परिष्कार

हमारी सनातन पद्धति में समाज की मूलभूत इकाई परिवार है। परिवारों के व्यवहारिक क्रिया - कलाप समाज में प्रतिफलित दिखते हैं। हमारे मूल्य, हमारी नैतिकता, हमारे संस्कार, हमारे समाज की आधारशिला व संस्कृति का निर्माण करते हैं। भारतीय परिवार सनातन धर्म के अनुसार चार पुरुषार्थों को निभाने की व्यवस्था रखता है। पर, इसकी खासियत यह रही है कि यह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जिसे चार पुरुषार्थ कहा गया है, इसमें धर्मरुपी तत्व को श्रेष्ठतम मानकर, धर्म के अनुसार अर्थ प्राप्ति करने की और उस अर्थ प्राप्ति से काम तृप्ति करके मोक्ष को पूरा करने की सामाजिक जागरूकता का सूत्र देता है। तात्पर्य यह कि हमें सबसे पहले समाज की मूलभूत इकाई यानि परिवार में धर्म को दृढ़ता और सत्य की पुख्ता समझ से निर्मित करना है। यदि परिवार में धर्म प्रकाशित है तो परिवार का विखंडन और अज्ञान का अंधेरा उसे नहीं ग्रसता है।

आज हमारे परिवारों में धर्म के अलावा वैभव, भोग और समाज के सजे - धजे बाजार प्रवेश कर गए हैं, जो विकास वैभव - भोग की होड़ को सफलता का मापदंड मान कर धर्म से वियुक्त जीवन - शैली को बढ़ावा दे रहे हैं। आधुनिक शिक्षा पद्धति प्राचीन धार्मिक ज्ञान को संकीर्णता के साथ परे रखती हुई मात्र मशीनी - व्यावसायिक और पेशेवर अर्थ केंद्रित मनोवृत्ति को प्रसय देकर हमें आधुनिक बनाने में लगी हुई है और हम आधुनिक - सफल बनने के चक्कर में अपने धर्म पर आधारित अर्थ प्राप्ति करने की शैली को ज्यादा भोग व सफलता की लिप्सा के कारण खोते जा रहे हैं।

परिवार का संस्कार समाज के बाज़ारू संस्कृति की भेंट चढ़ रहा है, जहाँ हर चीज धन से हासिल की जा सकती है। ऐसी हसरत हर आगामी पीढ़ी को दी जाती है, जिसकी शुरुआत पारिवारिक पाठशाला से होती है और जब भी परिवार टूटते हैं तो परिवार के अभिभावक रुपी शिक्षक ही शिकायत करते हैं ! हमें अपने परिवार को सुंदर व अच्छा बनाना है, तब जाकर हमारा समाज सुंदर और अच्छा बनेगा। चूँकि परिवार समाज की फैक्ट्री है, हम फैक्ट्री में जैसा उत्पादन तैयार करेंगे वही फल हमें समाज के अंदर देखने को मिलेगा, इसलिए हमें अपनी महान विरासत - अपने धर्म के बताए सनातन सत्य के मूल्यों, सादगी और सरल शैली को किसी भी कीमत पर नही गंवाना चाहिए। अन्यथा, परिवार का अलगाव समाज के अलगाव के रूप में, भ्रस्टाचार, ठगी और मतभेद के रूप में हमें अपने सनातन 'वसुधैव कुटुम्बकम' की वेद वाक्य की मुख्य धारा से अलग कर हमारे आज की उम्मीदों के फूलों को खिलने से पहले मुर्झा दे सकता है, या उन्हें कल के कागज के फूलों में बदल कर हमारे जीवन को नकली बना दे सकता है, जिसमें परिवार तो होता है पर हम पारिवारिक नहीं हो पाते, समाज तो होता है पर हम मनुष्य से मानव नहीं हो पाते, मानव तो होतें है, पर मानवतापूर्ण आत्मा नहीं हो पाती। हमें आज और अभी से अपने परिवार को जागरूक रखना है, अपने परिवार को न्याय, धर्म, मौलिक, ज्ञान, सत्य के संज्ञान से संजीदा रखना है, तभी हम और हमारे परिवार तथा समाज को सच्चे मायनो मे जिंदा रख सकते हैं......।

अमित मिश्रा