नैतिकता और कर्तव्य के संवाहक प्रभुश्रीराम

आज परिवारों में नैतिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है, वर्तमान समय भौतिक प्रगति का समय है, जहां चकाचौंध, आधुनिकता और विकास है, वहीं दूसरी ओर संस्कारों का अभाव और मानवीय मूल्यों का संकट हमारे सामने एक बड़ी चुनौती बनकर खड़ा है। झूठ, फरेब, लालच, छल, कपट, अहंकार, अनैतिकता और असंयम जैसी प्रवृत्तियाँ मनुष्य को अपने कर्तव्य और धर्म से भटका रही हैं। ऐसे समय में आज के युवाओं को बाल्मीकि रामायण के आदर्श नायक श्रीराम के जीवन से प्रेरणा लेना अत्यंत
आवश्यक हो गया है। राम का आदर्श चरित्र, राम का आचरण, जो कि हर परिस्थिति में हर वर्ग को समाधान देता है। इसीलिए राम के चरित्न को पढ़ना, जानना, समझना और जीवन में उतारना आवश्यक है।
भारतीय संस्कृति में भगवान श्रीराम केवल एक आदर्श राजा ही नहीं थे अपितु, नैतिकता, धर्म और कर्तव्य के जीवंत प्रतीक हैं। उनके चरित्र में मर्यादा, सत्य, कर्तव्यपालन, त्याग और सहिष्णुता का अनुपम संगम दिखाई देता है। बाल्मीकि रामायण के प्रारंभ में महर्षि नारद, महर्षि बाल्मीकि को भगवान श्रीराम के अद्वितीय
गुणों से अवगत कराते हैं। वे बताते हैं कि इस संसार में श्रीराम ही ऐसे पुरुष हैं, जिनमें सभी श्रेष्ठ गुण – सत्य, धर्म, करुणा, त्याग और मर्यादा एक साथ विद्यमान हैं। इन्हीं गुणों से प्रेरित होकर महर्षि बाल्मीकि ने श्रीराम के जीवन को आदर्श मानकर मानव जीवन के परम लक्ष्यों को उद्देशित करते हुए महाकाव्य ‘बाल्मीकि रामायण’ की रचना की, जो आज भी धर्म, नीति और मानवता का अमर मार्गदर्शन करती है।
बाल्मीकि रामायण में वर्णित श्रीराम के जीवन प्रसंग मानव को जीवन के हर क्षेत्र में मार्गदर्शन देते हैं। सत्य और मर्यादा के प्रतीक राम का चरित्र हमें यह सिखाते है कि जीवन में कैसी भी कठिनाइयों का सामना क्यों न हो, अगर सत्य, धर्म, और न्याय के मार्ग पर चलेगें तो वह सफलतम जीवन जी सकते है। राम का जीवन हमें आदर्श आचरण, कर्तव्यपरायणता, और करुणा का पालन करने की प्रेरणा देता है। श्रीराम ने हर परिस्थिति में सत्य का पालन किया। पिता के वचनों की रक्षा हेतु वनवास गये, धन- वैभव, राज्य, सुख-सुविधा को त्यागकर सत्यनिष्ठा को सर्वोपरि रखा तब जाकर राम का चरित्न आदर्श चरित्न कहलाया-
“रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्यपराक्रमः ।
राजा सर्वस्य लोकस्य देवानामिव वासवः ॥”
बाल्मीकि रामायण से अयोध्या काण्ड के 19 सर्ग से कुछ श्लोकों के उद्धरण दिये हैं जहां राम अपने पिता के वचनों को सर्वोपरि मानकर वन गमन प्रस्थान का निर्णय सहर्ष स्वीकार कर लिया –
यत् तत्नभवतः किंचिच्छक्यं कर्तुं प्रियं मया ।
प्राणानपि परित्यज्य सर्वथा कृतमेव तत् ॥
‘पूज्य पिताजी जो भी प्रिय कार्य मैं कर सकता हूँ, उसे प्राण देकर भी करूँगा। तुम उसे सर्वथा मेरे द्वारा हुआ ही समझो ।
न ह्यतो धर्मचरणं किंचिदस्ति महत्तरम् ।
यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिया ॥
‘पिता की सेवा अथवा उनकी आज्ञा का पालन करने जैसा महत्त्वपूर्ण धर्म या उससे बढ़कर संसार में कोई दूसरा धर्माचरण नहीं है।
अनुक्तोऽप्यत्नभवता भवत्या वचनादहम् ।
वर्ने वत्स्यामि विजने वर्षाणीह चतुर्दश ॥
यद्यपि पूज्य पिताजी ने स्वयं मुझसे नहीं कहा है, तथापि मैं तुम्हारे ही कहने से चौदह वर्षों तक इस भूतल पर निर्जन वन में निवास करूँगा।
राम के लिए कर्तव्य का अर्थ केवल कर्तव्य नहीं, बल्कि धर्म का पालन करना था। पिता के प्रति उनकी निष्ठा ने उन्हें “मर्यादा पुरुषोत्तम” बनाया।
राज्य के प्रति उत्तरदायित्व और लोकहित का भाव वनवास से लौटकर श्रीराम ने राज्य संचालन में न्याय, समानता और लोककल्याण को सर्वोच्च स्थान दिया।
रामो राज्यमुपासित्वा धर्मेण पृथिवीम् अवात् ।
ब्रह्मलोकं प्रयातोऽथ कालं प्राप्य यथाविधि ॥
श्रीराम का जीवन और उनका शासन, धर्म का मूर्त उदाहरण है। उन्होंने मानवता को दिखाया कि सच्चा नेतृत्व कैसा होना चाहिए। जहाँ धर्म सर्वोपरि हो और प्रजा का सुख ही राजा का धर्म बन जाए तब वहां की प्रजा निष्कंटक, निःशोक, आनन्द के साथ संतुष्ट थी। “रामराज्य” का आदर्श भारतीय इतिहास में लोककल्याण का सर्वोच्च उदाहरण है। श्री राम दया के सागर थे। उनके हृदय में करुणा का अगाध भण्डार था इसीलिए अपने शत्रु के प्रति भी क्षमा और करुणा का भावरखते थे। रावण वध के बाद उन्होंने लक्ष्मण से कहा –
वैरं न कश्यचित् कर्तुमर्हसि मानवः ।
सर्वभूतहिते युक्तः शमः परमसंपदः ॥
राम ने अपने जीवन में कभी किसी से वैर नहीं किया। रावण जैसे महाश के प्रति भी उन्होंने केवल धर्मरक्षा के लिए युद्ध किया, न कि प्रतिशोध या द्वेष से । रावण वध के बाद प्रभु ने लक्ष्मण से कहा जाओ लक्ष्मण इस महाज्ञानी रावण के उपदेश को प्राप्त करो।
“गच्छ लक्ष्मण ! रावणस्योपदेशं शृणुः स महान् पण्डितः ।”
इस श्लोक से स्पष्ट है कि प्रभु राम के हृदय में द्वेष नहीं था। राम किसी भी किसी परिस्थिति में धर्म से विचलित नहीं हुए। राम शूर्पणखा के प्रणय प्रस्ताव पर अत्यंत शांत और संयमित स्वर में उत्तर देते हुए कहते हैं – “मैं तुम्हें नहीं स्वीकार कर सकता, क्योंकि मैं विवाहित हूँ। यह उचित नहीं कि मैं अपने भ्राता की पत्नी को स्पर्श करूँ । मेरे छोटे भाई लक्ष्मण हैं, वे नित्य अपने प्रियजनों के हित में लगे रहते हैं, तुम उनके पास जाओ।”
नैनं स्पृशामि तु ह्येषा भ्रातुः भार्या भविष्यति ।
लक्ष्मणो नाम ये भ्राता नित्यम् प्रियहिते रतः ॥
राम ने क्रोधवश, आवेग में कभी स्त्री का अपमान नहीं किया। सदैव शांति के साथ वाणी संयम का पालन किया। राम का आचरण करुणा और धैर्य का पालन करते हुए उच्चतम नैतिक मानकों और कर्तव्यों को दर्शाता है। उनका जीवन निष्ठा, सम्मान और सेवा से सर्वोपरि है। आज वर्तमान में भी राम का आदर्श चरित्न आने वाली पीढ़ी को यही सिखाता हैं कि मर्यादा का पालन करते हुए, अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ रहें और हर परिस्थिति का सामना साहस और दृढ़ संकल्प से करें। अनुशासित जीवन जिएं। परिवार में छोटे बड़े का मान करते हुए रिश्तों में निष्ठा, प्रेम और सम्मान रखें। अपने लक्ष्यों को कभी न छोड़ें। आज की युवाओं को सकारात्मक परिणाम के लिए, सफलता के लिए राम के आदर्श चरित्न को हृदय में बिठाकर जीवन पथ पर आगे बढ़ना होना। बाल्मीकि रामायण को पढ़कर, मथकर, उसमें लिखे गूढ़ रहस्यों को जानकर ही जीवन को सफल और सार्थक बनाया जा सकता है। यह महाकाव्य केवल धार्मिक ग्रंथ ही नहीं, बल्कि साहित्यिक उत्कृष्टता की अनमोल धरोहर है। इसमें धर्म, नैतिकता, और आदर्शों की महत्ता का उल्लेख है, जो आज भी प्रासंगिक है।
बाल्मीकि न केवल एक महान कवि थे, बल्कि एक उच्च कोटि के दार्शनिक और समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अपने समय की सामाजिक और धार्मिक व्यवस्थाओं पर गहन चिंतन किया और उन्हें अपने लेखन के माध्यम से प्रस्तुत किया। उनकी रचनाएँ न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक महत्त्व की हैं, बल्कि साहित्यिक दृष्टि से भी अद्वितीय हैं।
