पारिवारिक प्रेम और आस्था

आज के बदलते पारिवारिक प्रेम की आस्था पूरी तरह अर्थयुग में प्रवेश कर चुकी है, जिसके कारण धन है तो प्रेम, धन है तो परामर्श, धन है तो आपकी सोच में सहयोग, धन है तो प्रेम में आस्था वगैरह वगैरह ! परिवार का मतलब सिर्फ अपने संतान तक सीमित होता जा रहा है और तो और भाइयों या अन्य परिजनों का जिस विचारधारा का विरोध करते हुए देखा गया है उसी विचारधारा को अपनी संतानों के प्रति उदारता देखी जा रही है। विषय जटिल होता नज़र आने लगा है। जरुरत है हमें अपनी संतानों को परिजनों और सम्बन्धियों के प्रति की गयी चर्चा में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं से अवगत कराना, क्योंकि किसी व्यक्ति में अगर अवगुण हैं तो गुण भी हैं। उनको पहले अपनी संतानों के साथ बातचीत के दौर में रखना होगा, तभी उनके प्रति सम्मान और प्रेमभाव उत्पन्न हो सकता है। संभवतः इसमें संदेहास्पद स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है, पर प्रयास जारी रखना होगा तभी जाकर कहीं उनके मन में परिजनों के प्रति आस्था उत्पन्न होगी, जो आगे चलकर समाज और फिर राष्ट्र निर्माण में सहयोगी साबित होगी।

आज यदि हम सीमित परिवार जैसे हम दो और हमारे दो की विचारधारा के अधीन हो गए तो कालांतर में समाज से अलग थलग होते चले जायेंगे और अंत में हम सिर्फ दो या फिर अकेले ही रह जायेंगे। इसका एक छोटा सा उदहारण सामने हैं - आज हम छोटे से फंक्शन में भी बुफे सिस्टम में खाने की व्यवस्था करते हैं, जो कि स्वास्थ्य, संस्कृति और भावनात्मक इन सभी दृश्टिकोण से सही नहीं है। हमें सारी व्यवस्था भाड़े की करनी पड़ती है। अतीत में जाकर देखें तो बिलकुल विपरीत व्यवस्था होती थी। वहां भाड़े का कुछ भी नहीं होता था। परन्तु, आज समय का अभाव या दूर रहने की वजह से इस व्यवस्था को अपनाना बाध्यता हो गयी है। समाज से जुड़ने से पहले हमें परिवार को जोड़ना होगा, अगर परिवार जुड़ गया तो समाज भी जुड़ जायेगा। इन सबके लिए हमें अपनो के प्रति भावनात्मक एवं निःस्वार्थ लगाव रखना होगा, तभी एकजुटता संभव है। अतः ऐसी परिस्थिति, जो भविष्य में और भी खतरनाक हो सकती है, इस पर गहराई से विचार करना चाहिए और दृढ़संकल्प के साथ इसके उपचार के लिए यथाशीघ्र कदम उठाना चाहिए।

विनीत शुक्ला, हावड़ा