क्योकि की मई एक लड़की हूँ

उठो बेटा सूरज निकल आया है दादी मां ने कहा

अभी उठ जायेंगे, पारुल बोली। उठ नहीं जायेंगे उठो सूरज निकलने तक सोती रहोगी ?

निकल आने दो थोड़ी देर बाद उठेंगे। दादी ने चादर खींच ली और डांटते हुए बोली नहीं अब बिलकुल नहीं सोना है। पारुल हाथ पैर पटकने लगी और रोते हुए बोली मेरे पीछे क्यों पड़ी रहती हो अभी छोटू दीपू भी तो सो रहे हैं।

उन्हें सोने दो वो तो लड़के हैं, लड़कियों को पराये घर जाना होता है, दादी अपनी बात पूरी न कर पायी, पारुल ने चादर छीनते हुए पूछा अब तो मैं बिलकुल भी न उठने वाली, क्यूंकि तुम मुझे इसलिए उठा रही हो कि मैं एक लड़की हूँ, जैसे लड़की होना अपराध है। लड़की होना अपराध नहीं पर देर तक सोना अच्छी बात नहीं है, माँ ने उपदेशात्मक अंदाज में कहा।

केवल मेरे लिए ! पारुल खीज उठी। नहीं, सबके लिए माँ ने कहा - तो दादी सदैव मुझे ही सही गलत क्यों समझती रहती हैं, छोटू दीपू की गलतियों पर तो कभी ध्यान नहीं देती।

नहीं! उन्हें भी समझाया जाता है, माँ ने कहा .......।

सिर्फ समझाया जाता है? पर उनका समझना जरूरी नहीं है क्या? मेरे साथ जबरदस्ती की जाती है कि मुझे ऐसे ही करना है, पारुल ने उलाहना दिया।

माँ ने पारुल के सर पर हाथ रखकर समझाते हुए कहा क्यूंकि तुम एक लड़की हो। हाँ तो मैं एक लड़की हूँ इसीलिए मेरे साथ आप सब दुर्व्यवहार करते हैं।

नहीं, मेरी बच्ची तुम गलत समझ रही हो तुम अभी छोटी हो, उम्र अभी 8 वर्ष की है किन्तु मुझे इस बात पर आश्चर्य होता है कि 18-20 या उससे अधिक उम्र की लड़कियाँ को भी सही गलत कार्य का अंतर समझाया जाता है, तो वो भी ऐसे ही उलटे सीधे सवाल करती हैं कि लड़कों को इतना नहीं रोका टोका जाता है चाहे वो जो करें चाहे वो जैसे कपड़े पहने।

मम्मी ! भाषण ख़त्म हुआ ?

हाँ,चलो उठो हाथ मुँह धाे लो, मैं तुम्हारी पसंद का नाश्ता बनाती हूँ !

मैगी ? पारुल चहक उठी

हाँ चलो, माँ ने कहा।

अब पारुल प्रसन्न थी। माँ
ने मैगी जो बनाई, पारुल
ने भरपेट खाया। उसे ख़ुशी
थी की छोटू दीपू अभी सो
ही रहे थे और उसने अपनी
प्लेट में उन दोनों से
अधिक ही रख लिया था
उसे आज जल्दी उठने का

शाम को माँ ने सभी बच्चों को अपने पास बैठा कर समझाना प्रारम्भ किया कि देखो बच्चों उचित कार्य सभी के लिए उचित और अनुचित कार्य सभी के लिए अनुचित होता है।

सभी बच्चे चिल्लाये, नहीं यू आर रॉंग, आप गलत हो, दीपू ने कहा मैं समझाता हूँ - शाम को दूसरे मोहल्ले से दूध लाना होता है तो दादी कभी पारुल को नहीं भेजती हैं, कहती हैं उसका जाना ठीक नहीं मुझे ही रोज जाना पड़ता है। उसका जाना ठीक नहीं तो मेरा जाना कैसे ठीक हुआ ?

“हाँ! तो रसोई के काम दादी मुझको ही सिखाना चाहती है तुमको नहीं, कहती हैं लड़कियों को सीखना जरुरी होता है, लड़के भी खाना खाते हैं, फिर उनके लिए जरुरी नहीं है ? पारुल ने कहा !

माँ ने समझ लिया कि ये इक्कीसवीं सदी के बच्चे हैं इतनी आसानी से नहीं समझाया जा सकता है। बच्चों के तर्क अपनी जगह सही थे, माँ एक शिक्षिका थीं, वे बच्चों के मनोविज्ञान को बिना ठेस पहुंचाए अपनी बात समझाना चाहती थीं पर कैसे ?

उस रात उन्हें नींद नहीं आ रही थी, उन्हें अपना बचपन याद आने लगा जब वे सात वर्ष और उनका भाई उनसे तीन वर्ष छोटा अर्थात चार वर्ष का था। उन्हें हर समय समझाया जाता था कि वे बड़ी हैं और उनका भाई छोटा है इसलिए हर वस्तु पहले उसे ही दी जाती थी और अधिक मात्रा में दी जाती थी। उन्हें अपने बड़े होने का दुःख अवश्य होता था किन्तु परिवार के सदस्यों के व्यवहार से कोई शिकायत नहीं थी, जैसे बड़ा होना उनके भाग्य का दोष था। जब वे 15 वर्ष की हुईं तो उन्हें लड़की होने का एहसास करवाया गया कि पराये घर जाना है काम ज्यादा करो, इच्छाएं कम रखो आदि। इसे भी उन्होंने भाग्य का खेल समझ कर सहन किया। किन्तु मेधा और गुण स्त्री और पुरुष के साथ भेदभाव नहीं करते हैं, कभी-कभी परिवार के सदस्य (दादी, पापा, माँ) बेटे को अधिक योग्य बनाना चाहते हैं, किन्तु बेटी आगे निकल जाती है बहुत बार बेटियों ने इसे साबित किया है। किन्तु अनेक बार कुंठाग्रस्त होकर उन्होंने अपने को मृत्यु के हवाले भी किया है। पर, स्थिति कुछ भी रही हो स्त्री मानसिक रूप से पीड़ित रही है। आज जब स्त्री को पुरुष के समान प्रत्येक प्रकार का अधिकार प्राप्त है, उसे विकास के साधन और अवसर उपलब्ध हैं, शिक्षित महिलाओं की संख्या अधिक है, तो हमारे समाज का रूप पहले से विकृत क्यों हो गया है ? कहाँ चूक हुई है ? यही सोचते सोचते उन्हें काफी रात हो गई। अगले दिन रविवार था आज छोटू जल्दी उठ गया था और अपना बैट उठाकर चुपके से खेलने चला गया था। किसी ने देखा ही नहीं। दीपू अभी सो रहा था। पारुल जागी तो उसने दीपू का बैट उठाया और बोली मैं भी जा रही हूँ खेलने और आज पचास रन बना के ही लौटूंगी। दादी ने सुना तो चिल्लाने लगीं, तुम ना जाना वहां मैदान में कोई लड़की नहीं जाती लड़कियां कहीं क्रिकेट खेलती हैं ? पारुल भी चिल्ला कर बोली - अरे दादी ! तुमको कुछ पता भी है ? लड़कियां तो कुश्ती भी लड़ती हैं, तुम हर बात में मुझे टोकती हो मैं तुम्हारे हिसाब से नहीं चलूंगी। जब दादी ने पापा से शिकायत करने को कहा तो पारुल रुक गई। वह लड़की जो अपने दोनों छोटे भाइयों से अधिक गुड़ीं और तेज तर्रार थी, पर स्वयं को लड़की मानने से इंकार करने लगी। उसने फ्रॉक और स्कर्ट पहना छोड़ दिया और पैंट पहनने लगी बाल को लड़कों की तरह कटवा लिया। एक तरह से विद्रोही होने लगी।

ढ़ने में अच्छी होने के कारन पारुल को कक्षा का मॉनिटर बना दिया गया था। उसे नेतृत्व करने में आनंद आने लगा। अब उसकी कक्षा के बच्चों को भी उसकी बात माननी पड़ती थी इससे उसे बड़ी प्रसन्नता होती थी। माँ ने समझाया - बेटा लड़कियों को प्रत्येक कार्य में लड़कों की बराबरी या नक़ल नहीं करनी चाहिए, कि लड़के ऐसे करते हैं तो हम क्यों नहीं। बल्कि लड़कियों को सदैव लड़कों से आगे रहना चाहिए। पारुल को माँ की यह बात अच्छी लगी की लड़कियों को लड़कों से आगे रहना चाहिए। उसने इस बात को सूत्र मान लिया वह सदैव इस प्रयास में रहती की उसे लड़कों से आगे रहना है। आगे मतलब आगे वह अपने भाइयों से अधिक पढ़ती लिखती, सुन्दर कलाकृतियां बनाती। उसकी चित्रकला की कॉपी शिक्षक कक्षा के अन्य विद्यार्थियों को दिखाते और उसकी तारीफ करते तो उसका बड़ा आनंद आता। चीला बनाना आसान कार्य नहीं है। दो चीले बनाने के बाद तीसरा चीला टूट गया और वो ऊब गई, उसने वे टूटा चीला खा लिया और किचन से चली आयी। जब माँ किचेन में पहुंची तो उन्होंने सर पकड़ लिया, किचन बहुत गन्दा हो गया था और चारों तरफ सामान बिखरा पड़ा था। पर उन्होंने पारुल से कुछ नहीं कहा। दूसरे दिन छोटू दीपू भी किचन में पहुँच गए पाक कला में निपुणता पाने। उन्हें भी अच्छा लगा था अतः दोनों मिलकर चीला बनाने लगे। दादी ने देखा की लड़के किचन में कुछ बना रहे हैं तो बोली "बच्चों तुम लोग किचन से बहार आओ, मम्मी से बनवा देंगे

एक दिन उसने एक शब्द पढ़ा "पाक कला" अर्थात खाना बनाने की कला अब उसकी उम्र 11 वर्ष हो चुकी थी। उसने एक दिन पाक कला में भी हाथ आजमाना चाहा। बिना किसी को कुछ पूछे बताये उसने किचन में बेसन का चीला बनाने का प्रयत्न किया सिर्फ अपने भाइयों पर रॉब झाड़ने के लिए कि वह पाक कला भी जानती है, उसने उन्हें भी एक एक चीला दिया।

चीला बनाना आसान कार्य नहीं है। दो चीले बनाने के बाद तीसरा चीला टूट गया और वो ऊब गई, उसने वे टूटा चीला खा लिया और किचन से चली आयी। जब माँ किचेन में पहुंची तो उन्होंने सर पकड़ लिया, किचन बहुत गन्दा हो गया था और चारों तरफ सामान बिखरा पड़ा था। पर उन्होंने पारुल से कुछ नहीं कहा। दूसरे दिन छोटू दीपू भी किचन में पहुँच गए पाक कला में निपुणता पाने। उन्हें भी अच्छा लगा था अतः दोनों मिलकर चीला बनाने लगे।

दादी ने देखा की लड़के किचन में कुछ बना रहे हैं तो बोली "बच्चों तुम लोग किचन से बहार आओ, मम्मी से बनवा देंगे तो पारुल तुरंत बोली “नहीं कल मैंने तुम लोगों को एक बनाकर खिलाया था, आज तुम लोग मेरे लिए बनाओ। दादी के कहने से चले ना आना, कल मैं बना रही थी तब तो दादी ने नहीं कहा था की मम्मी बना देंगी”।

दादी ने फिर वही पुराना वाक्य दुहराया "तो, तुम लड़की हो तुमको तो बनाना ही है"। पारुल को गुस्सा तो बहुत आया, पर उसने कुछ कहा नहीं क्यों कि माँ की एक बात उसने गाँठ बाँध ली थी "लड़कियों को लड़कों की बराबरी नहीं बल्कि आगे रहना चाहिए"।

छोटू दीपू बोले दादी हम बनाएंगे चीला नहीं तो पारुल सीख जाएगी और हम इससे पीछे रह जायेंगे। बड़े-बड़े होटलों में तो आदमी ही खाना बनाते हैं। माँ बच्चों की बातें सुनकर खुश हो रही थीं कि बच्चे धीरे-धीरे रास्ता पकड़ रहे हैं, उन्हें धैर्य के साथ समझाने की जरुरत है। उसी दिन उन्होंने रात में पारुल की पुस्तकों के बीच में छिपी उसकी डायरी देखी उसके प्रत्येक पन्ने पर लिखा था - मुझे सबसे आगे रहना है "क्याेंकि मैं एक लड़की हूँ"

आज माँ बहुत खुश थी, उनकी बेटी को लड़की होने का अर्थ समझ में आ गया था, लड़की होना अपमान की नहीं बल्कि गर्व की बात है।

सुमन देवी, कानपुर