हर्ष, उल्लास, आनंद, उत्साह जैसे अवधपुरी में छलक ही नहीं बरस रहा था। महाराज दशरथ ने गुरु वशिष्ठ से अनुमति प्राप्त कर कुमार राम को युवराज घोषित करने का मंतव्य अपनी मंत्रि-सभा में सुनाया। सभी सचिव गण इस विचार को सुनकर अत्यंत प्रसन्न हो गए।
महाराज दशरथ की प्रबल इच्छा का समर्थन करते हुए, उन्होंने कुमार राम की प्रशंसा करते हुए कहा - महाराज, कुमार राम इस प्रतापी राज्य के युवराज होने के सर्वथा योग्य हैं। वे धीर, वीर, प्रजा-प्रिय, न्याय-प्रिय, मंत्रि-परिषद के प्रिय ही नहीं सर्वजन प्रिय भी हैं। महान रघुवंश की कीर्ति पताका को उतनी ही महानता तक या उससे भी आगे ले जाने की उनमें अपूर्व क्षमता है। हम सभी एकमत होकर आपके इस विचार को सफलीभूत करना चाहते हैं। गुरु वशिष्ठ ने कब मुहूर्त निर्धारित किया है। महाराज दशरथ ने बताया कि जिस समय कुमार राम युवराज पद पर अभिसिक्त होंगे वही सर्वोत्तम मुहूर्त होगा और यह कार्य शीघ्रातिशीघ्र हो जाए। मंत्रि-परिषद को महाराज ने निर्देशित करते हुए कहा - कल ही कुमार राम का युवराज पद पर अभिषेक होगा। इस हेतु जो भी प्रयोज्य है उसकी व्यस्था हो जाये। महाराज के अति प्रिय सचिव सुमन्त जी ने सहर्ष सारी आवश्यक मंगल सामग्री की व्यवस्था कर लेने का निर्देश स्वीकार कर लिया। मंत्रि-सभा का निर्णय एवं महाराज दशरथ का मनोरथ पूरी अयोध्या में व्याप्त हो गया। सभी दूसरे दिन की सुघड़ी का दर्शन करने हेतु बढ़ चढ़कर तैयारी में लग गए। अयोध्या नगरी सजने लगी। रंगोली, मंगल-कलश, आम्रपत्र, तोरण, रंग-बिरंगी पताकाएं सजने लगीं। महाराज दशरथ के अपने महल जाने से पहले ही गुरु वशिष्ठ ने कुमार राम के महल के कक्ष में जा कर उन्हें व जनकनंदिनी को आवश्यक निर्देश दिए।
महाराज दशरथ प्रसन्नता से फूले नहीं समा रहे थे। वे ऐसी मनः स्थिति में अपनी प्रिय महारानी कैकेयी के महल पहुंचे। इसी बीच मंथरा द्वारा रचित कुचक्र (विधि चक्र) के कारण रानी कैकेयी ने मति भ्रमवश कुमार भरत को युवराज तथा कुमार राम को चौदह वर्षों का वनवास पूर्व में दिए गए वरदानों की प्रतिज्ञा के बदले महाराज दशरथ से मांग लिया था। रघुकुल की रीति और कुमार राम की शपथ ने महाराज को बांध दिया। महाराज तो अस्त व्यस्त महल में पड़े थे। महारानी कैकेयी के महल की इस घटना से राजमहल के अन्य हिस्से भी अनभिज्ञ थे। अयोध्या नगरी को तो कुछ पता ही नहीं था।
प्रातः काल शंख-ध्वनि, वेद-मन्त्र, प्रभात फेरी, बंदीजनों की स्तुति, आचार्यों का स्वस्तिवाचन, प्रजाजनों की जय जयकार से भी जब महाराज कक्ष से बाहर नहीं आए तब मंत्रियों और श्रेष्ठजनों को आशंका हुई कि क्या कारण है महाराज जो प्रातःकाल ही उठकर प्रतिदिन ऐसे समय उपस्थित होकर प्रजाजन को दर्शन देते थे, आज अभी तक कक्ष से बाहर नहीं आए। सभी उनकी बढ़ती उम्र के कारण स्वास्थ्य संबंधी चिंता कर राजवैद्य को बुलाने की चर्चा करने लगे। महाराज दशरथ के सबसे प्रिय सचिव सुमन्त से श्रेष्ठजनों ने आग्रह किया - आप ही जाकर स्थिति क्या है वैसी व्यवस्था करें।
आचार्य सुमन्त महारानी कैकेयी के कक्ष में पहुंच कर वहां का दृश्य देखकर हतप्रभ रह गए। कोपभवन में महाराज दशरथ भूमि पर पड़े, आभूषण रहित, अस्त व्यस्त एवं अचेत से पड़े हैं। रह रहकर राम राम बुदबुदा रहे थे। महारानी कैकेयी भी आभूषण विहीन राजसी वस्त्रों के बिना दिखीं। कारण पूछने पर उन्होंने ही बताया - सुमन्त तुम राम को शीघ्रातिशीघ्र ले आओ। महाराज तो रातभर राम राम ही कहते रहे हैं। सुमन्त जी ने महाराज की स्थिति देखते हुए भांप लिया कुछ अनहोनी हुई है अतः वे वेग से कुमार राम के महल की ओर गए। ड्योढ़ी पर प्रतीक्षारत श्रेष्ठजनों, विप्रजनों, एवं प्रजाजनों ने आर्य सुमन्त को इस तरह कुमार राम के महल की ओर जाते देखा और शीघ्र ही कुमार राम को उनके साथ राजवस्त्रों के बिना आते देख किसी अनहोनी को भांप लिया। अयोध्या नगरी के प्रजाजनों में किसी अघटन की आशंका व्याप्त होने लगी।
सुमन्त ने महाराज को प्रणाम करते हुए कुमार राम के आगमन की सूचना दी। महाराज ने आँखे खोल कर कुमार राम को देखा और मूर्छित हो गए। महारानी कैकेयी से पूंछने पर सारा वृत्तांत सुनकर सहज भाव से राम ने कहा - इतनी सी बात पर पिताश्री का शोक करना उचित नहीं है। प्रिय भरत को युवराज पद मिलने से मुझसे अधिक प्रसन्न कौन होगा। चौदह वर्षों का वनवास मेरी आध्यात्मिक उन्नति का पाथेय होगा। ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों, वनवासियों के सान्निध्य से मुझे और ऊर्जा मिलेगी। आर्य सुमन्त हक्के बक्के भौंचक्के से महारानी कैकेयी और कुमार राम का संवाद सुन रहे थे। मंत्रि-परिषद, श्रेष्ठजनों तथा राज्य कर्मचारियों के सहयोग से कुमार राम के युवराज पद पर सुशोभित होने हेतु आवश्यक सामग्री वे जुटा ही चुके थे। गुरु वशिष्ठ के आगमन के पूर्व राज्य सभा से महाराज दशरथ उनको स्वयं युवराज के सिंहासन तक ले जाने वाले थे।
तैयारी क्या थी और क्या हो रहा है सोच-सोच कर आर्य सुमन्त मन ही मन कातर हुए जा रहे थे। महाराज दशरथ के वैसे तो अन्य मंत्रि-परिषदीय सहयोगी थे किन्तु आर्य सुमन्त उनके सर्वथा भरोसेमंद एवं प्रिय रहे हैं। आर्य सुमन्त महाराज की ऐसी स्थिति में सजग मंत्रियों की तरह आगे की संभावनाओं का विचार कर और ज्यादा चिंतित हो रहे थे।
महारानी कैकेयी के महल की हो रही घटना पूरे राजमहल में धीरे-धीरे सबके संज्ञान में आ गयी। महारानी कैकेयी की प्रिय सखियां, गुरु पत्नी आदि ने भी उन्हें समझाने की चेष्टा की किन्तु महारानी टस्स से मस्स न हुईं। आर्य सुमन्त महाराज की स्थिति देखते हुए उन्हीं को सँभालते रहे।
कुछ समय पश्चात कुमार राम, जनक नन्दिनी सीता एवं कुमार लक्ष्मण कक्ष में पधारे। महारानी कैकेयी जो कुमार राम और जनकसुता को अतिशय स्नेह देने वाली माता थीं आज बदली मूरत लग रहीं थीं। उन्होंने राम से वनवासी वेष धारण करने को कहा। महाराज दशरथ ने जब यह सुना अत्यंत शोक करते हुए महारानी कैकेई पर आक्रोशित होने लगे। तभी महारानी कैकेयी ने आदेश देते हुए कुमार राम से कहा - तुम शीघ्र मुनिवेष धारण कर महाराज की प्रतिज्ञा का एक आदर्श पुत्र की भांति पालन करो। जब तक तुम उनकी प्रतिज्ञानुसार वन गमन नहीं करते हो वे ऐसे ही कातर होते रहेंगे जो कि रघुवंश की दृढ़प्रतिज्ञ परंपरा के सर्वथा विपरीत होगी। कुमार राम और कुमार लक्ष्मण ने मुनिवेष धारण करना प्रारम्भ कर दिया। सभी आभूषण राजसी वस्त्र का त्याग कर दिया। महल का दृश्य अत्यंत करुणापूर्ण हो गया। महाराज अस्त-व्यस्त, महारानी कौशल्या, महारानी सुमित्रा, तथा रनिवास व्याकुल तथा शोकग्रस्त हो गया।
जब कुमार राम, जनकसुता तथा कुमार लक्ष्मण महाराज दशरथ से आशीर्वाद लेने आये तब महाराज ने अत्यंत कातर होते हुए अपने प्रिय सचिव एवं सखा आर्य सुमन्त से कहा - तुम रथ से इनको वन दिखाकर वापस लेकर आ जाना। आर्य सुमन्त आज्ञा का पालन करते हुए उन तीनों को आग्रह कर रथ पर बैठाया और वन की ओर रथ हाँक दिया। अयोध्यावासी नर नारी रोते हुए रथ के पीछे-पीछे भागने लगे। कुमार राम के कहने पर तमसा पार करने के पश्चात अवधवासियों को मोह निद्रा में छोड़कर श्रृंगबेरपुर पहुंच गए।
यहां कुमार राम के सखा निषादराज ने सारा वृत्तांत सुनकर वनवासी के अनुरूप व्यवस्था कर अपने वन में सबको विश्राम करने का हठ किया। कुमार राम और वैदेही जब विश्राम करने गए तब निषादराज, आर्य सुमन्त और कुमार लखनलाल कुछ दूरी पर बैठकर विधि गति की चर्चा करने लगे।
प्रातः राम तथा लखन ने बरगद के दूध से अपनी जटा सँवारी तथा गंगा नदी पार करने हेतु तट तक पहुंचे। आर्य सुमन्त ने पुनः विनीत एवं कातर स्वर में कहा - महाराज ने आपको वन दिखाकर वापस ले आने को कहा है। उनका स्पष्ट कहना है कि अगर कुमार राम नहीं आये तो उनका जीना संभव नहीं होगा। आपने देखा नगर नर नारी, पशु पक्षी भी आपके वियोग को सहन नहीं कर पा रहे हैं तो महाराज तथा अन्य महारानियों की क्या स्थिति होगी। आर्य सुमन्त ने पुन: कहा मैं कैसे खाली रथ लेकर अवधपुरी जाऊंगा।
कुमार राम ने पिता समान आर्य सुमन्त को अनेकों तरह से उदहारण देते हुए समझाया और पिता महाराज दशरथ को शोक न करने की प्रार्थना की। सुमन्त के बारबार कातर होने पर राम ने हठ कर के उन्हें वापस भेजा।