जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे

हमारा देश भारत विभिन्न संस्कृतियों, पर्व व त्योहारों का देश है। यहां का हर राज्य किसी विशेष पर्व या पूजा के लिए प्रसिद्ध है जैसे - पश्चिम बंगाल का कोलकाता शहर दुर्गा पूजा के लिए, महाराष्ट्र गणेश पूजा के लिए, उत्तर प्रदेश दशहरा के लिए। उसी प्रकार ओडिशा का 'श्री क्षेत्र - पुरी' अपनी रथ यात्रा के लिए न सिर्फ देश बल्कि विदेशों में भी प्रसिद्ध है। आज रथ यात्रा ना सिर्फ देश के विभिन्न राज्यों में बल्कि कई अन्य देशों की धरती पर भी पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ निकाली जाती है।

रथ यात्रा के लिए कई महीनो से तैयारी शुरू हो जाती है और साथ ही शुरू हो जाती है रथ निर्माण की प्रक्रिया भी। आप और हम जिस रथ जिसमें भगवान विराजते हैं, को देखते हैं उसे बनाने में कई लोगों की निष्ठा, लगन व मेहनत होती है, जिन्हें विश्वकर्मा कहते हैं। ये लोग श्री जगन्नाथ मंदिर की सेवा में रहते हैं और रथ यात्रा में रथ निर्माण के प्रथम चरण से लेकर अंतिम चरण तक इनका महत्वपूर्ण योगदान होता है। रथ यात्रा व रथ निर्माण की प्रक्रिया को लेकर मेरे मन में काफी जिज्ञासा थी और साथ ही वो सारी जानकारियां आप तक किस तरह पहुंचे इसकी उत्सुकता भी। पर, इसके लिए यथार्थ के धरातल पर उतरकर पौराणिक के साथ - साथ कुछ जमीनी जानकारियां लेना अति आवश्यक था। जैसे, रथ बनाने के क्या नियम होते हैं, क्या समय सीमा होती है और साथ ही यदि कोई विशेष पूजा पद्धति भी है, तो उसकी जानकारी, किस रथ का क्या रंग और आकार होता है और साथ ही उन्हें किन नामों से जाना जाता है, इत्यादि।

अपनी जिज्ञासा की संतुष्टि के लिए मैंने मुलाकात की भगवान श्री जगन्नाथ जी के वरिष्ठ विश्वकर्मा श्री बिजय कुमार महापात्र जी से, जिनके सहज व सरल स्वभाव से भगवान श्री जगन्नाथ से उनकी निकटता का स्वयं संकेत मिलता है।

उत्तर : दरअसल रथ निर्माण प्रक्रिया में तीन बाड़ा (विभाग) होते हैं - बड़े ठाकुर बाड़ा, सुभद्रा बाड़ा और जगन्नाथ बाड़ा। हर बाड़ा के लिए एक मुख्य विश्वकर्मा होता है। मैं जगन्नाथ बाड़ा का प्रमुख हूं। जब तक मैं नारियल बड़ा कर (तोड़ कर) अनुकूल (शुभारंभ) नहीं करूंगा तब तक रथ बनाने का कार्य आरंभ नहीं होगा।

प्रश्न : सर ! जैसा कि हमलोग जानते हैं, रथ अनुकूल (शुभारंभ) अक्षय तृतीया के दिन होता है, इसे पूर्ण होने में कितना समय लगता है ?

उत्तर : हां बिलकुल ! बैशाख मास के शुक्ल पक्ष की अक्षय तृतीया से रथ का अनुकूल होता है और इन्हें बनाने में 58 दिन का समय लगता है।

प्रश्न : क्या रथ भी नीम की लकड़ी से बनाए जाते हैं ?

उत्तर : नहीं , नीम काठ (नीम की लकड़ी) से प्रभु श्री जगन्नाथ जी व अन्य मूर्तियां नवकलेवर के समय बनती हैं। रथ के लिए जो काठ (लकड़ी) लगता है उसका नाम धौरा,असना‌ और फासी है। फासी काठ सबसे पहले लगता है। रथ का मुख्य भाग "तुम्भ", फासी काठ नहीं होने से नहीं बनेगा। जिस प्रकार साइकिल में रिम होती है उसी प्रकार रथ की रिम को "पई" कहा जाता है। चक्का, तुम्भ फासी काठ से ही तैयार होता है। साइकिल में जिसे स्पॉक कहते हैं उसको रथ में "औरा" कहा जाता है। ये इसकी अपनी भाषा है और इसी नाम से संबोधित करते हैं।

प्रश्न : रथ बनाने की प्रक्रिया कुछ नियमों के तहत होती है क्या ?

उत्तर : रथ निर्माण की शुरुआत अक्षय तृतीया से होती है, उसके लिए प्रथम महाप्रभु की आज्ञा माल मिलती है अर्थात अनुमति। प्रभु के जितने भी कार्य होते हैं, उसके लिए प्रभु की तरफ से आज्ञा आती है, तभी कार्य प्रारम्भ होता है। उसके बाद दूसरी 'भाउरी' के दिन 'आज्ञा माल' मिलती है - रथ के पहिए जोड़ने के लिए और उस दिन रथ में पहिए जोड़े जाते हैं। तीसरी बार आज्ञा माल 'नेत्र उत्सव' के दिन आती है - रथ को सिंह द्वार में लगाने की, तब रथ यात्रा से एक दिन पूर्व रथ को खींच कर सिंह द्वार में लगाया जाता है। चौथी बार आज्ञा माल मिलती है 'हेरा पंचमी' के दिन, जब लक्ष्मी बीजे करती हैं और उस दिन लक्ष्मी जी के द्वारा रथ तोड़ा जाता है। उसके अगले दिन रथ दक्षिण मुंह होता है अर्थात रथ वापसी के लिए मुड़ता है।

प्रश्न : आज्ञा माल कैसे मिलती है ?

उत्तर : आज्ञा माल महाप्रभु के देह (शरीर) पर चढ़ी माला होती है, जो प्रभु की आज्ञा का प्रतीक माना जाता है। मंदिर से घंटा, घड़ियाल शंख बजाते हुए आज्ञा माल निकलती है, जो हम लोगों के पास आती है। भाऊरी के दिन की आज्ञा माल सर्वप्रथम राजा के घर में रखी जाती है। फिर, हम लोगों के पास आती है। उसके बाद नारियल तोड़ कर शुभारंभ होता है।

प्रश्न : रथ निर्माण के दौरान आप लोगों के कुछ खाने - पीने के भी नियम होते हैं क्या ?

उत्तर : वैसे तो खाने - पीने का कोई नियम नहीं है। पर, जिन दिनों भगवान की 'आज्ञा माल' आती है, बस उस दिन उपवास रखा जाता है।

प्रश्न : क्या सभी रथों की माप (आकार) समान होती है या अलग-अलग ?

उत्तर : एक प्रकार माप नहीं होती है। सब भिन्न - भिन्न होती है। आजकल जो इंच, फुट की माप है, हमारा उससे काम नहीं होता है। ये सब काम हाथों -- अंगुल (हाथों की उंगलियों से ली गई माप) से ही होते हैं। हमारे पास हाथ काठी माप है - उसी से माप कर हम सारा कार्य करते हैं। हमारे पास कोई माप लिखित भी नहीं है, सारी माप हमारी पाटी (जबान : एक तरह से मुखस्त) पर रहती है। हमारे नंदीघोष (प्रभु श्री जगन्नाथ के रथ का नाम) का रथ सबसे लंबा 45 फिट होता है और उतना ही चौड़ा। उससे कम प्रभु बलभद्र, फिर उससे कम मां सुभद्रा का रथ होता है। ज्यादा नहीं ! लगभग एक फुट का ही फर्क होता है।

प्रश्न : क्या रथ के चक्का में भी कुछ अंतर होता है ?

उत्तर : चक्का सबसे बेसी (अधिक) प्रभु जगन्नाथ के 16, बड़े ठाकुर के 14 और मां सुभद्रा के रथ के 12 होते हैं, ऊंचाई में मां सुभद्रा का चक्का ज्यादा ऊंचा, उससे कम बड़े ठाकुर, फिर प्रभु श्री जगन्नाथ जी का, ज्यादा नहीं बस एक-आधा इंच का अंतर होता है।

प्रश्न : सर ! रथ के घोड़ों के बारे में भी कुछ बताइये।

उत्तर : घोड़े सिर्फ नव कलेवर में नीम काठ से बनते हैं। घोड़े, सारथी ,चक्का के ऊपर लगे पार्षद देवता, रथ में लगी मूर्तियां और रथ के चारों ओर का घेरा नव कलेवर में ही नव निर्मित होते हैं। बाकी समय वही लगते हैं।

प्रश्न : रथ के चारों ओर जो कोन्ना (कपड़ा) लगता है, उसको लगाने का कार्य भी आप लोग ही करते हैं क्या ?

उत्तर : असल में मंदिर की सेवा इस तरह से की जाती है कि जो पीड़ा (चौकी) डालेगा वो उठाएगा नहीं। उसको कोई दूसरा ही उठाएगा। मतलब, हर कार्य के लिए अलग-अलग लोग होते हैं। जिस प्रकार हम लोग विश्वकर्मा हैं, वैसे ही मंदिर में दर्जी सेवक भी होते हैं। सभी लोग उस काम को नहीं कर पाएंगे। जो परफेक्ट होते हैं, जिनका हाथ सटीक होगा वही रथ में सही से कपड़ा लगा पाएंगे। दर्जी सिलाई कर देंगे लेकिन उसको लगाने का काम कोई और ही करेगा।

बातचीत के दौरान श्री विश्वकर्मा जी ने बहुत सारी अन्य रोचक जानकारियां भी दीं, जिसे आप तक पहुँचाने कि प्रक्रिया में ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे मैं स्वयं प्रभु श्री के चरणों का सानिध्य पा उन पलों को जिए जा रही हूँ। ईश्वर ये रोमांच मुझसे कभी न छीने, यही प्रार्थना हैं।

श्री विश्वकर्मा जी ने बताया कि प्रत्येक रथ का नाम, रंग और आकार अलग-अलग होता है। यही इनकी पहचान भी है। बड़े ठाकुर के रथ का नाम "तालध्वज" है जिसका रंग लाल व हरा होता है और चार घोड़े जिनका रंग काला होता है, मां सुभद्रा के रथ का नाम "दर्पदलन " और रंग लाल और काला होता है, घोड़ों की संख्या चार व रंग लाल होता है। वहीं, प्रभु श्री जगन्नाथ का रथ "नंदीघोष" के नाम से जाना जाता है जिसका रंग लाल और पीला होता है। इस रथ में भी घोड़ों की संख्या चार ही होती है पर रंग सफेद होता है। रथ में लगे घोड़े दौड़ने की मुद्रा में होते हैं, साथ ही उसको चलाने के लिए सारथी भी होता है, जिसके हाथ में घोड़ों की लगाम होती है।

जैसा कि प्रभु श्री जगन्नाथ बाड़ा के प्रमुख विश्वकर्मा ने बताया प्रभु की आज्ञा माला मिलने के बाद रथ सिंहद्वार पर लगा दिए जाते हैं। आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की द्वितीया को रथ यात्रा निकाली जाती है। श्री मंदिर के कई नीति, नियम के पश्चात वो शुभ घड़ी आ ही जाती है जब प्रभु अपने भाई बड़े ठाकुर अर्थात बलभद्र जी और छोटी बहन मां सुभद्रा के साथ श्री गोंडिचा मंदिर के लिए प्रस्थान करते हैं। जिस प्रकार हम लोग बाहर जाने पर अपने नित्य उपयोग की वस्तुओं को लेकर चलते हैं, उसी प्रकार प्रभु भी अपने कपड़े, गहने और नित्य उपयोग की वस्तुओं को साथ लेकर अपनी मौसी - मां के घर जाते हैं और साथ में उनका बक्सा भी जाता है, जिसमें सारा उपयोगी सामान होता है।

मंदिर से सर्वप्रथम भगवान का सुदर्शन चक्र निरिक्षण हेतु लाया जाता है। उसके बाद श्री बलभद्र जी फिर मां सुभद्रा रथ पर विराजमान होती हैं। तत्पश्चात भगवान श्री जगन्नाथ जी के आगमन की घड़ी आती है। इस सारी प्रक्रिया में प्रभु की सवारी का जो वैभव देखने को मिलता है उसे सीमित शब्दों में पिरो पाना असंभव हैं। भक्तों के आतुर नेत्र अपने प्रभु के दर्शन के लिए टकटकी लगा कर देखते रहते हैं। प्रभु कि एक झलक पाने को उत्सुक उमड़े जनसैलाब में अनगिनत आंखो को पलक झपकाने से भी आपत्ति है कि कहीं कोई दृश्य छूट ना जाये !!

भक्तों की प्रतीक्षा का अंत होता है, जब 'हरि बोल' के जयकारे के साथ प्रभु अपने छोटे-छोटे डग भरते हुए श्री मंदिर से बाहर निकलते हैं। वह रमणीय दृश्य अत्यंत अद्भुत, अतुल्य व अकथनीय है। भक्तों के 'हरि बोल' व 'जगन्नाथ की जय हो' के उद्घोष से सारा आकाश गुंजायमान हो उठता है। ठुमुक-ठुमुक कर प्रभु आगे बढ़ते हैं, कभी-कभी प्रभु जगन्नाथ जी थोड़ा नटखट भी हो जाते हैं। सच में ! मुझे तो ऐसा लगता है, जब उनके सेवक जन उनको लेकर चलते हैं, तब कभी तो बड़े आराम से चले जाते हैं और कभी-कभी तनिक भी आगे नहीं बढ़ते ! अब ये मेरी अपनी भावनाएं भी हो सकती हैं। पर, कुछ प्रत्यक्षदर्शियों, जिनमें मेरे पिता भी शामिल हैं, ने बताया कि एक बार पतित पावन के पास भगवान रुक गए, काफी मुश्किल से फिर आगे बढ़े। इसी तरह एक बार रथ के पास जाकर रुक गए। काफी कोशिशों के बाद भी हिले नहीं। जब, सब हार गए तब राजा ने आकर उनको मनाया और फिर कहीं वो रथ पर सवार हुए। आखिर हैं तो अपने नटखट कान्हा का ही रूप, तो कुछ तो शैतानी बनती है।

सर पर सुसज्जित तुलसी व फूलों से बना मुकुट जिसे टाहीया कहते हैं, नाक में लगा नकचना, हृदय पर शोभित तुलसी व विभिन्न सुगंधित फूलों की माला, मस्तक पर चंदन का तिलक चेहरे की मंद मधुर मुस्कान देखकर लगता है प्रभु अपने भक्तों के बीच कितने प्रफुल्लित हैं। ये निर्विवाद सत्य है, ईश्वर और भक्त के मध्य सिर्फ प्रेम और प्रेम रह जाता है। ना कोई ऊंच ना नीच, ना छोटा ना बड़ा, सब प्रभु की भक्ति के प्रेम-रस में आकंठ डूबे रहते हैं। देश ही नहीं विदेश के हर कोने से आए लोग प्रेम में आकंठ डूबे मिल जाएंगे। हरि बोल के उच्च जयघोष के साथ प्रभु रथ पर विराजमान होते हैं।

सर्वप्रथम पुरी के श्री शंकराचार्य जी आकर तीनों रथों में अपनी डंडी से स्पर्श करते हैं जिसे 'डंडी छुवा' नीति कहते हैं। तत्पश्चात, पुरी के राजा को पालकी से लाया जाता है। विशेष पूजा अर्चना के साथ राजा रथ पर झाड़ू लगाते हैं जिसे 'छेरा पहूंरा' नीति कहते हैं। इसके बाद रथ पर लगी चार मार (सीढ़ियां) खोल दी जाती हैं और घोड़ों को लगा दिया जाता है। रथ में मोटे-मोटे रस्से खींचने के लिए लगाए जाते हैं। इसके बाद विजय तूरी बजाया जाता है, फिर घंटा बजता है। भक्त जन रथों को खींचकर श्री गोडिंचा मंदिर की तरफ चल पड़ते हैं।

सबसे आगे प्रभु बलभद्र जी, मध्य में बहन सुभद्रा मां और उनके पीछे चलता हैं प्रभु श्री जगन्नाथ जी का रथ। अपनी बहन के रथ को दोनों भाई मध्य में रखते हैं। बहन की सुरक्षा भाई ही तो करते हैं, साथ ही भाई-बहन के स्नेह की जो संस्कृति हमारे देश की है वो हमें पुरी मंदिर व रथ यात्रा में दिख जाती है। आप यही देखिए भगवान का प्रिय सुदर्शन श्री मंदिर में प्रभु जगन्नाथ के पास रहता है, पर रथ यात्रा में बहन की अतरिक्त सुरक्षा के लिए वो सुभद्रा मां के रथ में रखा जाता है।

समुद्र सा अथाह जनसैलाब अपने दीनबंधु दीनानाथ भक्त वत्सल प्रभु श्री जगन्नाथ के दर्शन के लिए उमड़ पड़ता है। प्रभु सभी के लिए समान हैं, सभी उनकी संतान हैं, हर वर्ग, हर जाति, धनी निर्धन का कोई भेद भाव नहीं। भक्तों के प्रभु जिन्हें अनेक नामों जैसे कालिया, चक्का नयन, काला ठाकुर अपनी सरल मधुर स्मित के साथ रथ से दर्शन देते हैं। भक्त गण भाव विह्वल हो उठते हैं और अपलक देखते अश्रुओं से प्रभु की अगवानी करते हैं। ढोल, नगाड़े, घंट, तुरही, ओडिसी के साथ विभिन्न प्रकार के अन्य नृत्य, विभिन्न प्रकार के करतब के साथ भक्त जन अपने प्रभु के रथ को खींचते हैं। रथ अपने गंतव्य की ओर चल पड़ता है। ये दृश्य अद्भुत, अलौकिक, अकथनीय है।

भास्कर देव भी अपनी अपनी संपूर्ण रश्मियों के ताप के साथ प्रभु के दर्शन के लिए आतुर हो उठते हैं, तो इंद्र देव कहां पीछे रहेंगे, वो भी सूर्य देव को आखें दिखाते हुए प्रभु के मार्ग में बारिश के मोती बिखेर देते हैं। ये अद्भुद दृश्य रथ यात्रा के दौरान कई बार दिख जाता है। पिछले वर्ष की रथ यात्रा में एक अलौकिक दृश्य देखने को मिला। हल्की बारिश के मध्य बड़े ठाकुर और मां सुभद्रा पूजा-अर्चना के पश्चात श्री गोंडीचा मंदिर में प्रवेश कर जाते हैं। जब प्रभु श्री जगन्नाथ के पूजा की बारी आयी, ठीक उसी समय भारी बारिश शुरू हो गई। अब आरती पूजा कैसे होगी, इस असमंजस की स्थिति में जो चमत्कारिक दृश्य देखने को मिला वह अत्यंत ही विस्मयकारी था- चारों ओर भारी बारिश के मध्य प्रभु श्री जगन्नाथ के रथ पर कोई बारिश नहीं थी। चारों ओर जोरों की बारिश के मध्य प्रभु की आरती चल रही थी। कई टी वी चैनल में भी यह दृश्य प्रसारित किया गया था। संध्या बेला तक रथ श्री गोंडीचा मंदिर पहुंच जाते हैं। वहां की पूजा अर्चना, अनेक नीति नियमों के बाद भगवान गोंडीचा मंदिर के अंदर दूसरे दिन प्रवेश करते हैं। प्रभु की यह यात्रा नौ दिनों की होती है।

दशमी के दिन पुनः रथ भगवान को अपने घर वापस लाने के लिए चल पड़ते हैं। इस यात्रा को "बाहुड़ा यात्रा" कहते हैं। एकादशी के दिन भगवान का सोना वेष होता है। कहते हैं - एक बार जो प्रभु के सोना वेष का दर्शन करता है, उसके कोटि-कोटि पाप धुल जाते हैं। द्वादशी के दिन आधर पड़ा (दूध, छेना, मलाई से बना शरबत) होता है, जो कि भगवान की यात्रा में शामिल होने आए पार्ष देवी-देवताओं के लिए किया जाता है।

त्रयोदशी के दिन भगवान मंदिर के अंदर जाते हैं। पर इतनी आसानी से नहीं जा पाएंगे। यहां माता लक्ष्मी उनसे रूठी जो बैठी हैं, क्यों कि प्रभु श्री जगन्नाथ जी उन्हें छोड़ कर अपने भाई, बहन के साथ यात्रा पर निकल गए थे ? माता लक्ष्मी पहले ही मंदिर में जगन्नाथ जी को न पाकर उन्हें खोजने निकलती हैं और जब गोंडिचा मंदिर में उनका रथ पाती हैं तब उनका रथ तोड़ कर अपना रोष प्रकट करती हैं और पुनः श्री मंदिर लौट आती हैं। उनकी इस यात्रा को लक्ष्मी बीजे के नाम से जाना जाता है। खैर, रूठी हुई लक्ष्मी जी सिर्फ अपने जेठ जी अर्थात बलभद्र जी और ननद सुभद्रा जी को मंदिर में प्रवेश मार्ग देती हैं पर, अपने पति के लिए द्वार बंद कर देती हैं। लक्ष्मी जी और प्रभु के मध्य दोनों पक्षों के पंडों (पुजारियों) के माध्यम से काफी देर तक वाद-विवाद चलता है। जिसे देखने के लिए काफी जन समूह एकत्र रहता है। काफी मान मनौवल के बाद लक्ष्मी जी मान जाती हैं और द्वार खोलती हैं। लक्ष्मी मां को प्रसन्न करने के लिए उसी एक दिन कम से कम दश कुंटल रसगुल्ले का भोग लगाया जाता है। भगवान श्री मंदिर में प्रवेश करते हैं। मां लक्ष्मी और प्रभु श्री जगन्नाथ का पुनः मिलन होता है। ये दृश्य अपने आप में अद्भुत है।

वैसे उस सृष्टिकर्ता, जगत पिता की इस लीला को लिखने की हिम्मत मुझमें नहीं है, फिर भी उनकी कृपा से कुछ लिखने का साहस कर पाई हूं। इस सन्दर्भ में भगवान श्री जगन्नाथ जी के वरिष्ठ विश्वकर्मा श्री बिजय कुमार महापात्र जी का ह्रदय से आभार जिनके बहुमूल्य योगदान से मेरी भावनाओं को शब्दों का आकार मिला।

आप सभी अपने जीवन काल में एक बार प्रभु श्री जगन्नाथ जी की रथ यात्रा का आनंद अवश्य लीजिए। विश्वास करिए, आपको प्रभु के साक्षात दर्शन की सुखद अनुभूति अवश्य होगी।

जय श्री जगन्नाथ

प्रियंका शुक्ला, पुरी