बिस्वरुप रघुबंस मनि

डॉ लक्ष्मी शंकर त्रिपाठी

मंदोदरी सहसा चौंक कर उठ गई। देखापार्श्व में शयन कर रहे लंकाधिपति करवट बदलते हुए, कुछ विचित्र ध्वनि एवं भाव भंगिमा कर रहे थे। मन्दोदरी ने उन्हें झकझोर कर जगाया और कहा—- हे नाथ, मैं कई दिनों से देख रही हूं, आप दिन में एक सशक्त महाराज के तेवर में रहते हैंकिन्तु रात्रि में करवट बदलते समय कुछ भिन्न स्थिति रहती है। देवाधिदेव महादेव आपके आराध्य हैं, जिनके विभिन्न नामों का उच्चारण करते हुए आप रात्रि शयन में भी शांत और समर्पित भाव से स्मरण करते रहे हैं। यह नया परिवर्तन मुझे चिंतित कर रहाहै।

मैं देख रही हूं — जब से बहन शूर्पणखा दंडकारण्य के समाचार के साथ आई हैं तभी से ऐसा परिवर्तन प्रारम्भ हुआ है। पहले कुछ कम था परन्तु ‘विदेह तनया’ – के अपहरण और उसके बाद के घटनाक्रम यथा — एक ‘महाकपि का आना’, ‘लंका दहन’, ‘विभीषण का लंका त्याग’, ‘सागर पर सेतु – निर्माण’ एवं ‘रंगशाला में रंगभंग’ के पश्चात इस स्थिति में बढ़ोतरी ही हुई है। नाथ “वयम रक्षामः” के विश्वविजयी घोष के साथ सभी को पराजित करने वाला महाप्रतापी लंकाधिपति ऐसी स्थिति में कैसे आ गया ? 

लंकेश ने अपनी पटरानी देवी मंदोदरी के वचनों को सुनते सुनते अपने को संयत कर लिया था। मन्दोदरी को आश्वस्त करते हुए कि ‘व्यर्थ चिंता त्याग कर मुझपर विश्वास रखते हुए निश्चित हो जाओ’ कहकर राजमहल के उद्यान की ओर चल पड़ा। उद्यान में टहलते टहलते पिता श्री ऋषि विश्रवा के आश्रम के नीति के आचार्य की कही गई उक्ति ध्यान आई—-“कोई भी राजा अपनी राजधानी में भी तब तक सुरक्षित नहीं है जब तक दूर सुदुर सीमान्त एक समर्पित सशक्त प्रतिनिधि के नियंत्रण में नहीं है”। विचार करने लगा — ताड़का, सुबाहु का वध उन पार्षदों की शक्ति का हास था या उनसे भी सशक्त योद्धा का उदय । मारीच ने भयभीत होते हुए विस्तार से समस्त
घटना का वर्णन किया था। 

सहसा उन्हीं आचार्य का एक और संवाद याद आया लंकेश को—-“अति आत्मविश्वास से भरा राजा राज्य के सुदूर अंचल में पनप रहे संकट से अपने को असम्पूक्त मानने की भूल को तब समझ पाता है जब वही संकट उसके लिये एक बड़ी चुनौती बन कर सामने ना आ जाए”। क्या खर, दूषण और निशिरा का सेना सहित सहार उसी प्रारंभिक संकट की बढ़ती कड़ी तो नहीं है ? यह एकनीतिगत विफलता थी या विधि का विधान । स्मरण आया ब्रह्मा जी का वरदान — “नर एवं वानर युति द्वारा ही अन्त होगा”।

लंकेश की स्मृति पटल पर आया पिता श्री के आश्रम का दृश्य — तीन सुंदर बालक अपनी कुटिया से आश्रम भ्रमण पर निकल पड़े। बाल सुलभ जिज्ञासावश आश्रम के विभिन्न स्थानों पर जा कर उत्सुकता से हो रही गतिविधियों को देखकर अति उत्साह से माता कैकसी को सुनाते हैं। माता ने सचेत करते हुए कहा — दूर से ही देखना, ध्यान रखना किसी भी अनुष्ठान ें बाधा नहीं आए। बच्चों की गतिविधियों को देखते हुए माता ने अपने बड़े पुत्र रावण से प्रश्न पूछा — तुम तीनों की रुचि किन आचार्य के अनुष्ठान में ज्यादा है। रावण ने बताया कि संगीत, राजनीति और युद्ध नीति इन विषयों पर मेरी रुचि ज्यादा है, सबसे छोटे भाई विभीषण के बारे में बताया कि इसे ज्ञान, धर्म, नीति और योग में ज्यादा रुचि है, अपने से छोटे भाई कुंभकरण के बारे में बताते हुए मुस्कुराते हुए रावण ने कहा इसे मल्ल युद्ध, अस्त्र संचालन में रुचि है किंतु सबसे ज्यादा रुचि पाकशाला में पक रहे भोजन पर है, ऐसा सुनकर माता सहित तीनों भाई हंस पड़े। 

कुछ दिन पश्चात तीनों भाइयों का शुभ यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। अब वह विधिवत आश्रम के पढ़ने वाले छात्र हो गए। आश्रम में ज्ञान, विज्ञान, धर्म,नीति, दर्शन, युद्ध कला, अस शस्त्र संचालन, संगीत, वाद्ययंत्रों, आयुर्वेद, वनस्पति उनकी पहचान तथा उनके उपयोग का विधिवत ज्ञान अर्जित किया। आश्रम की शिक्षा पूर्ण कर तीनों भाई पिता महर्षि विश्रवा से आदेश प्राप्त कर आगे “ब्रह्म ज्ञान” प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा जी की तपस्या हेतु वन में गए। अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा को संकल्पित करतीनों ने तपस्या से ब्रह्मा जी को संतुष्ट किया और मनवांछित वरदान प्राप्त किया। रावण के मन में आश्रम में पढ़ रहे राजकुमारों को देखकर एक राजा बनने की प्रेरणा जगी थी, तदनुरूप एक सशक्त राजा जो किसी से पराजित ना हो जिसका कोई वध ना कर सके ऐसा वरदान मांगा। ब्रह्मा जी ने विधि विधान समझाते हुए कि जो जन्म लेता है उसे जाना ही होता है अतः कुछ और मांगने को कहा। रावण ने समझा मनुष्य और वानर तो तुच्छ हैं,जिनका मैं जब चाहे वध कर सकता हूं अतः इनका ही नाम लिया कि इन दोनों के अलावा कोई मुझे ना मार सके। कुंभकरण ने दैव उपक्रम से मति भ्रमित हो कर, अभीप्सित इंद्रासन की जगह निद्रासन मांग लिया और विभीषण ने सर्वदा के लिए हरि
भक्ति का वरदान मांगा।

कालांतर में रावण ने अपने नाना सुमाली से मार्गदर्शन प्राप्त कर राक्षसी विद्या में पारंगत हो अन्य राक्षस महाबलियों का साथ लेकर एक संग्राम “वयम रक्षामः” के उद्घोष के साथ अभियान के रूप में प्रारंभ किया। राक्षसी एवं मायावी विद्या द्वारा क्रूरता एवं बलपूर्वक धीरे-धीरे कुछ राज्यों पर अधिकार कर लिया। इस अभियान में अन्य राक्षसी महाबली जैसे अकम्पन, कुमुख, अतिकाय आदि के साथ विजयी होने से राज्य लिप्सा बढ़ती गई। इसी क्रम में अपने सौतेले बड़े भाई कुबेर के राज्य की राजधानी स्वर्णमयी लंका में उनका प्रभाव एवं ऐश्वर्य देख कर ईर्ष्या से जल उठा। पता चला कि कुबेर की यह उपलब्धि देवाधिदेव महादेव की कृपास्वरूप है। आश्रम में माता कैकसी से आशीर्वाद लेकर सदाशिव की आराधना हेतु कैलाश जा पहुंचा। 

जबसे रावण राक्षसी प्रवृत्ति में उद्यत हुआ पिता विश्रवा असंतुष्ट रहने लगे थे। वे अपनी पत्नी कैकसी को समझाते हुए कहते थे — यह बालक इतना तेजस्वी, दृढ़निश्चयी,
कुशाग्रबुद्धि का है कि आगे चलकर ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में बहुत प्रभावी योगदान कर सकता है। यह मन्तव्य मेरा नहीं मेरे “पिताश्री महर्षि पुलस्त्य” का है। जिस उत्तम कुल में उसका जन्म हुआ है उस कुल की कीर्ति पताका को और भी अधिक ऊंचाई तक ले जाने की क्षमता है इस बालक में, अगर वह कुल मर्यादा को अपनाते हुए उसी पथ पर चले। यहां मैं इसके विपरीत देख रहा हूं।कुल की मर्यादा भूलकर तामसी प्रवृत्ति ही प्रभावी है। पुत्र है, इसलिए तुम्हें सचेत कर रहा हूं कि रावण तो तामसी प्रवृत्ति पूर्णतया अपना चुका है फिर भी “जब तक सात्विक प्रवृत्ति का एवं हरि भक्त विभीषण का वह यथोचित सम्मान एवं आदर करता रहेगा उसकी सुरक्षा सुनिश्चित रहेगी” ।

अपनी लक्ष्य प्राप्ति हेतु रावण ने शिव आराधना प्रारम्भ की। विभिन्न आसन एवं मंत्रों से कठोर तपस्या करते करते सदाशिव की प्रसन्नता हेतु “शिव तांडव” स्तोत्र अनायास
उच्चरित होने लगा। जिस भक्ति, अनुरक्ति एवं समर्पण भाव से आरोह तथा अवरोह के साथ स्तोत्र का पाठ प्रारम्भ किया कि पाठ की पूर्णता तक दसों दिशाएं गूंजने लगी। तभी “वत्स तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी” की कर्णप्रिय ध्वनि के साथ एक दिव्य ज्योति प्रकट हुई, शनैः शनैः उस

ज्योति ने सदाशिव का आकार लिया और अंतर्ध्यान हो गई। चमत्कृत एवं भाव विभोर रावण ने सदाशिव की जय जयकार करते हुए दण्डवत प्रणाम किया, तभी वही दिव्य ध्वनि पुनः गूंजी “अब तुम जाओ, तुम्हारी साधना सफल हुई” ।

सदाशिव का आशीर्वाद प्राप्त कर रावण और अधिक निरंकुश, उद्दण्ड और क्रूर होकर विभिन्न राज्यों का शासक हो गया। छोटे भाई कुम्भकर्ण तथा ज्येष्ठ पुत्र मेघनाद के कारण उसकी शक्तिकई गुना बढ़ गई। इसी क्रम में लंका पर विजय प्राप्त कर चिर अभीप्सित लालसा पूर्ण की। नर, नाग, यक्ष, गंधर्व आदि परविजय से उत्साहित रावण ने देवताओं को भी पराजित करने के लिए उनके पोषण के लिये समर्पित होने वाले देव कर्म — यज्ञ, हवन, श्राद्ध आदि के विध्वंस का व्यापक अभियान तो चलाया ही इन कार्यों के संपादन करने वाले साधु, संतों, ऋषि-मुनियों के संहार का आदेश भी दिया। अब पोषण विहीन देवता भी नतमस्तक हो गए। पूरे भुवन मण्डल पर अब रावण का ही एकाधिकार हो गया।

“जब कोई भी विरोधी रह न जाए तो मदमस्त राजा निश्चित हो कर आमोद प्रमोद में लीन हो जाता है”। ऐसी स्थिति में राज्य के कर्मचारी एवं सैनिक भी कर्तव्यच्युत होने लगते हैं साथ ही यदा कदा उभरने लगता है आपस का अंतर्विरोध भी। मारीच ने समस्त घटनाओं का वर्णन किया था किन्तु उसे आसन्न संकट ना मान कर हलके में ही लिया गया था। शूपर्णखा का राज्यसभा में आक्रोशित वक्तव्य राजा रावण सहित सारी सभा को झकझोरने वाला था। सभी सभासद अपने बल की डींग हांक कर रावण को निश्चित रहने को कह रहे थे किंतु रावण मन ही मन विचार कर रहा था कि खर दूषण तो मेरी ही भांति सभी प्रकार की युद्ध कला में दक्ष थे, उनका सेना सहित संहार वह भी एक तापस द्वारा ।

चिंतित रावण मारीच से मिलकर सारी घटनाओं को बताकर साथ चलने को कहता है। रावण जानना चाहता है क्या दोनों घटनाक्रमों के योद्धा एक ही हैं या अलग अलग । मारीच मृत्यु की आशंका से भयभीत हो कर आनाकानी करता है किन्तु रावण की धमकी से डरकर चल देता है। पंचवटी की एक कुटिया में राम जानकी के साथ एक शिला पर विराजमान थे, अनुज लखनलाल सर्वदा सतर्क मुद्रा में राम के दाहिने कुछ दूरी पर खड़े थे। मारीच ने वृक्षों की ओट से देखकर रावण के कान में धीरे से कहा — अरे, यही तो हैं जिन्होंने ताड़का और सुबाहु का वध किया था और बिना फर के बाण से मुझे इतनी दूर फेंक दिया था, पार्श्व में खड़े धनुर्धर ने ही अन्य राक्षसी सेना का संहार किया था।

भगिनी के अपमान तथा खर, दृषण, विशिरा सहित चौदह सहस्त्र सेना के संहार से कुपित रावण ने वृक्षों की ओट से जैसे ही उधरदेखा चकित ही नहीं सिहर भी गया। सद्धर्मच्युत किन्तु ब्रह्मज्ञानी रावण को दिखा — एक अद्भुत चमत्कृत करने वाला दृश्य — “शेषशायी, चतुर्भुज परमेश्वर श्री हरि विष्णु तथा उनकी चरण सेवा करती आदिशक्ति जगदम्बा रमा” । किंकर्तव्यविमूढ़ रावण ने पुनः देखा तो वहां तापस वेश में दोनों कुमार साथ में जनक तनया। वह समझ गया नर रूप में भगवान पधार चुके हैं। वानर रूप भी भविष्य में प्रकट होगा। अन्त अब संभावित है। इस शरीर द्वारा इतने पाप कर्म हो गए हैंकि प्रभु भजन होने से रहा। एक ही उपाय है उद्धार का जो प्रभु ने पिछले अवतारों में असुरों का संहार करके मुक्ति पथ प्रशस्त किया था। इस पाप कर्म में मेरे सहायक रहे राक्षसों का भी उद्धार हो सके अतः प्रभु से वैर भाव रखते हुए
उनके द्वारा संहार होने से ही भव सागर पार किया जा सकता है।

रावण के स्मृति पटल पर अचानक एक दृश्य उभरता है — अशोक वाटिका विध्वंस करने वाले वानर को नागपाश से बांध कर मेघनाद राजसभा में लाते हैं। प्रिय पुत्र अक्षय कुमार का वध एवं अत्यंत सुंदर अशोक वाटिका का विध्वंस करने वाले वानर को देखकर क्रोध से परिचय पूछने पर वानर उत्तर दे रहा था तभी लंकेश को उस वानर में एक ऐसी छवि दिखी जिसका दर्शन कैलाश में किये गए तप के समय किया था। अरे ये तो “महारुद्र के ही अंश है”। महारुद्र ने ‘काम दहन’ किया था एवं रुद्रांश ने ‘लंका दहन’ कर अपनी उपस्थिति एवं प्रयोजन स्पष्ट कर दिया था। रावण राजसभा जाने को प्रस्तुत हो ही रहा था कि मंदोदरी पधारती हैं। अत्यंत आदर एवं विनयपूर्वक उन्होंने लंकेश से निवेदन किया — नाथ, अभी अभी दृती ने सूचना दी है कि पितामह महर्षि पुलस्त्य के शिष्य पधारे थे, आप उस समय उद्यान में थे। मुझे तक उनका संदेश पहुंचाया गया है कि लंकापति जिन्हें साधारण नर समझ रहे हैं, और कोई नहीं साक्षात ‘सर्वेश्वर’ ही हैं। मैं भी आश्वस्त हूं कि वे “विश्वरूप ही हैं, समस्त चराचर के नाथ हैं, विराट स्वरूप जिसमें समस्त ब्रह्मांड समाया हुआ है। देवाधिदेव महादेव जिनका सर्वदा स्मरण करते रहते हैं, अन्य सभी देव गण जिनकी सेवा में तत्पर रहते हैं, ऋषि, मुनि, साधु, सन्त जिनकी सतत आराधना में समर्पित रहते हैं” आप उनसे वैर भाव त्याग दीजिए तभी हम सबका कल्याण सम्भव है।

मंदोदरी के आर्त वचन सुनकर रावण मन ही मन कहने लगा — “देवी तुमने उनके स्वरूप के बारे में सुना ही है, मैंने तो साक्षात दर्शन किये हैं। रही हम सब के कल्याण की बात, उसी प्रक्रिया में ही तो लगा हूं। मेरे द्वारा चलाए गए “वयम रक्षामः” अभियान के सभी साथियों, सहयोगियों तथा कुटुंबजनों का इसी जन्म में उद्धार उनके द्वारा संहार से ही संभव है”। मन के भाव मन में ही छिपाते हुए लंकेश ने अपने विशिष्ट तेवर में मंदोदरी को आश्वस्त करते हुए कहा — “वैर भाव नहीं त्याग सकता” और यह कहते हुए राजसभा की ओर चल पड़ा — “निज भुज बल मैं बयरु बढ़ावा “

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