क्या सीता ने अग्नि परीक्षा दी थी

सीता की अग्नि परीक्षा का विषय हमेशा से एक विवादास्पद विषय रहा है, क्या सीता ने अग्नि परीक्षा दी थी, दी थी तो क्यों ? जिस राम ने वन में सीता के वियोग में इतने आँसू बहाये हैं, जिसको छुड़वाने के लिए पूरी लंका जला डाली उस प्राण प्रिय पत्नी की अग्नि परीक्षा या परित्याग, वे कैसे करेंगें और क्यों ? क्या रावण सीता की छाया को ले गया था और असली सीता राम ने वन जाने के पश्चात अपनी मानव लीलाएं आरम्भ करने के पूर्व अग्नि देव की सुरक्षा में छोड़ दी थी ? यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है।

एक स्त्री को ही अपनी पवित्रता का प्रमाण देने की आवश्यकता क्यों है, यह प्रमाण पुरुष को देने की आवश्यकता क्यों नहीं है ? किसी स्त्री के सतीत्व के परीक्षण की अवधारणा वेदों और मनुस्मृति के बिल्कुल खिलाफ है। यदि यह कोई पौराणिक कथा होती तो इसे रचनाकार की कल्पना माना जा सकता था अथवा किसी घटना का सांकेतिक चित्रण समझा जा सकता था। किसी स्त्री की पवित्रता का मापदंड उसके अग्निरोधी होने में कैसे हो सकता है, यदि ऐसा है तो सभी पवित्र स्त्रियों को अग्निरोधी होना चाहिए क्योंकि पवित्रता आपके शरीर पर किसी प्रकार का अग्निरोधी कवच नहीं चढ़ा देती है। रामायण काल में स्त्रियों को सम्पूर्ण गौरव और अधिकार प्राप्त थे। इस युग में स्त्रियां युद्ध में भाग लेती थीं, स्वयं महारानी कैकयी ने राजा दशरथ को युद्ध में सहायता प्रदान की थी,

इससे ज्ञात होता है श्री राम का परिवार स्त्रियों के प्रति अत्यंत उदात्त विचारों वाला था। राम स्वयं भी स्त्रियों का पुनर्वसन करवाने में आगे रहे हैं, उदाहरण स्वरूप उन्होंने सुग्रीव को अपनी पत्नी को अपनाने के लिए प्रेरित किया जो उसके बड़े भाई के कब्जे में थी। इसलिए ऐसे प्रसंग राम के चरित्र से मेल नहीं खाते और यह प्रसंग रामायण की स्वाभाविक कथा और उसमें वर्णित सिद्धान्तों के विरुद्ध है।

रामायण एक ऐतिहासिक महाकाव्य है। राम किसी धर्म विशेष के नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव जाति के आदर्श पुरुष हैं, भारतीयता का प्रतीक हैं। महर्षि बाल्मीकिने अयोध्या के राजा राम को आधार बना कर विभिन्न भावनाओं और शिक्षा को सरल प्रकार से चित्रित किया है। यदि हम रामचरितमानस और बाल्मीकि रचित रामायण के अंतर की बात करें तो दोनों के मुख्य पात्र राम के चरित्र में अंतर है बाल्मीकि के राम मानवीय भावनाओं से प्रेरित साधरण मानव हैं और तुलसी के राम दैवी शक्ति युक्त अति मानव हैं। तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और बाल्मीकि के राम एक संतुलित मानव। मुख्य अंतर दोनों रचनाओं के घटना, आधार, काल भाषा का है। शोधकर्ता मानते हैं महर्षि बाल्मीकि ने रामायण में उत्तरकाण्ड कभी लिखा ही नहीं जिसमें सीता के परित्याग का वर्णन है। प्रमाणित शोधकार-फादर कामिल बुल्के का स्पष्ट मत है कि उत्तरकाण्ड रामायण के बहुत बाद की पूर्ण प्रक्षिप्त रचना है। (राम कथा विभाग प्रयाग विश्व विद्यालय, प्रथम संस्करण 1950) बाल्मीकि रामायण राम पर लिखा गया प्रथम ग्रँथ है जो बौद्ध धर्म के अभ्युदय से पूर्व लिखा गया था, अतः यह समस्त विकृतियों से अ छूता था इसमें मात्र 6 काण्ड थे, लेकिन बाद में बौद्ध काल में इससे छेड़खानी की गई। पद्म पुराण की कथा अनुसार माता सीता को कोई अग्नि परीक्षा नहीं देनी पड़ी थी। वनवास काल में राम ने सीता से कहा था कि अब मैं नर लीला करूँगा और तुम्हें अग्नि देव के पास सुरक्षित रखूंगा और मायावी सीता को अपने साथ रखूंगा लीला समाप्ति के पूर्ण तुम्हें अग्नि देव से मांग लूंगा। अग्नि देव से वास्तविक सीता के मांगने के प्रसंग को सीता की अग्नि परीक्षा कहा जाने लगा। त्रेता युग में यह धारणा प्रचिलत थी कि अगर कोई सच्चा व्यक्ति अग्नि देव की पूजा सच्चे मन से करता है तो अग्नि देव उसकी रक्षा करते हैं। बौद्ध और जैन धर्म के अभ्युदय काल में नये धर्मों की स्थापना के लिए हिंदुओं के कई धर्म ग्रन्थों के साथ छेड़छाड़ की गई थी। इसी कारण रामायण में भी इस विसंगतियों को जोड़ दिया गया जिसका मानस के रचनाकार ने भी अनुसरण कर के लव-कुश कांड को जोड़ दिया। परम्परावादियों के अनुसार समाज में उचित व्यवस्था और आदर्श उत्पन्न करने के लिए इसकी रचना की गई है। महिला विरोधियों के लिए यह स्त्री पर बन्धन थोपने का एक हथियार मात्र था, यह ब्राह्मणवाद की संकीर्णता को दर्शाता है।

शोधकर्ता विपिन किशोर सिन्हा ने एक किताब लिखी है - राम ने सीता परित्याग कभी किया ही नहीं। इस पुस्तक में वे सभी तथ्य मौजूद हैं जो साबित करते हैं ऐसा कभी हुआ ही नहीं। किसी भी विषय का सारांश इस बात पर निर्भर करता है कि उस विषय में हमारी सोच क्या है - मर्यादा पुरुषोत्तम राम का व्यवहार राजा के तौर पर कितना भी उत्कृष्ट क्यों न माना जाये परन्तु नैसर्गिक न्याय की दृष्टि से एक पति का अपनी पत्नी के प्रति न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता है, अगर इन किंवदन्तियों को सच माना जाए तो भी माता सीता कितनी महान थीं कि इस अपमान रूपी हलाहल पीकर भी उन्होंने राम का सम्मान रखा। राम ने अयोध्यावासियों के मन का संशय दूर करने के लिए अग्नि परीक्षा ली, एक धोबी की उठती उंगली ने राज - धर्म के लिए सीता का परित्याग किया। सीता ने हिन्दू धर्मानुसार राम को गठबंधन के समय दिए गये सभी वचनों का पालन किया पर राम के वचनों और पति धर्म का क्या ? प्रजा के प्रति कर्तव्य पालन करते - करते वे अपने पति धर्म को कैसे भूल गए प्रजा को संतुष्ट करने के लिए अपनी गर्भवती पत्नी का परित्याग कैसे किया जबकि अयोध्या आते ही राम ने उनकी अग्नि परीक्षा ली और फिर उन्हें पत्नी रूप में स्वीकार किया, दोबारा ये सीता के सतीत्व को लेकर कैसा संशय ? इस प्रकार की सभी घटनाएं रामचरित मानस के उत्तर कांड में उल्लेखित हैं जिनके सच होने पर संदेह है। छपाई के आविष्कार के पूर्व ग्रन्थ हाथ से लिखे जाते थे या उन्हें कंठस्थ करके याद रखा जाता था इस कारण उनमें मिलावट करना बहुत आसान था। रामचरितमानस में भी शायद कुछ ऐसा ही हुआ है - युद्ध कांड तक कथा प्रवाह

सामान्य है - सर्ग 114 श्लोक 27 हिंदुओं की स्त्रियों के प्रति उदात्त धारणा को व्यक्त करता है। सर्ग - 115 श्लोक- 13/14 में राम सीता को पाकर सन्तुष्टि का बयान करते हैं, इसके आगे सभी श्लोक मिलावटी लगते हैं, सर्ग 117 में अचानक से देवत्व कथा पर हावी हो जाता है। सर्ग 118 में अग्निदेव सीता को राम को सौंपतें हैं और श्लोक 22 कहता है कि राम अत्यंत प्रसन्नता पूर्वक सीता से मिले। अनेक सर्ग जो कथा प्रवाह तोड़ते हैं बीच में मिलावटी हैं। जिस सीता के बिना राम एक पल भी नहीं रह सकते थे, जिसके लिए इतना बड़ा युद्ध लड़ा उसे वे किसी एक व्यक्ति या समाज के लिए कैसे छोड़ सकते थे। उनकी उदात्त भावना और महान आदर्श उन्हें किसी के लिए भी सीता को छोड़ने नहीं दे सकते थे वे समाज की दकियानूसी सोच के विरुद्ध थे नहीं तो वे शबरी के हाथों बेर क्यों खाते।

उन्होंने सीता के साथ अयोध्या का परित्याग क्यों नहीं कर दिया ? ये हमें समझना है कि इसे महाकाव्य समझ कर ग्रहण करें या किसी देवत्व रूपी मानव की कथा। समाज हित के के लिए परिवार हित का त्याग क्या किसी भी काल, समय या परिस्थिति के लिए अनुकूल हो सकता है, यह प्रश्न स्वयं अपने आप में इस प्रश्न का उत्तर है कि सीता की अग्निपरीक्षा या परित्याग मात्र स्त्री विरोधियों का स्त्री पर एक और बन्धन है और कुछ नहीं।

ऋतु डागा