ख्वाहिशों का अंत नहीं

ख्वाहिशें, क्या होती है ये ख्वाहिशें.. जो मन में इच्छा जन्मे, और अंदर ही अंदर तय करती रहे सफर, दिल से दिमाग तक का, जब तक पूरी ना हो जाए। जी हां, ख्वाहिशें जैसे ही पूरी हो जाए फिर एक नयी जन्म ले लेती हैं। ख्वाहिशों के पेड़ पर कभी पतझड़ नहीं आता...। उम्र के दौर के साथ बदलते हैं हम और बदलती है हमारी तमन्नाएं भी। क्यूँ ! आपके साथ नहीं होता ऐसा ? मेरे साथ तो अक्सर ही ऐसा होता है। मैं मनीषा, जीवन के 45 बसंत देख चुकी हूँ और पतिदेव के सर पे उजड़ता चमन भी। जी हां, इन सालों में देखा है खुद की इच्छाओं का आकार बदलते हुए। ख्वाहिशों की ऋतु में नए फूल खिलते हुए। मन में नए - नए सपने मचलते हुए महसूस किये है मैंने।

मुझे आज भी याद हैं मेरे बचपन के किस्से। अब हंसी भी आती है कि कितनी मासूमियत थी हमारे अंदर। हमारे ज़माने में टीवी की कहानी आज से बिल्कुल अलग थी। सिर्फ बुधवार को चित्रहार, रविवार सुबह को शो थीम और सुरभि। हाँ हाँ वही रेणुका शहाने और सिद्धार्थ काक वाला शो। फिर दौर आया रामायण, महाभारत का, सुबह 11 बजे। और रविवार शाम को 1 फिल्म। हो गया टीवी का कार्यक्रम समाप्त। इसलिए टीवी का जबरदस्त आकर्षण हुआ करता था। आज की पीढ़ी जो स्मार्ट फोन एक हाथ में और लैपटॉप गोद में टीवी का रिमोट सामने रखकर तो पढ़ाई करती है उसे हमारी बात समझ ही नहीं आएगी। वो डायलॉग है न कि टीवी की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू। बहरहाल अभी बात रविवार की हो रही थी।

हमारी ख्वाहिश होती थी कि हम नहाकर टीवी के सामने बैठ जाएं और टीवी का मज़ा लें। पर हमारी माताश्री की चाहत कुछ और ही थी। वो हमें नृत्य पारंगत करना चाहती थी और नृत्य की कक्षा सिर्फ शनिवार शाम जब कार्टून आता था और रविवार की सुबह होती थी। बस ये ही हमें पसंद नहीं आ रहा था। हमें डांस करना पसंद था पर टीवी के बदले नहीं। ऊपर से हमारा संयुक्त परिवार था। बेहद दकियानूसी। जहां नृत्य कला को अच्छी निगाहों से नहीं देखा जाता था। उस वक्त कोई रियलिटी शो तो था नहीं कि नाचने गाने को भी एक मुकाम मिल पाता। इसे बहुत ही गैर ज़रूरी माना जाता था। पढ़ाई और क्रिकेट के अलावा किसी भी कला का रुतबा इतना नहीं था। मेरे चचेरे भाई - बहन, जो मुझसे कुछ बड़े थे वो मुझे चिढ़ाते और मैं बहुत मजबूर होकर बेमन से नृत्य कक्षा जाती। स्टेज के कार्यक्रमों में भाग लेती। धीरे - धीरे मैंने जाना छोड़ दिया। अब वो सब याद करके खुद पे ही गुस्सा आता है। कत्थक और भरत नाट्यम की कक्षा क्यूं छोड़ी मैंने। अगर सीख लेती तो आज एक कला में पारंगत होती और तो और ऐसे मोटापे का शिकार नहीं होती। अब पछताय होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। खैर, वो थी हमारी बचपन की हसरत। अब आलम ये है कि डांस करने का भयंकर शौक और बचपन के अधूरे ही सही पर नृत्य अभ्यास के कारण नृत्य कर भी लेती हूं, पर अब कमर का दर्द परेशान किए रहता है। करोना के बाद साँस फूलती रहती है। चाह कर भी मन मुताबिक नाच नहीं पाते और टीवी का रिमोट, एसी का रिमोट, लैपटॉप हमें बाँहें फैलाये पुकारता रहता है। आओ, देखो हमें, हम यहीं है, तुम्हारे पास। तुम्हारे लिए 24 घंटे, परंतु अब दिल नहीं करता। अब मन करता है कि भागें, दौड़ें, नाचें, घूमने जाऐं। तो अब मेरी ख्वाहिशों में बदलाव आ गया है। बचपन में जो घर का खाना बिल्कुल रास नहीं आता था, मैगी और ब्रेड मन को लुभाता था अब वो ही सादा खाना भाने लगा है। जिंदगी में अब वो भी इत्मिनान से मिल जाये तो खाने का आनंद आ जाता है। जब जो मिलता है वो पसंद नहीं आता, जो पसंद आता है वो मिलता कहाँ है, यही तो जीवन का फलसफा है। पता नहीं ऐसा होता है कि हमें अक्सर वक्त गुजर जाने के बाद ही उस लम्हे का महत्व समझ आता है पर वक्त तो रेत के समान हाथों से फिसलता जाता है। ख्वाहिशों और जरूरतों की रस्साकसी यूं ही हम सबके अंदर चलती रहेगी। अभी भी समय की डोर को थाम जीवन जी लेना चाहिए। क्यूंकि जो पल हम अपनी खुशी के लिए खर्च करते हैं वो ही हमारे अपने हैं। चलो हम सब ख्वाहिशों का पौधा लगाएं, ताउम्र उसे सींचते रहें और नए नए खुशी के पल जीते रहें।

मनीषा टिबड़ेवाल