आज सोचो तो आश्चर्य होता है कि बारह बजे तक जागना क्यों भारी लगता था। आज तो हर रोज बारह बिना वजह ही बजते हैं। आज की जेनरेशन देर रात जागने की अभ्यस्त है। एक वेबसीरीज देखो और पाँच-छह घँटे किधर निकले मालूम ही न चले। वो भी न हो तो स्मार्टफोन में सर्फिंग करते चुटकियों में घँटे बीत जाते हैं। आज जन्माष्टमी और उसकी रौनक डिजिटल हो गई है।
पर बचपन की जन्माष्टमी का जिया हुआ उल्लास आज भी जेहन में ज्यों का त्यों है। तब कितना कुछ रहता था करने को। फिर भी आज की जेनरेशन को लगता है कि उस कालखंड में हमारे पास कुछ नहीं था करने को… क्योंकि हम डिजिटली हाईटेक नहीं थे। इसीलिए शायद तब वो कर पाए जो आने वाले समय में किंवदंतियों की तरह पढ़ी और सुनी जाएगी। इस दुनिया में यदि कोई चीज शाश्वत है तो वो है परिवर्तन… जिसकी आहट बड़े होते-होते हमें भी सुनाई देने लगी थी। बचपन की वो उल्लास और उमंगों भरी जन्माष्टमी बड़े होते-होते कुछ-कुछ बदलने लगी थी। जैसे-जैसे हम बड़े होते गए झाँकी छोटी होती चली गई। एक समय आया जब सांकेतिक झाँकी भर होती, हाँ! पूजा का स्वरूप वैसा ही रहा।
जन्माष्टमी में गाए राग भूपाली का पसंदीदा क्लासिकल भजन ‘जाऊँ तोरे चरण कमलपर वारी…’ या फिर राग आसावरी पर आधारित ‘अरे मन समझ-समझ पग धरिये…’ आज भी जन्माष्टमी के दिन मन को दस्तक देकर सहज ही जुबान पर चढ़ जाते हैं।