन ही मन मैं ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि काश कोई साइकिल वाला या बैलगाड़ी रास्ते में मिल जाए और मुझे बकुलिहा तक छोड़ दे। पर, ऐसा मेरा सौभाग्य नहीं था। यद्यपि एक साइकिल वाला दिखा भी और मैंने उसकी ओर कातर दृष्टि से देखकर बकुलिहा तक छोड़ने का अनुरोध भी किया, पर वह मुझे अनसुना कर चला गया। लगभग सवा घंटे के अथक प्रयास के पश्चात मैं अपना झोला झंडा लादे भाभीश्री के घर पहुंच ही गया। वहां पहुंचने पर मैंने देखा कि जो व्यक्ति मुझे अनसुना कर चला गया था, वो वहां पर पुत्ती भईया (भाभी के बड़े भाई) के राशन की दुकान से चीनी क्रय कर रहा था। बस फिर क्या था, मानों मेरे शरीर में अचानक एक नयी ऊर्जा का संचार हो गया हो और मैंने अपनी आपबीती पुत्ती भईया को सुना दी। उसके पश्चात पुत्ती भईया ने भी उसे खूब डांटा। पर, उस महानुभाव के एक मात्र सहज उत्तर "लंबरदार हमका का पता रहै कि ई तुम्हार रिस्तेदार आहीं" नें हम सबका गुस्सा शांत कर दिया।

खैर, घर के अंदर पहुंचा तो दामाद जी के छोटे भाई और भाभीश्री के देवर के रूप में मेरी काफी आवभगत हुई उसके कारण मेरी सारी थकान मिट गई। रात में बात करते समय रानी (भाभी की छोटी बहन) ने मुझसे कहा कि तुम जिज्जी के लाड़ले देवर हो और पूँछा कि जिज्जी तुम्हें इतना क्यों चाहती हैं। मैंने भी प्रतिउत्तर में कहा कि इसका जवाब आप अपनी जिज्जी से ही पूँछ लीजिये। इसके पश्चात फिर वो निर्मल दद्दू (मेरे दूसरे नंबर के भाई) के विषय में वार्ता करने लगीं। इससे मुझे लगा कि कदाचित निर्मल दद्दू के प्रति इनका स्नेह ज्यादा है। रात्रि में विश्राम के पश्चात् दूसरे दिन हमलोग बैलगाड़ी से भाभी के फार्म हॉउस उनके सबसे बड़े भईया (मुनारे भईया) और उनके परिवार से मिलने गए। वहां काफी अच्छा समय गुजारने के बाद शाम तक हमलोग वापस बकुलिहा आ गए। तीसरे दिन विदाई का दिन था। भाभीश्री को अपने प्रियजनों से बिछड़ने का दुख: था पर पिया मिलन की उमंग एवम् उल्लास भी उनके मुखारबिंद पर स्पष्ट परिलिक्षित था। भारी मन से सबलोगों ने उन्हें विदा किया। और इस तरह भाभीश्री को विदा कराकर हमलोग गढ़ेवा वापस पहुंचे। भाभीश्री के सान्निध्य में वापसी का रास्ता कैसे कट गया पता ही नही चला।

अशोक शंकर त्रिपाठी
लागोस, नाइजीरिया