और ट्रैन छूट गयी

यह घटना 1981 की है, उस समय मैं अप्ट्रॉन लखनऊ में कार्यरत था। एन टी पी सी, कोरबा में अकाउंट्स ऑफिसर की वैकेंसी निकली थी। मैंने सोचा कि क्यों न इसके लिए प्रयास किया जाए और आवेदन पत्र भेज दिया। कॉल लेटर आ गया, अतः मैं वहां के लिए ट्रेन से निकल गया। लखनऊ - इलाहाबाद (अब प्रयाग राज), बिलासपुर होते हुए कोरबा पहुंचा। थर्मल पावर प्लांट कमीशनिंग स्टेज में था। वहां के वातावरण से मैं निराश हुआ और मन में पश्चाताप हुआ कि लखनऊ जैसे नगर को छोड़कर मैं क्यों केन्द्रीय सरकार की नौकरी के प्रति आकर्षित हुआ ? अतः निर्णय किया कि यदि यहां सेलेक्शन हो गया तब भी मैं यहां वापस नहीं आऊंगा। रिटेन एग्जाम भी उत्तीर्ण कर लिया, पर इंटरव्यू अनमने भाव से दिया जिससे सेलेक्शन न हो, नहीं तो मन में दुविधा उत्पन्न हो सकती है। अतः सेलेक्शन नहीं हुआ। इस बीच वहां आए कुछ लोगों से मित्रता हो गई। अगले दिन मैं कोरबा से वापस आने के लिए प्रातः काल निकला, साथ में दो लोग और रवि (नैनीताल) तथा मुस्ताक अहमद (रायबरेली) भी थे।

हमलोग 2 घण्टे में बिलासपुर पहुंच गए। वहां पता चला कि एक ट्रेन जो कि कटनी जा रही थी प्लेटफार्म पर खड़ी है। हमलोग उसमें जाकर बिना टिकट लिए ही बैठ गए उस समय सुबह के 9 बजे थे। पड़ोसी यात्रियों से वार्ता करने पर पता चला कि ट्रेन को जाने में अभी 15 मिनट का समय है। अतः मैं और रवि, मुस्ताक को समान का ध्यान रखने के लिए बोलकर टिकट लेने के लिए उतरकर आ गए। टिकट खिड़की पर कुछ भीड़ थी अतः अधिक समय लग गया। जब हम टिकट लेने लगे तब उस सज्जन ने कहा कि आप टिकट तो ले रहे हो पर देख लो ट्रेन स्टेशन पर है कि नहीं। हमलोग वहां से ट्रेन की ओर भागे तब तक ट्रेन स्टेशन से निकलने लगी हमलोग और तेज दौड़े पर अन्तिम गार्ड के डब्बे तक पहुंचते - पहुंचते ट्रेन प्लेटफॉर्म छोड़कर आगे निकल गई और हम देखते रह गए।

हमलोग विचार विमर्श करने लगे कि अब क्या किया जाए क्योंकि हमारा सारा सामान ट्रेन में था और हमारे सारे ओरिजनल सर्टिफिकेट्स उसी में थे। उस समय मोबाइल फोन का युग नहीं था, अतः मुस्ताक से सम्पर्क करना संभव नहीं था। अगली ट्रेन के विषय में पूछने पर पता चला कि अगली ट्रेन शाम को 6 बजे है। हमलोग स्टेशन मास्टर के पास गए और उन्हें अपनी सारी स्थिति बताई और उनसे सहायता का आग्रह किया। उन्होंने हमें डिविजनल ऑफिस में जाकर सम्पर्क करने को कहा, संभवतः वही कुछ सहायता कर सकें। हमलोग तब डिविजनल ऑफिस गए और वहां के अधिकारियों से सहायता का आग्रह किया। एक सज्जन ने बताया कि आप कंट्रोलर ऑफ़ ट्रैक्स (सी ओ टी) से मिलिए वो संभवतः आपकी कुछ सहायता कर सकते हैं। हमलोग उनके केबिन में बिना आज्ञा के घुस गए। हमलोगों को देखकर वो रुष्ट हुऐ और बोले कि "how dare you entered in this cabin, don't you know the privacy of this department, we can get you people arrested right now ? " हमनें रोनी सूरत बना कर उनसे क्षमा मांगी, अपनी आपबीती उन्हें सुनाई तथा सहायता की प्रार्थना की। वो थोड़ा द्रवित हुए और अपने एक अधिकारी को आदेेश दिया कि ट्रेन का स्टेटस चेक करो, तो वो हमलोगों को लेकर ट्रेन ट्रैकिंग बोर्ड की ओर ले गया और बताया कि ट्रेन 15 मिनट पश्चात् अगले स्टेशन पर रुकेगी। हमनें उससे आग्रह किया कि आप उस स्टेशन के अपने किसी सहकर्मी से मुस्ताक अहमद को जो कि ट्रेन के संभवतः पांचवें डिब्बे में होगा सन्देश भिजवा दीजिए कि हमलोग उसे शहडोल स्टेशन में कल प्रातः मिलेंगे। वो हमारे सारे सामान के साथ हमारी वहीं प्रतीक्षा करे। उन्होंने कहा कि आप 20 मिनट के पश्चात् आइए। वहां से बाहर निकल कर हम ऑफिस गैलरी में आ गए, वहां कुछ माह पूर्व बिलासपुर कटनी एक्सप्रेस की दुर्घटना में काल ग्रस्त हुऐ लोगों की फोटो लगी हुई थी, जिसमें लगभग 130 लोगों की मृत्यु हुई थी। वहां से 20 मिनट पश्चात् हम पुनः सी ओ टी ऑफिस गए, उन सज्जन ने हमें देखकर बोला की उस ट्रेन में मुस्ताक अहमद नाम का कोई भी व्यक्ति ट्रैवेल नहीं कर रहा है। हमनें कहा कि ऐसा सम्भव नहीं है। मुस्ताक उसी ट्रेन में है, उस बोगी का कलर ब्लू है और उस ट्रेन में वही इकलौती ब्लू कलर की बोगी है, अतः आप कृपया पुनः मुस्ताक को सन्देश भिजवाएं। उन्होंने बताया कि अगला स्टेशन आधे घण्टे बाद आयेगा तब हम एकबार पुनः प्रयास करेंगे, आपलोग आधे घण्टे के बाद आइए। हमलोग इधर - उधर समय व्यतीत करके आधे घण्टे के पश्चात् पुनः सी ओ टी office में गए। वहां पहुंचने पर उन सज्जन ने हँसकर बताया कि आप का सन्देश मुस्ताक को भेज दिया गया है और उसने कहा है कि वह आपलगों की प्रतीक्षा शहडोल स्टेशन पर करेगा। यह सुनकर हमारे हृदय का भार हल्का हुआ और हम प्रसन्न हुए।

उस समय दोपहर के लगभग 12 बजे थे, अब समस्या यह थी कि छह घण्टे कैसे व्यतीत किए जाएं। अतः हमलोग बिलासपुर नगर का साइकिल रिक्शा द्वारा भ्रमण करने गए क्योंकि नगर स्टेशन से काफी दूर था। नगर एक साधारण कस्बे जैसा था जिसको देखकर आनन्द नहीं आ रहा था, तब तक हमें एक सिनेमाघर दिख गया जिसमें संजय दत्त की डेब्यू मूवी रॉकी लगी थी। अतः हमनें उस मूवी को देखकर तीन घण्टे का समय व्यतीत किया और वापस स्टेशन आ गए। शाम छह बजे हम वहां से रवाना हुऐ। रात लगभग 10 बजे एक सुनसान स्थान किसी पहाड़ी पर ट्रेन रुक गई। चारों ओर गहन अंधकार था, अमावस की रात के जैसा, ट्रेन आगे बढ़ने का प्रयास करती और वापस पीछे की ओर आ जाती। तीन चार बार ट्रेन के ड्राइवर महोदय ने प्रयास किया पर सफल नहीं हो पाए, अतः गाड़ी उसी पहाड़ी पर खड़ी हो गई। तब तक उस बोगी की लाइट भी बंद हो गई। इस बीच बोगी के किसी व्यक्ति ने कहा कि इसी स्थान पर कुछ माह पूर्व एक ट्रेन दुर्घटना ग्रस्त हुई थी, कोई बोला कि 130 मृतकों की आत्मायें हम सबको बुला रहीं हैं। ध्यान से देखने पर उस दुर्घटना ग्रस्त ट्रेन के डिब्बे पटरी के दोनों ओर उलटे पलटे पड़े हुऐ दिखाई पड़े। अत्यन्त डरावना वातावरण था। तब तक ड्राइवर और गार्ड महोदय ने पिछले स्टेशन मास्टर से सम्पर्क कर एक और इंजिन भेजने के लिए कहा, ट्रेन को पीछे पास के स्टेशन में ले जानें का निर्णय लिया और धीरे - धीरे ट्रेन पीछे की ओर चलने लगी। थोड़ी देर बाद दूसरा इंजिन आया और ट्रेन को पीछे से ढकेलने लगा। दो इंजिन की सहायता से उस पहाड़ी को पार कर ट्रेन आगे बढ़ गई। प्रातः हमलोग लगभग सात बजे शहडोल पहुंचे। ट्रेन से उतर कर हमनें इधर - उधर अपनी दृष्टि दौड़ाई तो सामने स्टेशन के ओवर ब्रिज पर मुस्ताक अहमद को हमारे सामान के साथ हमारी प्रतीक्षा करते हुए देखा। मुस्ताक से मिलकर हमलोगों को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। एक दूसरे से मिलकर कुछ अपनी कही कुछ उनकी सुनी । तत्पश्चात हमलोग एक दूसरे का सम्पर्क विवरण लेकर अपने अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान किए।

इस घटना से हमें यह समझ आया कि विपत्ति के समय अपना धैर्य और संयम रखें और समाधान के विषय में सोचें, जिससे कि हम अनुकूल परिणाम प्राप्त कर सकते हैं।

अशोक शंकर त्रिपाठी