नारी - जिंदगी गुलजार है जिससे

आजाद लड़की, खुशहाल लड़की, मेहनतकश लड़की, संघर्षरत, कर्मठ या बस आम लड़की, शौकीन, सौम्य,सुंदर या फिर बेबस और उदास लड़की। किन लोगों की पहली मांग बनेगी एक कामयाब लड़की ? क्योंकि घर में बेटियां वैसे तो सबको पसंद है, लेकिन बस दायरे में।

हम चाहते हैं कि बेटियों को जितनी जल्दी यह सीख मिल जाए, कि उसे घर छोड़कर जाना है। पर, यकीन मानिए बेटियां उम्र से पहले और उम्मीद से ज्यादा जानती हैं, कायदे भी और काम भी। पर, काफी कुशल होती हैं बेटियां जब रिश्तों की बात आती है। उस घर को भी वह इतना प्यार देकर जाती हैं जो जन्म से ही उन्हें पराया मानने लगता है। और यही नहीं नए रिश्तों के साथ साथ पुराने रिस्तों को भी बड़ी मजबूती से बांधकर रखती हैं।

नारी उत्थान के लिए बहुत सी योजनाएं बनाई जा चुकी हैं और इनमें से बहुतों का पालन भी शुरू हो चुका है। भले कागजी तौर पर हम कितने भी आगे निकल गए हों, हमारी निजी दायरे में बहुत से कानून कायदे या योजनाएं उतनी तेजी से काम नहीं करते। महिलाओं के लिए खासकर ये एक बहुत बड़ी चुनौती है। वह उस दौर में जी रही हैं, जहां उन्हें समाज का सशक्त बल भी बनना है और प्रकृति पर लिखे गए कविता की कल्पना भी। उसे कोमल गोरी सुंदर भी रहना है और सामान्य दिखकर आत्मविश्वास से परिपूर्ण भी रहना है। वो एक दोहरी जिंदगी में अपने आप को संबोधित कर रही है, जहां उसे वैसे तो किसी की जरूरत नहीं पर केवल कुछ करीबी रिश्तों में नमी बनाए रखने के लिए वह सब कुछ समेट लेती है।

इसी दोहरी जिंदगी के बगल में एक और दुनिया बस रही है, जो अंतर करती है, भेद करती है और पूरा ही अलग कर देती है उन सारी योजनाओं को जो उत्थान के लिए बने थे और वह है महिला और पुरुष के बीच का वैचारिक अंतर। हम चाहे जितना "सशक्त समाज" की परिकल्पना कर लें पर, कमोबेश यह अंतर आज भी किसी न किसी रूप में उजागर हो जाता है। पूर्ण सामाजिक उत्थान के लिए महिला सशक्तिकरण की परिकल्पना और हो रहे प्रयासों को सफल बनाने के लिए सबसे पहले इस अंतर को मिटाना होगा अन्यथा यह सारी बातें बेमानी सी लगती हैं।हमारी सभ्यता नारी को तो देवी मानती है पर उसे उसके महात्यम से अनजान रखती है। पति ही परमेश्वर क्यों ? जबकि यह नींव ही नारी की पवित्रता, समर्पण और सेवा से बनी है। दुर्गा सप्तशती में भी देवियों की उत्पत्ति सारे देवों के तेज से हुई है, जो हमारी सृष्टि की जननी और संहार की इष्ट है। हमारे आराध्य "शिव" भी माता पार्वती की शक्ति के मेल से ही अर्धनारीश्वर कहलाते हैं। भगवान विष्णु भी माता लक्ष्मी जी के साथ पूजे जाते हैं और राम जी का दरबार भी सीता जी के साथ ही सजाया जाता है। जन्म से लेकर बहू बनने तक बेटियां लक्ष्मी स्वरुप होती हैं और तभी उसे गृहलक्ष्मी नाम भी मिलता है।

नारी का स्वरुप तो समय के साथ इतनी सशक्त और खूबसरत शख्सियत धारण कर लेता है कि ना वो कभी खुद की पीड़ा पर रोती है,और खूबसरत शख्सियत धारण कर लेता है कि ना वो कभी खुद की पीड़ा पर रोती है, और ना ही खुश हो अट्टहास करती है, बस केवल वो अपनी अदम्य शक्तियों को अपने आप में समेटे अपने से जुड़े हर रिश्तों को गुलज़ार करने में लगी रहती है।

मोनिका शुक्ला, शिक्षिका, हावड़ा