बाबूजी

भोर का समय, आसमान से अभी भी अंधेरा छटा नहीं। पक्षियों के मीठे कलरव से अचानक नींद से उठा ही था। पूर्व दिशा से आने वाली सुनहरी किरणें नीम के पेड़ की पत्तियों के आड़ से कमरे में झाँक रही थी, जिससे कमरे में कभी प्रकाश तो कभी अंधेरा, मानो बाबू जी से आँख मिचोली कर रही हों। कमरे के पश्चिम दीवार से, लगी राम-जानकी, हनुमानजी और दुर्गा माता की तस्वीरें लटक रही हैं, सुनहरी रोशनी धारण कर और जीवंत मालूम पड़ रही हैं।
कमरे की एक दीवार से लगे तख्ते पर एक तरफ कुछ खाने-पीने और बड़े-बड़े सुटकेस इस प्रकार से अस्त-व्यस्त रखे हुए हैं, जैसे रखा नहीं तख्ते पर ढकेल दिया गया हो और तख्ते ने पूरी धरती का भार उठा रखा हो, क्यों कि दुःख के भार को कोई भांप नहीं सकता। किनारे पर एक ग़मगीन विधुर सर नीचे किये गहरी सोंच में डूबा है, वह अति सम्मानित अधीर और रूपवान पुरुष है। जिस पर धोती-कुर्ता जैसे कपड़े बहुत भले मालूम पड़ रहे हैं। ललाट पर तीन रेखाएँ स्पष्ट देखी जा सकती हैं, आँखों के नीचे कोण के निशान ने गोरे-चिट्टे चेहरे को असमय ही बूढ़ा बना दिया हो। आस्तीन से झांकती हुई, लंबी-लंबी उंगलियाँ बिना कुछ कहे मानो मुझे अपनी ओर बुला रही हों। तख्ते को आजाद करते हुए बाबू जी एकाएक उठे, कमरे से बाहर निकल कर टहलते हुए गहरी साँस लिए, जैसे मन का बोझ तख्ते पर ही छोड़ आये हों।
मैं भी बाहर आकर बड़बड़ाते हुए पत्नी को आवाज लगाई "और कितनी देर करोगी, बाहर जीप लग गई ? अरे ट्रेन के समय से एकाध घंटा पहले तो पहुंचना ही होगा"। ड्राइवर गाड़ी साफ करते हुए मेरी तरफ घूरते हुए बोला "भाई देर हुई तो मैं नहीं जानता"।
इसी बीच जूते की चरमर करते आँखो पर ऐनक, लगाए बाबू जी अपने कंपकपाती हाथ को मेरे कंधे पर रखकर रुआंसी आवाज मे बोले - "मैं भी तुम्हारे साथ बम्बई चलूँगा।" ऐसा लगा बाबूजी अपना पूरा बोझ मेरे कंधो पर डाल, करमुक्त हो गये हों और गहरी-गहरी साँस लेने लगे। उनकी आँखे बगैर आंसू टपकाये सबकुछ बयां कर रही थीं। पिछली रात घर वालों ने जैसे उनकी जिंदगी के आखरी शब्द कह दिये हों।
