उत्तर पूर्व (थ्री सिस्टर्स) की यात्रा

बहुत दिनों से पूर्वोत्तर भ्रमण की मेरी प्रबल इच्छा थी, विशेषकर अरुणांचल प्रदेश की। इस वर्ष के प्रारम्भ में मेरे ट्रैवेल वालों (जिनके साथ हमनें श्री नर्मदा परिक्रमा की थी) की “थ्री सिस्टर्स टूर” की योजना आयी, जिसे देखकर मेरी उत्कंठा और बलवती हो गयी। तब मैंने अपने मित्रों से सम्पर्क किया और उन्हें इसे भ्रमण के लिये प्रेरित किया, मेरे दो मित्र इसके लिए तैयार हो गए। अब मुझे अपनी श्रीमती जी को इस यात्रा के लिये मनाना और आसान हो गया क्योंकि मेरे इन दोनों मित्रों के साथ पिछले 40-45 वर्षों से हमारे पारिवारिक सम्बन्ध रहे हैं। अतः हमलोगों ने अपनी ट्रैवल बुकिंग कर ली। हमारी यात्रा 27 मार्च को प्रारम्भ हुई थी। सभी सदस्य अपने-अपने निवास स्थलों (नगरों) से 27 मार्च को प्रातः गौहाटी एयरपोर्ट पर अपनी फ्लाइट से पहुँच कर बताए गए स्थान पर एकत्र हुये। मैं सपत्नीक मुंबई से कलकत्ता पहुँचा, वहीं पर मेरे एक मित्र गोविन्द नारायण जी गुप्ता जो प्रयागराज से आए थे मुझे मिलें। वहाँ से हम लोग गौहाटी की फ्लाइट पकड़कर लगभग 11 बजे गौहाटी पहुंचे। थोड़ी देर पश्चात दिल्ली की फ्लाइट से मेरे मित्र पतंजलि शुक्ल जी भी सपत्नीक पहुँच गए। वहाँ 6 अन्य सदस्य प्रातः 6 बजे पुणे से पहुँचकर, हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। गौहाटी विमान तल पर ट्रैवल वालों की बस में सबका सामान रखते समय मुझे ध्यान आया कि मेरा एक पिट्ठू बैग उसमें नहीं है जोकि एयरपोर्ट के अन्दर जहां हम सब एकत्र हुए थे वहीं एक बेंच पर रखकर मैं उसे उठाना भूल गया था। उस बैग को लाने के लिए मैं अपने मित्र पतंजलि जी के साथ एयरपोर्ट के अन्दर गया और जाकर बैग ले आया (यद्यपि एयरपोर्ट के अन्दर प्रवेश करने के लिए काफी प्रयास करना पड़ा जोकि वहाँ पर नियुक्त CISF के अधिकारियों की सहमति एवं मेरे मित्र के प्रयासों से संभव हो पाया)। बैग मिलने के बाद मुझे एक सीख मिली कि मित्रों से मिलन के अति उत्साह के उपरांत भी अपने सामान की सुरक्षा का ध्यान रखना भी आवश्यक है साथ ही संतुष्टि हुई कि कोई हानि नहीं हुई जोकि एक शुभ संकेत था।
गौहाटी विमान तल से सब लोगों ने बस द्वारा काजीरंगा जोकि 225 किलोमीटर दूर था, की ओर प्रस्थान किया। चूंकि दोपहर का समय था अतः थोड़ी दूर जाकर मार्ग में स्थित एक रेस्टोरेंट में हम सबने उपलब्ध साधनों में अपनी रुचि का भोजन किया तत्पश्चात काजीरंगा की ओर प्रस्थान किया और लगभग 4 घंटे की आमोद प्रमोद (छेड़ छाड़) वाली यात्रा के बाद सबलोग लैंडमार्क होटल पहुंचे। जंगल में स्थित होटल का परिसर बड़ा और अच्छा है, होटल के बड़े कमरे, चौड़ा बरामदा / बालकनी जिसमें आरामदायक कुर्सियां / मेजें पड़ी हुई हैं (चायपान आदि के लिए) जो इस विश्राम स्थल को और भी भव्यता प्रदान करती हैं साथ ही निश्चिंत एवं पूर्ण रिलैक्सेशन की सुखद अनुभूति होती है। शाम का समय हो चुका था, अंधकार सघन हो रहा था थोड़ी देर में मणिपुर और नागालैंड का भ्रमण करके 15 अन्य सदस्य या गए। अब हमारे ग्रुप में 26 सदस्य हो गए (11 युगल और 4 अन्य सदस्य)। सबलोग अपने-अपने कमरों में व्यवस्थित होने के लिए गये और एक घण्टे के पश्चात भोजन करने के लिए नीचे एक हाल में आ गये। भोजन ट्रैवल वालों के सदस्यों ने बनाया था, शुद्ध, सात्विक और सुरुचि पूर्ण भोजन था। इस ट्रैवल कंपनी की विशेषता यह है की इनकी एक टीम भोजन सामग्री के साथ एक गाड़ी में सदस्यों के साथ ही चलती है और प्रत्येक विश्राम स्थल में इनकी टीम ताजा भोजन, स्वल्पाहार, चाय आदि बनाकर सारे सदस्यों को खिलाती पिलाती है। अतः सबको घर जैसा ताजा भोजन करने को मिलता है। टूर प्रबंधक ने सबको बताया कि प्रातः 5:45-6 बजे सभी सदस्यों को उनके कमरे के बाहर चाय दी जाएगी, 7 बजे नीचे हाल में स्वल्पाहार होगा तत्पश्चात 7:30 बजे जीप सफारी के लिए सबको प्रस्थान करना है अतः सारे सदस्य अपने कमरों में अगले दिन की यात्रा से पहले रात्रि विश्राम के लिए चले गए।
काजीरंगा (दिवस 1-3):
काजीरंगा – आसाम का सबसे पुराना राष्ट्रीय उद्यान है जो अपने महान भारतीय एक सींग वाले गैंडे, हाथी और जीप सफारी के लिए प्रसिद्ध है। प्रातः सबलोग काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के प्रवेष द्वार पर पहुंचे। ट्रैवेल वाले ने हमारे ग्रुप के सभी पर्यटकों के टिकेट लेकर 5-6 लोगों के ग्रुप में सबको अलग अलग जीप में बैठाया। वहां पहुंचकर मुझे हरिवंशराय बच्चन जी की कविता की पंक्तियाँ “सघन गहन मनमोहक वनतरु मुझको आज बुलाते हैं” बरबस याद आ गईं, जिसे गुनगुनाते हुए मेरा मन मुदित हो गया। हम सब लोग सफारी का आनन्द लेने लगे। एक सींग वाले गैंडों के झुंड घास चरते हुए जगह जगह दिखाई देने लगे, कहीं जंगली हाथी तो कहीं जंगली भैंसों के झुण्ड भी दिखाई पड़े। काजीरंगा का भ्रमण अत्यन्त रोमांचक और आनन्द दायक था। दोपहर तक भ्रमण करके सब लोग वापस होटल आए। दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर और भोजन करने के पश्चात् सब लोगों ने थोड़ी देर विश्राम किया। 2.30 बजे सब लोग ट्रैवल बसों द्वारा ऑर्किड गार्डन के भ्रमण के लिए प्रस्थान किए। वहां असम का अति प्रचलित बिहू नृत्य देखने को मिला। समस्त कलाकार जिनमें अधिकांशतः सुन्दर एवं आकर्षक युवतियां / महिलाएं थी, अद्भुत नृत्य कर रहीं थीं। संगीत भी अत्यन्त मधुर था।
बिहू भारत के असम राज्य में तीन महत्वपूर्ण त्योहारों का समूह है, जो वर्ष के अलग-अलग समय को दर्शाते हैं और हर्षोल्लास के साथ मनाए जाते हैं। ये त्योहार हैं बोहाग बिहू (जिसे रोंगाली बिहू भी कहते हैं), काटी बिहू और माघ।
बिहू (जिसे भोगाली बिहू भी कहते हैं)। प्रत्येक बिहू वर्ष के एक विशिष्ट समय से जुड़ा होता है और कृषि चक्र के एक अलग पहलू का उत्सव मनाया जाता है। शाम को बिहू नृत्य का आयोजन हमारे ग्रुप के लिए होटल के प्रांगण में भी किया गया था, सभी सदस्यों ने नृत्य का भरपूर आनंद लिया। कुल मिला कर काजीरंगा का भ्रमण अति उत्तम था।
अगले दिन प्रातः 4:30 बजे हाथी सफारी के लिए पुनः राष्ट्रीय उद्यान गए। यह अत्यंत रोमांचक एवं सुखद अनुभव था। वहां से 10 बजे वापस होटल आये और दैनिक कार्यों से निवृत्त होने तथा ब्रंच के पश्चात काजीरंगा से दिरंग (अरुणाचल प्रदेश) के लिए प्रस्थान किये। रास्ते में ब्रम्हपुत्र नदी का सुन्दर एवं विशाल पुल मिला, पुल के किनारे एक छोटी सी पुलिस चौकी थी जिसमें 2 नौजवान एवं स्मार्ट पुलिस कर्मी पुल की सुरक्षा हेतु नियुक्त थे, वहां क्षण भर रुक कर हमनें भव्य दृश्यों की फोटो निकाली (पुलिस कर्मियों के साथ भी) और आगे बढ़े। दिन भर की यात्रा के बाद हमलोग दिरांग पहुंचे, होटल में रात्रि विश्राम के पश्चात अगले दिन प्रातः तवांग की यात्रा प्रारम्भ हुई। दिन भर की यात्रा के बाद हमलोग तवांग पहुंचे।
तवांग (दिवस 4-5):
तवांग समुद्र तल से लगभग 10000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यहाँ काफी ठंड थी (4-5 degree Celsius) अगले दो दिन अपनी गाड़ियों में तवांग के आस पास जिन प्रमुख स्थलों का हमलोगों ने भ्रमण किया उनका विवरण निम्न प्रकार है:
सेला दर्रा भारत के अरुणाचल प्रदेश में एक उच्च ऊंचाई वाला पर्वतीय दर्रा है, जो लगभग 13,700 फीट (4,200 मीटर) की ऊंचाई पर स्थित है। यह तवांग को भारत के बाकी हिस्सों से जोड़ता है और बर्फ से ढके पहाड़ों, हिमनद झीलों और सुरम्य घाटियों सहित अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है। यह दर्रा सामरिक महत्व का भी है और बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए धार्मिक महत्व रखता है।
जसवंत गढ़ – यह भारत चीन युद्ध स्मारक राइफलमैन जसवंत सिंह रावत की याद में बनवाया गया है। राइफलमैन जसवंत सिंह रावत, एमवीसी (19 अगस्त 1941 – 17 नवंबर 1962) भारतीय थलसेना में गढ़वाल राइफल्स में सेवारत सैनिक थे, जिन्हें 1962 के भारत-चीन युद्ध में अरुणाचल प्रदेश में नूरानांग की लड़ाई के मध्य उनके कार्यों के परिणामस्वरूप मरणोपरान्त प्रतिष्ठित महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। भारत चीन युद्ध के मध्य जसवंत सिंह रावत जी ने अकेले ही अपनी पोस्ट बदल-बदल कर चीनी सैनिकों को इस भ्रम में रखा कि अभी भारत के काफी जवान वहां पर हैं जो कई जगहों से गोलियां चला रहे हैं। जसवंत सिंह ने सभी पोस्ट पर रायफल रख दी थी और पोस्ट बदल बदल कर कई जगहों से अकेले ही गोलियां चला रहे थे। इस तरह से उन्होंने अकेले ही लगभग 300 चीनी सैनिकों को मार गिराया। जब इस बात की सूचना जसवंत सिंह को राशन पहुंचाने वाले को चीनी सैनिकों द्वारा पकड़े जाने पर चीनी कमांडर को पता चली तो वह बहुत क्रोधित हुआ और जसवंत सिंह की ओर चीनी सैनिक भेज दिए लेकिन तब तक जसवंत सिंह के पास कारतूस खत्म हो चुके थे। उन्होंने चीनी सैनिकों को अपनी तरफ आते देख खुद ही अपने आप को गोली मार ली और वह वीरगति को प्राप्त हो गए। जसवंत सिंह रावत पौड़ी गढ़वाल के मूल निवासी थे। जिस चौकी पर जसवंत सिंह ने आखिरी लड़ाई लड़ी थी उसका नाम अब जसवंतगढ़ रख दिया गया है और वहां उनकी याद में एक मंदिर बनाया गया है। मंदिर में उनसे जुड़ीं चीजों को आज भी सुरक्षित रखा गया है। पांच सैनिकों को उनके कमरे की देखरेख के लिए नियुक्त किया गया है। वे पांच सैनिक रात को उनका बिस्तर ठीक करते हैं, वर्दी प्रेस करते हैं और जूतों की पॉलिश तक करते है। सैनिक सुबह के 4.30 बजे उनके लिए बेड टी, 9 बजे नाश्ता और शाम में 7 बजे खाना कमरे में रख देते हैं। जसवंत सिंह रावत जी के ऊपर एक हिन्दी मूवी 2019 में “72 Hours Martyr Who Never Died” बनाई गयी थी जो अभी प्राइम वीडियो में उपलब्ध है, अवसर मिलने पर इस मूवी को अवश्य देखना चाहिए।
नूरानांग जलप्रपात, जिसे जंग जलप्रपात के नाम से भी जाना जाता है और स्थानीय लोगों द्वारा बोंग बोंग जलप्रपात भी कहा जाता है, अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले के जंग शहर से 2 कि.मी. उत्तर-पूर्व में स्थित एक मनमोहक 100 मीटर ऊँचा जलप्रपात है। यह अद्भुत प्राकृतिक आश्चर्य, तवांग और बोमडिला के बीच, एनएच-13 ट्रांस-अरुणाचल राजमार्ग पर, सेला सुरंग के ठीक उत्तर में, मोटर-योग्य जंग जलप्रपात मार्ग पर स्थित है। यह जलप्रपात अत्यन्त सुन्दर और मनमोहक है। यहाँ पर इस प्राकृतिक श्रोत का उपयोग करके एक छोटा सा विद्युत उत्पादन संयन्त्र भी स्थापित किया गया है।
सेला झील, जिसे पैराडाइज़ झील भी कहा जाता है, भारत के अरुणाचल प्रदेश में सेला दर्रे के पास एक अद्भुत ऊँचाई पर स्थित हिमनद झील है। यह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें बर्फ से ढके पहाड़ और सर्दियों में आंशिक रूप से जमे हुए पानी शामिल हैं। स्थानीय मोनपा जनजाति के लिए इस झील का सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व है, जो इसे पवित्र मानते हैं।
Pankang Teng TSO Lake, जैसा कि इसे स्थानीय रूप से जाना जाता है, एक उच्च ऊँचाई वाली झील है जो अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी हिमालय में लगभग 12,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। इसके नाम का शाब्दिक अर्थ है घास का मैदान। यह शांत दिखने वाली झील, चारों ओर से बर्फ से ढके पहाड़ों से घिरी, अद्भुत प्राकृतिक सुंदरता के बीच स्थित है। यह तवांग शहर से लगभग 23 किलोमीटर दूर स्थित है। यह सुन्दर झील इस क्षेत्र के मनोरम पर्यटन स्थलों में से एक है। यह झील अपनी अवर्णनीय शांति के लिए जानी जाती है। झील के चारों ओर एक रास्ता बना हुआ है और सुंदर ढके हुए शेड हैं जहाँ से आप झील की सुंदरता का आनंद ले सकते हैं। स्थानीय लोग इस झील को पवित्र मानते हैं। यह झील तवांग आने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रमुख घूमने योग्य स्थल है।
बुमला दर्रा अरुणाचल प्रदेश में भारत-चीन सीमा पर स्थित एक उच्च ऊंचाई वाला पर्वतीय दर्रा है, जो तवांग से लगभग 37 किमी उत्तर में है। यह लगभग 15,200 फीट (4,633 मीटर) की ऊंचाई पर स्थित है। यह दर्रा 1962 के चीन-भारत युद्ध के स्थल के रूप में ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है और भारतीय सेना और चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के बीच सीमा कार्मिक बैठक (बीपीएम) बिंदु के रूप में कार्य करता है। बुमला दर्रा पर एक सैनिक छावनी है, यहां पर सैन्य अधिकारियों ने एक हॉल बनाया हुआ है जहाँ पर्यटक एकत्र होते हैं। इस स्थान पर पहुँचने के पूर्व मार्ग में 2-3 स्थानों पर सैनिकों द्वारा पर्यटकों की गाड़ियों का निरीक्षण किया जाता है तथा सीमित संख्या में ही पर्यटकों को आगे जाने दिया जाता है जिससे की आखिरी बिंदु पर अधिक भीड़ न हो। यह भारत चीन की सीमा का आखिरी पड़ाव है। लगभग 100 पर्यटकों को इस बिंदु से आगे एक सैनिक अधिकारी अपने निर्देशन में पैदल 200 मीटर की दूरी तक लेकर जाता है, चूँकि ऊंचाई के कारण यहाँ ऑक्सीजेन की कमी रहती है अतः वही पर्यटक आगे जाते हैं जिन्हें साँस लेने में कोई समस्या न हो, यद्यपि वहाँ सैनिकों ने ऑक्सीजन बूथ बना रखा है जिससे आवश्यकता पड़ने पर ऑक्सीजन दी जा सके। आखिरी बिंदु पर सैन्य अधिकारी द्वारा ब्रीफिंग दी जाती है उसके पश्चात हॉल तक वापस लाया जाता है। इस स्थान की जटिलताओं को देखते हुए अपनी सेना पर गर्व की अनुभूति होती है कि किस प्रकार हमारी सेना ऐसे दुर्दांत क्षेत्रों एवं जटिल परिस्थितियों में हमारी सीमाओं की रक्षा करती है।
तवांग मठ – तवांग मठ भारत के अरुणाचल प्रदेश के तवांग में स्थित एक बौद्ध मठ है। यह देश का सबसे बड़ा मठ है। यह तवांग चू घाटी में, चीन और भूटान सीमा के निकट स्थित है। दलाई लामा मठ, भारत में सबसे बड़े मठ के लिए जाना जाता है और ल्हासा में पोताला पैलेस के बाद दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा मठ है। यह मठ हमारे होटल के अत्यन्त निकट ही था, अतः तवांग से अगले दिन बोमडिला के लिए प्रस्थान करने के पूर्व प्रातः वेला में हम लोग इस स्थल का भ्रमण करने गए।
बोमडिला (दिवस 6): बोमडिला तेजपुर के मार्ग पर एक मुख्य पड़ाव है जो तवांग से 170 किलोमीटर दूर है। यहाँ पहुंचकर सबलोग होटल के अपने कमरों में थोड़ी देर विश्राम किये। अपरान्ह में कुछ लोग टिपी आर्किड अनुसंधान केंद्र और बौद्ध मठ देखने गए। रात्रि में होटल में विश्राम करने के पश्चात अगले दिन स्वल्पाहार करने के पश्चात सबलोग तेजपुर के लिए प्रस्थान किये।
अरुणाचल प्रदेश की यात्रा के मध्य मैंने एक बात ध्यान दी कि पूरे प्रदेश में चारों ओर भारतीय सेना के सैनिक प्रत्येक संवेदनशील स्थल पर नियुक्त थे साथ ही BRO की टुकड़ियां भी निर्माण कार्य में व्यस्त थीं। स्थानीय लोग सैनिकों के साथ प्रेम पूर्वक घुल मिलकर रहतें हैं, ऐसा लगता है कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। सभी ओर निर्माण कार्य भी चल रहा था जिसमें महिला श्रमिकों की बहुलता थी, जिसे देखकर गतिमान विकास का सुखद अनुभव हुआ।
तेज़पुर – बोमडिला (दिवस 7): तेज़पुर भारत के असम राज्य के सोनितपुर ज़िले में स्थित एक शहर है। तेज़पुर, ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर, गुवाहाटी से 175 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित है और उत्तरी तट के शहरों में सबसे बड़ा है। तेजपुर का होटल काफी अच्छा था| कुछ लोग कालीभोमोरा ब्रिज, चित्र लेखा गार्डन, अग्निघर देखने के लिए गए।
अगले दिन हम लोग शिलॉन्ग, मेघालय के लिए प्रस्थान किये। तेजपुर से शिलॉन्ग की दूरी 265 किलोमीटर है और लगभग 5 घंटे में हमलोग शिलॉन्ग पहुंचे। दोपहर का भोजन हमलोगों ने होटल पहुंचकर किया। होटल की सेवाएं उच्च स्तर की नहीं थीं अतः ट्रैवेल वालों ने अगले दिन हमें (दर्शनीय स्थलों के भ्रमण के बाद) Institute of Hotel Management में स्थानांतरित किया। यह एक विशाल प्रांगण में स्थित है, सुन्दर परिसर, स्वच्छ एवं सुन्दर कमरें जो सभी को बहुत अच्छे लगे। होटल परिसर के सामने “केंद्रीय हिन्दी संस्थान” के सुन्दर भवन को देखकर सुखद लगा और अनायास ही मैंने अपने अग्रज डॉ. प्रेम शंकर त्रिपाठी (जिन्होंने हिन्दी साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है) से फ़ोन पर वार्ता करने से अपने आपको रोक नहीं पाया।
शिलॉन्ग, मेघालय (दिवस 8-10) – शिलांग पूर्वोत्तर भारत में स्थित एक हिल स्टेशन और मेघालय राज्य की राजधानी है। शिलॉन्ग और उसके आस पास कई दर्शनीय स्थान हैं, मुख्यतः डॉन बॉस्को संग्रहालय, हाथी झरना, मावसमाई गुफाएं, नौकालिकाई झरना – भारत का सबसे ऊंचा झरना, सेवन सिस्टर्स फॉल्स – सात खंडों वाला झरना। चेरापुंजी – शिलांग झरना, पेड़ों की प्राकृतिक जड़ों से बना पुल, उमंगोट नदी आदि। हम सब ये सारे दर्शनीय स्थल देखने गए। झरनों में पानी की कमी के कारण चेरापुंजी अब यह दर्शनीय नहीं रह गया है, यद्यपि विशाल एवं गहरी घाटियां प्रकृति का अद्भुत एवं मनमोहक दृश्य प्रस्तुत करतीं हैं, पर पानी की कमी के कारण झरनों की पतली सी धारा अब आकर्षित नहीं कर पातीं। इनमें से उल्लेखनीय और दर्शनीय स्थलों का वर्णन निम्नवत है:
डॉन बॉस्को संग्रहालय – एक प्रमुख पर्यटन स्थल है, जो उत्तर पूर्व भारत के मूल निवासियों की समृद्ध और बहु-सांस्कृतिक जीवनशैली की झलक प्रस्तुत करता है। डॉन बॉस्को संग्रहालय पूरे उत्तर पूर्व का दर्पण है, जो उत्तर पूर्व के लोगों के सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और स्वदेशी पहलुओं को दर्शाता और प्रदर्शित करता है। इस संग्रहालय में उत्तर पूर्व के सभी राज्यों, सीमावर्ती क्षेत्र, उनकी जन जातियों, वेशभूषा, जीविकोपार्जन इत्यादि का अत्यन्त सजीव चित्रण देखकर बहुत अच्छा लगा।
जीवित जड़ों वाले पुल मेघालय के सबसे सुन्दर मूर्त विरासत स्थलों में से एक है। इन स्थलों को हाल ही में यूनेस्को की संभावित विश्व धरोहर स्थल सूची में शामिल किया गया है। ये पुल आपस में गुंथी जड़ों से बने हैं जो एक तरह का जादू तो है, लेकिन काल्पनिक नहीं। इन पुलों का निर्माण सदियों से यहाँ के मूल निवासियों (खासी और जयंतिया) द्वारा किया जाता रहा है। ये लोग मानसून के मौसम में उफनती नदियों को पार करने के लिए भी इनका उपयोग करते रहे हैं। ये पुल अधिकांशतः 50 से 100 फीट ऊँचे होते हैं। राज्य का सबसे लंबा जीवित जड़ों वाला पुल 175 फीट लंबा बताया जाता है।
उमंगोट नदी, जिसे डॉकी नदी भी कहा जाता है, मेघालय, भारत में बहने वाली एक नदी है। यह नदी अपने क्रिस्टल-क्लियर पानी के लिए प्रसिद्ध है, जिसके कारण इसे भारत की सबसे साफ नदियों में से एक माना जाता है। यह नदी स्थानीय लोगों के लिए भी एक महत्वपूर्ण संसाधन है जो मेघालय एवं बांग्लादेश के सीमा पर स्थित है। उमंगटोक जाते समय बांग्लादेश की सीमाओं पर स्टील के कंटीले तारो द्वारा बाड़ लगाने के कार्य की प्रगति देखकर काफी अच्छा लगा।
शिलॉन्ग से गौहाटी (दिवस 11-12) – अगले दिन स्वल्पाहार के पश्चात सब लोग गौहाटी के लिए प्रस्थान किये जो शिलॉन्ग से लगभग 100 किमी दूर है। ढाई घण्टे में हमलोग सीधे कामाख्या देवी माता के दर्शन के लिए पहुंचे। लौटकर होटल में व्यवस्थित होने के पश्चात एवं भोजनादि से निवृत्त हो सब लोगों ने विश्राम किया। शाम को सब लोग बालाजी मन्दिर एवं उसी परिसर में स्थित अन्य मंदिरों के दर्शन के लिए गए जोकि अत्यंत सुखद था।
अगले दिन प्रातः स्वल्पाहार के पश्चात ट्रैवेल टीम के सदस्यों (चालकों, सहायकों तथा महाराज आदि) को उपहार आदि देकर उन्हें सब लोगों ने सम्मानित किया और कुछ वक्ताओं ने (मेरे मित्र पतंजलि शुक्ल जी को मिलाकर) इस ट्रिप के विषय में अपने विचार साझा किये। थोड़ी देर विश्राम के बाद दोपहर तक हम लोग होटल से चेक आउट करके एक गाड़ी में एयरपोर्ट के लिए निकल गए, मार्ग में एक अच्छे रेस्टोरेंट में दोपहर का भोजन करने के बाद हम लोग (7 लोग) एयरपोर्ट पहुंचे और वहां से अपने-अपने गंतव्य स्थान वापस पहुंचे।
इस पूरी ट्रिप में सभी के आकर्षण के केंद्र बिंदु (अपनी फोटोग्राफी एवं डिजिटल एडिटिंग की कलाकारी के कारण) मेरे मित्र गोविन्द नारायण जी गुप्ता रहे, चहुँ ओर से गोविन्द भैया – गोविन्द भैया (महिलाओं की) आती आवाजों को सुनकर ऐसा लग रहा था जैसे गोपियाँ सर्व समर्थ “गोविन्द” को बुला रहीं हों। कुल मिलाकर यह यात्रा अत्यंत सुखद एवं अविस्मरणीय रही।