जब मैं घर से भागा

यह घटना उस समय की है जब मैं 8-9 वर्ष का बालक था। उन दिनों मैं अपने पैतृक निवास स्थान राजापुर गढ़ेवा में था। ग्रीष्म ऋतु थी और गेहूं की फसल की कटाई, मड़ाई चल रही थी। बरिया (हमारी छोटी सी बाग) में भी मड़नी चल रही थी। मैं घर वालों के आदेश पर अपरान्ह लगभग 3-4 बजे के आस-पास बप्पू (हमारे बड़े चाचा) के लिए पीने का पानी लेकर बरिया गया था। बप्पू ने पानी पीने के पश्चात् मुझसे कहा कि मौसम अनुकूल नहीं लग रहा है, सम्भवतः रात तक आंधी पानी आ सकता है। अतः तुम घर जाकर सारे भाइयों की सहायता से बैलगाड़ी ले आओ, जिससे की जितने गेहूं की मड़ाई हो चुकी है उसे सुरक्षित घर पहुंचाया जा सके। मैंने घर जाकर बप्पू का आदेश सुनाया। अब चूंकि बैल तो मड़ाई कर रहे थे अतः बैलगाड़ी को सभी लोग को खींचकर ले जाने लगे। कमल भईया (मेरे सबसे बड़े अग्रज) और भुल्लन दद्दू ने आगे एक एक ओर से जुआं पकड़ा बाकी हम सब छोटे भाइयों को पीछे से ढकेलने को कहा। सबके सामूहिक प्रयास से बिना बैल के बैलगाड़ी चल पड़ी। हमलोग जब बरिया के पास पहुंचने वाले थे तब मेरे मस्तिष्क में कुछ मस्ती करने का विचार आया। अतः मैने और अंजनी भईया ने आपस में मंत्रड़ा की और बैलगाड़ी को पीछे की ओर खींचने लगे। अब बैलगाड़ी आगे बढ़ने में कठिनाई होने लगी। अतः कमल भईया और भुल्लन दद्दू पीछे मुड़कर देखने लगे कि क्या हुआ तब हमारी

उद्दंडता पकड़ी गई। इतनी देर में सभी पसीने से लथपथ हो चुके थे और चिड़चिड़ा रहे थे, अतः उनका कोपभाजन मैं बना। भ्राताश्री ने आकर मुझे 4-5 झापड़ जड़ दिए। मैं दर्द से बिलबिला उठा और रोते हुए अंजनी भैया की ओर संकेत कर कहा कि इनको भी मारो ये भी तो गाड़ी पीछे खींच रहे थे। इतना सुनकर भ्राताश्री ने मुझे फिर से कूट दिया। उनकी इस कुटाई से मैं बहुत क्षुब्ध और आहत हुआ अतः मैं क्रोधवश यह कहते हुए भागा कि मुझे इस घर में नहीं रहना जहां सब मिलकर मुझे ही कूटते हैं। मुझे भागते देखकर भ्राताश्री मुझे पकड़ने दौड़े तो मैं और तेज भागा, भ्राताश्री भी तेजी से भागते हुए आए मुझे पकड़कर पुनः कसकर धोया और लतियाया भी। सम्भवतः वो भी अत्यन्त क्षुब्ध हो चुके होंगे। उनकी वीरता के सामने मैं नन्हा सा बालक असहाय था, अतः रोते बिलखते मैं घर की ओर वापस चला। इस बीच बैलगाड़ी अन्य लोगों की सहायता से बरिया पहुंच गई थी।

घर आकर मैं अम्मा के पास इस आशा से गया कि सम्भवतः वो मेरी पीड़ा के प्रति सहानभूति दिखाएंगी। अम्मा उस समय रसोई में रोटी सेंक रहीं थीं। मैंने दिवलिया के पास खड़े होकर कातर दृष्टि से उनकी ओर देखा, अम्मा को अब तक मेरे कृत्य का पता चल चुका था, अतः उन्होंने भी मुझे दुत्कार दिया और कहा की "काहे वापस आए हो कहूं बहि बूड़ि मर्तियू"। इतना सुनकर मैं पूरी तरह से टूट गया अतः मैं बिना भोजन किए सिसकते हुए जाकर सो गया। रात में सारे काम निपटा कर अम्मा जब वापस आईं तब मुझे जगाकर दुलार किया और भोजन कराया। बाद में कहा कि क्यों इतनी उद्दंडता करते हो और सबको सताते हो। मैं खा पीकर पुनः सो गया। रात में अत्यन्त तेज आंधी आई और तेज वृष्टि भी हुई, मैं सोच रहा था कि बप्पू को कैसे पता चला कि रात में आंधी पानी आयेगा। साथ ही यह सोंचकर संतोष हुआ कि अच्छा हुआ कि भ्राताश्री की कुटाई के कारण मैं घर वापस आ गया अन्यथा पता नहीं मेरा क्या होता, सम्भवतः सियार, भेड़िया, लकड़बग्घा आदि मुझे मार कर खा जाते।

इस घटना के पश्चात् मैने भ्राताश्री से बात करना छोड़ दिया क्योंकि मैं उनको कुटाई से बहुत आहत था। उन्होंने मुझे पटाने का बहुत प्रयास किया, मियागंज बाजार से मेरे लिए गुड़ की पट्टी क्रय करके लाए पर मैंने लेने से मनाकर दिया और कहा कि आपने मेरे सीने में लात मारी है जैसे ऋषि भृगु ने भगवान विष्णु के सीने में मारी थी। पता नहीं कि कितने दिनों तक मैंने भ्राताश्री से बात नहीं की, पर इतना अवश्य याद है कि भ्राताश्री ने अपनी एक नायलॉन की प्यारी सी हल्के नीले रंग की टी शर्ट मुझे दे दी। उपरोक्त घटना से मुझे यह सीख मिली कि बेटा घर से पुनः भागने का प्रयास कभी नहीं करना नहीं तो कुटाई तो होगी ही और साथ ही अन्य गम्भीर परिणाम भी भुगतने पड़ सकते हैं।

अशोक त्रिपाठी, ठाणे, मुम्बई