दरकते परिवार, उलझे किरदार

“मामा-मामी, बुआ-फूफा, दीदी-जीजा और उनके बच्चे, उनका भी रोल आपके परिवार में है और आपका भी एक किरदार उनके परिवार में है”
परंपरा-व्यवस्थाएं पुरानी हो सकती हैं, पर उनका मूल्य कभी कम नहीं होता। आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में हमने पश्चिम की हर व्यवस्था-हर आधुनिकता की नकल की, उसे अपना लिया। सिर्फ देखादेखी के चक्कर में हमने वो सब खो दिया या खो देने के मुहाने पर आ गए हैं, जहां से आप बिखराव की ओर ही आगे जाएंगे या जा रहे हैं। परिवार - एक ऐसा शब्द जो ना सिर्फ आपको दुनिया में एक पहचान दिलाता है बल्कि सामाजिक व्यवस्था का सबसे अहम अंग है। पर, पश्चिम की तरह एकल चलने की दौड़ ने भारतीय परंपरा के इस खूबसूरत सिस्टम या यूँ कहें परिधि को तहस नहस कर दिया है।
दरअसल, परिवार के दरकने की कहानियां पहले कम मिलती थी, पर अब अगर कोई परिवार संयुक्त बचा है तो वो चर्चा का विषय बन जाता है। परिवार टूटने का सिलसिला बहुत बढ़ गया है। परिवार सदा से बिखरते रहे हैं, पर अब बिखराव कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रहा है और अगर आप कारणों पर गौर करेंगे तो आप देख समझ पाएंगे कि आखिर इस मोड़ पर हम-आप कैसे आ गए।
अगर गौर करेंगे तो पाएंगे कि परिवार में हर किरदार फिलहाल उलझ गया है। ऐसा नहीं है कि नौकरी-पढ़ाई या व्यवसाय के चलते परिवार बिखर रहे हैं। भारत के बड़े हिस्से में प्रवासी रहने, कहीं और जाकर पढ़ाई - नौकरी का पुराना और लंबा इतिहास रहा है। यहां तक की समुद्र पार हो, खाड़ी देश हो, वहां भी लोग वर्षों नौकरी करने के बाद अपने परिवार के पास लौट आते हैं। पर अब हर किरदार उलझ गया है।
परिवार सिर्फ एक - दो लोगों से तो बनता नहीं, माता-पिता के बाद परिवार के लिए दादा - दादी जड़ का काम करते हैं। फिर किरदार आता है बड़े पापा - बड़ी मम्मी, चाचा - चाची, बड़े भाई और बहन का। अगर 90 के बाद भारत को देखें तो अमूमन इस गुच्छे में सबसे ज्यादा ’कीड़ा’ लगा है। प्रत्येक छोटा परिवार कभी ना कभी बड़ा होता है और जिन रिश्तों का जिक्र हुआ है सबके पास वो होते हैं। हिंदुस्तान का ऐसा कोई घर कभी नहीं रहा है जहां ये रिश्ते ना रहे हों। पर जैसे - जैसे इस गुच्छे में कीड़े लगते गए वैसे - वैसे एक - एक फल खत्म होते गए। आज हालात ये हैं कि परिवार रूपी पूरा पेड़ ही प्रभावित होने के कगार पर है।
अगर मौजूदा वक्त में इसे आप सरल तरीके से समझना चाहते हैं तो अपने अगल - बगल, घर या बाहर जहां भी मौका मुआयना कर सकें एक बार देखें - क्या कितने बच्चों के जीवन में आज की तारीख में दादा - दादी, नाना - नानी का रोल बचा है ? कब आज के 5 से लेकर 15 तक की उम्र के मासूम बच्चों ने दादा - दादी, नाना - नानी से कहानी सुनी ? पहले भी लोग कामकाज के चक्कर में अपने परिवार के साथ दूर रहते थे, दूसरे राज्य जाते थे पर गर्मी की छुट्टी, ठंडियों में, पर - परिवार में शादी - विवाह जैसे मौकों पर पूरे परिवार के साथ जुटते थे, ये वो मौके होते थे जब बच्चों को अपने बड़ों से प्यार के साथ परंपरा और संस्कृति की घुट्टी मिलती थी। उन्हें सानिध्य मिलता था।
