गुड़िया

मुन्नी मुन्नी ओढ़े चुन्नी, गुड़िया खूब सजाई।
किस गुड्डे के साथ तय हुई, इसकी आज सगाई?
बचपन की पढ़ी ये कविता आज भी स्मृतियों में सहेजी हुई है। गुड़िया का व्याह रचाना अब तो एक भूली बिसरी याद हो गया है। कहना गलत नहीं होगा, विलुप्त खेलों में से यह भी एक खेल है। गुड़िया जो अपने हाथों से नानी, दादी बनाती थी, उसका स्थान अब बार्बी डॉल ने ले लिया है।
कितना मजेदार खेल होता था, हम लड़कियों का। "किसकी गुड़िया के पास कितने कपड़े, किसके कपड़े कितने सुंदर, आज देखा उसकी गुड़िया कितनी सुंदर सजी थी" ये हमारी वार्तालाप के कुछ प्रिय विषयों में से एक हुआ करते थे। हमारी अपनी एक दुनिया, उस दुनिया में हमारा अपना-अपना साम्राज्य और उस साम्राज्य की हम सम्राज्ञी, जहां सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारा राज चलता था। हां! एक बात और हमारे पास प्रतिदिन उपयोग की सारी वस्तुएं भी गुड़िया के लिए होती थीं। उसके गहने, कपड़े, रसोई के बर्तन के साथ रसोई का समान, बक्सा, बिस्तर और पता नहीं क्या-क्या, सब कुछ इकट्ठा था। पता नहीं, कहाँ कहाँ से ये सब "गृहस्थी " हम जमा करते थे। दादी और मां की नजर बचा कर चीनी, चायपत्ती के साथ अमूल दूध का भी एक डब्बा बनता था। वो सिर्फ रखने के लिए ही था। और हां ! ये सब सामान रखने के लिए एक बड़ा सा बैग या बॉक्स, जो हमारा अमूल्य खजाना था। मजाल है, घर का कोई भी सदस्य उसमें हांथ लगा ले। आज कल ये खजाना "मोबाइल" हो गया है, खेल की जगह कैंडी क्रश जैसे और कई गेम्स ने ले ली है।
