उठहु राम भंजहु भव चापा

नवी मुंबई
राजा जनक ने यत्नपूर्वक धनुष-यज्ञ का आयोजन किया है। धनुष-यज्ञ में अनेक देशों से राजा पधारे हैं, शूरवीर पधारे हैं। विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण भी धनुष-यज्ञ में गए हैं। राजा जनक के निर्देश पर उनको विधिवत् सुसज्जित आसन पर सम्मान के साथ बैठाया गया है। बात उस समय के बड़े-बड़े वीरों, महारथियों के बीच चल रही है। यह समस्त आयोजन भी उनके लिए ही है, कि कोई ऐसा सुयोग्य वीरश्रेष्ठ सीता के विवाह हेतु मिल सके। महाराजा सीरध्वज की चिंता गहरी है। राम तो संयोगवश पहुँचे हैं, इसी कारण शांत-संयत बैठे केवल देख रहे हैं। शिव के धनुष को उठाने के यत्न करते अनेक शूरवीर जब थककर चूर हो जाते हैं, हारा हुआ मान लेते हैं, तब राजा जनक का क्रोध सिर चढ़कर बोलने लगता है। क्या धरती वीरों से खाली हो गई है? यदि मुझे ऐसा पता होता, तो मैं अपनी बेटी सीता के विवाह के लिए ऐसी प्रतिज्ञा नहीं करता। शिव के धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर, कोई वीर इसे हिला तक नहीं सका। यदि मैं प्रण त्यागता हूँ, तो संचित पुण्य नष्ट होता है… और न त्यागने पर पुत्री अविवाहित रह जाएगी। मिथिलापति सीरध्वज की विवशता क्रोध बनकर इस तरह प्रकट होती है, कि वे कह उठते हैं-
तजहु आस निज निज गृहँ जाहू । लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू ।।
लक्ष्मण को जनक की यह बात चुभ जाती है। राम का शांत-सौम्य व्यक्तित्व लक्ष्मण की उग्रता और प्रखर वाणी से उभरता है। लक्ष्मण स्वयं को रोक नहीं पाते। लक्ष्मण के लिए राम नरश्रेष्ठ हैं, वीरश्रेष्ठ हैं; और राम की उपस्थिति में धरती को वीरों से खाली कहा जाना लक्ष्मण के लिए असह्य हो जाता है। वे प्रतिकार में कह उठते हैं-
रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई । तेहि समाज अस कहइ न कोई ।।
कही जनक जसि अनुचित बानी । बिद्यमान रघुकुलमनि जानी ।।
राम और लक्ष्मण का मिथिला में आगमन सीधे सिद्धाश्रम से हुआ है, जहाँ कुछ ही दिन पहले उन्होंने ताड़का, मारीच, सुबाहु जैसे राक्षसों का वध करके वहाँ के साधु-संन्यासियों और सामान्य जन को भयमुक्त किया है। लक्ष्मण स्वयं को रोक नहीं पाते, और ललकार उठते हैं, श्रीराम से कहते हैं, कि यदि आप अनुमति प्रदान करें; तो मैं आपके प्रताप से, आपके बल से इसे छत्रक दंड (कुकुरमुत्ते) की तरह तोड़ डालूँ। अगर अपनी इस शपथ को पूरा न कर सकूँगा, तो पुनः धनुष पर हाथ नहीं रखूँगा। लक्ष्मण की ऐसी बातों से सभा में मानों भूचाल आ गया। राम ने लक्ष्मण को शांत होकर बैठने के लिए इंगित किया। लक्ष्मण को अपने निकट बैठाया। अब तक गुरु विश्वामित्र सबकुछ देख रहे थे। गुरु विश्वामित्र को अपने शिष्यों पर पूरा भरोसा था, और संभवतः जनक की बातें उनको भी अच्छी नहीं लगीं थीं। वे राम को निर्देश देते हैं-
उठहु राम भंजहु भव चापा । मेटहु तात जनक परितापा ।।
धनुष-यज्ञ के पूरे प्रसंग में अब तक गुरु विश्वामित्र भी शांत-संयत बैठे थे। उन्होंने रावण और बाणासुर जैसे राजाओं को बहाना बनाकर जाते हुए और स्वयं को वीर और बलशाली मानने वाले क्षत्रपों-वीरों को अजगव उठाने का असफल प्रयास करते देखा… राजा जनक को क्रोध में भरकर न जाने क्या-क्या कहते सुना, और लक्ष्मण को राजा जनक की बातों के प्रतिकार में अपना विरोध प्रकट करते देखा। गुरु विश्वामित्र के लिए यह उचित समय था, जब वे राम को धनुष उठाने के लिए नहीं, वरन् भंजन करने के लिए कहते….। गुरु विश्वामित्र का यह निर्देश सामान्य नहीं था। सीता के विवाह का प्रयोजन-मात्र इस निर्देश में नहीं था।
भव शिव को भी कहते हैं, और संसार को भी….। भव चाप का भंजन… शिव के धनुष का, पिनाक का भंजन नहीं, वरन् संसार के क्लेशों-दुःखों का भंजन भी है। जनक का परिताप पुत्री सीता के विवाह-मात्र से शांत होने वाला नहीं है। सीरध्वज जनक मिथिला के जनकों की परंपरा में आते हैं। उनके समय में जिस तरह की स्थितियाँ बनी हुईं थीं, उनमें सीरध्वज जनक का परिताप जनकनंदिनी के लिए एक वीर नरश्रेष्ठ वर की खोज के पूरे न हो पाने के कारण उपजा था। वीरों की कोई कमी नहीं थी। बाबा तुलसी लिखते हैं, कि सीता-स्वयंवर के लिए असुर भी रूप धरकर आए थे। कुटिल और क्रूर-आततायी राजागण भी बड़ी अभिलाषा लेकर पहुँचे थे। इनमें से कोई भी शिव के धनुष को हिला तक नहीं सका। जब एकाकी प्रयास विफल हो गए, तो हजार की संख्या में एकत्र होकर राजागण धनुष को उठाने का प्रयत्न करते हैं, और श्रीहत होकर अपने स्थान पर बैठ जाते हैं। राजा जनक का परिताप बड़ा विकट है। वे कहते हैं-
दीप दीप के भूपति नाना ।
आए सुनि हम जो पनु ठाना ।।
देव दनुज धरि मनुज सरीरा ।
बिपुल बीर आए रनधीरा ।।
कुँअरि मनोहर बिजय बड़ि,
कीरति अति कमनीय।।
पावनिहार बिरंचि जनु,
रचेउ न धनु दमनीय ।।251।।
हमारे प्रण को, हमारी प्रतिज्ञा को जानकर अनेक द्वीपों (देशों) के अनेक राजा मिथिला में पधारे। देवता और राक्षस भी मनुष्य का शरीर धरकर आए। शिव के धनुष को उठाने पर कुँअरि मनोहर, बड़ी विजय और सबसे प्रमुख बात… अति कमनीय कीर्ति प्राप्त होती, किंतु ऐसा लगता है, कि विधाता ने इन तीनों को प्राप्त करने लायक किसी को इस धरती पर नहीं बनाया है। कुछ ही दिन पहले सिद्धाश्रम में मारीचि, सुबाहु जैसे भीषण राक्षसों को मारने वाले, ताड़कावन में राक्षसी ताड़का का वध करके असीम जन समूह को भयमुक्त करने वाले दशरथनंदन राम भी तो इस धनुष-यज्ञ की सभा में विराजमान हैं। मिथिलापुरी की वाटिका में भ्रमण करते हुए जब सीता की सखियों ने दोनों राजकुमारों को देखा था, तब मन ही मन अनेक संभावनाओं के, कल्पनाओं के महल गढ़ लिए थे।
रामकथा के पुष्पवाटिका प्रसंग का लोक जीवन में अपना महत्त्व है। लोकरक्षक श्रीराम के प्रति जन-आस्थाएँ सिद्धाश्रम में उनकी कीर्ति को देखकर ऐसी दृढ़ हो जाती हैं, कि मानों जनसमूह का मानस ही उनके साथ मिथिलापुरी की ओर चल पड़ता है। जनकनंदिनी सीता अपनी आराध्य देवी पार्वती का पूजन करने गईं हैं। दशरथनंदन राम और लक्ष्मण को पुष्पवाटिका में देख लोक भविष्य की सुंदर संभावनाओं को सँजोता है। उन्हें मिथिलापति सीरध्वज और अयोध्यानरेश दशरथ के मध्य संबंध की एक कड़ी जुड़ती दिखती है।
बाबा तुलसी ने बड़ा मनोहारी प्रसंग मिथिलापुरी की वाटिका में देवी पूजन के लिए गई माता सीता और उपवन देखते हुए भ्रमण कर रहे राजकुमार युगल के आमने-सामने आने पर रचा है। सीता की एक दृष्टि नृपकिसोर पर पड़ती है, और मन को बाँध लेने वाले नृपकिशोर के दृष्टि से ओझल होने पर चिंता की लहर ही दौड़ जाती है। मृगशावक के चंचल नेत्रों जैसी चंचलता के साथ सीता चारों तरफ देखती हैं, और हर ओर जैसे कमल की पंक्तियाँ बरस जाती हैं। सखियाँ इस व्याकुलता को समझ जाती हैं, और लताओं की ओट में देखने के लिए इंगित करती हैं। साँवले और गौर वर्ण के किशोरों को देखकर आँखे जैसी अपनी निधि को पहचान गईं हों।
कुँअरि मनोहर सीता के लोचन जिस निज निधि को पहचानकर अपनी आराध्य देवी के समक्ष विनत भाव से प्रार्थना के लिए झुकते हैं, वह निधि केवल रूप-सौंदर्य में ही नहीं, वरन् शौर्य-पराक्रम में भी श्रेष्ठतम् है। यह सिद्ध करने का अवसर धनुष-यज्ञ में प्रत्यक्ष है। सीरध्वज जनक के परिताप को मेटने का सामर्थ्य श्रीराम में है। लक्ष्मण के वचन तीक्ष्ण हैं, लेकिन श्रीराम के पराक्रम और शौर्य के इस अपार जनसमुदाय के मध्य प्रदर्शन की एक पृष्ठभूमि बनाने के संदर्भ में अपना अलग महत्त्व रखते हैं। गुरुश्रेष्ठ विश्वामित्र का निर्देश पाकर श्रीराम अत्यंत सहज भाव से जाते हैं, और शिवधनु को उठाकर जैसे ही प्रत्यंचा चढ़ाते हैं, धनुष टूट जाता है। राम उसे किनारे रखकर सहज भाव से वरमाला पहनने के लिए आगे बढ़ते हैं।
मानस में प्रसंग आता है, कि श्रीराम ने जैसे ही धनुष तोड़ा और सीताजी के पाणिग्रहण का कार्यक्रम प्रारंभ हुआ, सभा में उपस्थित राजागण अपने असली रूप में आ गए और प्रलाप करने लगे। पिनाक के टूटते ही एक तरफ हर्ष की लहर दौड़ गई थी। अपार जनसमुदाय अपनी प्रसन्नता को जयकार, नृत्य, न्यौछावर, पुष्प वर्षा आदि के माध्यम से व्यक्त कर रहा था, तो दूसरी ओर आमंत्रित राजागण अपनी पराजय देखकर और किशोरवय श्रीराम के द्वारा धनुषभंग करके सीता के वरण को जानकर नियंत्रण खो बैठते हैं। तुलसीदास जी लिखते हैं-
तब सिय देखि भूप अभिलाषे ।
कूर कपूत मूढ़ मन माषे ।।
उठि उठि पहिरि सनाह अभागे ।
जहँ तहँ गाल बजावन लागे ।।
लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ ।
धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ ।।
तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई ।
जीवत हमहिं कुअँरि को बरई ।।
जौं बिदेहु कछु करै सहाई ।
जीतहु समर सहित दोउ भाई ।।
साधु भूप बोले सुनि बानी ।
राज समाजहिं लाज लजानी ।।
सभा में उपस्थित राजाओं की नीयत और मानसिकता का बहुत स्पष्ट और सटीक चित्रण बाबा तुलसी ने किया है। राजागण सीताजी को पाने के लिए युद्ध करने को तैयार हैं। वे राम और लक्ष्मण को भी जीत करके बंदी बनाने को उद्यत होते हैं। सीता का अपहरण तक करने के लिए वे तैयार हो जाते हैं। मिथिलापति जनक सीरध्वज अत्यंत सज्जन स्वभाव के हैं, विदेह हैं। वे इतना ही कह पाते हैं, कि राजाओं के इस व्यवहार को देखकर तो लज्जा को भी लज्जा आ जाएगी। इसी समय भृगुसुत परशुराम का आगमन हो जाता है। उनके विकराल वेश को देखकर, उनके पराक्रम का स्मरण करके आतंक मचाने वाले राजागण स्तब्ध रह जाते हैं, और भय से व्याकुल होकर अपने पिता के नाम के साथ अपना परिचय देते हुए प्रणाम करते हैं। स्थितियाँ एकदम बदल जाती हैं, और परशुराम के साथ राम-लक्ष्मण का संवाद चलने लगता है।
वाल्मीकि रामायण में ऐसा प्रसंग नहीं आता। वहाँ मिथिलापुरी में यज्ञ का आयोजन है। वाल्मीकीय रामायण की मिथिलापुरी वेदाध्ययन, धर्मपालन, शास्त्रार्थ, धार्मिक कर्मकांड आदि के लिए जगत्प्रसिद्ध है। इस कारण मिथिला में अध्ययनार्थ दूर-दूर से विद्यार्थी आते हैं। जनक सीरध्वज के संरक्षण में अनेक धार्मिक क्रियाकलाप होते रहते हैं। इसी क्रम में एक विशाल यज्ञ का आयोजन हो रहा है, जिसमें गुरु विश्वामित्र के आश्रम के साधु-संन्यासियों के साथ राम और लक्ष्मण भी जाते हैं। गुरु विश्वामित्र के नेतृत्व में सिद्धाश्रम के साधु-संन्यासियों के मिथिलापुरी पहुँचने पर राजा जनक स्वागत-सत्कार करते हैं। दशरथनंदन राम और लक्ष्मण के प्रति जनक आस्थावान होते हैं, क्योंकि इनके पराक्रम से ही कुछ दिन पहले सिद्धाश्रम राक्षसों से मुक्त हुआ था।
विश्वामित्र के कहने पर राजा जनक शिव के धनुष को दर्शनार्थ मँगवाते हैं। उनके सेवकगण बहुत कठिनाई से उस विशाल मञ्जूषा को खींचकर लाते हैं, जिसके अंदर शिव का धनुष रखा था। सीरध्वज जनक बताते हैं, कि अनेक राजा इस धनुष को उठाने का प्रयास कर चुके हैं, लेकिन कोई भी उठा नहीं सका और शिव-धनुष को उठाने वाले के साथ पुत्री सीता के विवाह की मेरी प्रतिज्ञा अभी तक पूरी नहीं हो पाई है। राम शिव-धनुष को देखते हैं, और अनुमति पाकर प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास जैसे ही करते हैं, धनुष टूट जाता है।
सारी धरती में एकदम हलचल मच जाती है। इस अप्रत्याशित घटना के बाद जनक सँभलते हैं और कहते हैं-
भगवन्दृष्टवीर्यो मे रामो दशरात्मजः।
अत्यद्भुतमचिन्त्यं च न तर्किमिदं मया।।
जनकानां कुले कीर्त्तिमाहरिष्यति मे सुता।
सीता भर्तारमासाद्य रामं दशरात्मजम् ।।
मम सत्वा प्रतिज्ञा च वीर्यशुल्केति कौशिक।
सीता प्राणैर्बहुमता देया रामाय मे सुता ।।
सीरध्वज जनक के लिए राम की वीरता आश्चर्य में डाल देने वाली है। जनक के लिए राम का कल्पनातीत पराक्रम आत्मसंतुष्टि देता है। सीता का राम के साथ विवाह जनकों के कुल में यश लाएगा। सीता का विवाह वीर, पराक्रमी और शौर्यवान वर से करने की राजा जनक की प्रतिज्ञा सफल होती है। वे अपनी प्राणों से प्रिय पुत्री सीता का विवाह राम से करने के लिए तैयार होते हैं। राजा दशरथ के पास संदेश भेजा जाता है। राम और सीता का विवाह संपन्न होता है।
धनुष-यज्ञ के लिए राजा जनक के प्रण को जानकर ‘दीप दीप के भूपति नाना’ पधारे थे। इन सबके मध्य श्रीराम ने उस कार्य को कर दिखाया, जो किसी भी भूपति के लिए, या भू-पतियों के समूहों के लिए असंभव हो गया था। श्रीराम ने पिनाक का भंजन करके उस सभा में सीता का वरण-मात्र नहीं किया था, अपितु अनेक शोषित-संत्रस्त-दलित-पीड़ित जनों के संकटों-कष्टों का भंजन भी किया था। उस सभा से सारे विश्व में श्रीराम के पौरुष, पराक्रम, बल और शौर्य का जो यशःगान हुआ, वह अकल्पनीय और अतुलनीय था।
शिव-धनुष के भंग होते ही उपस्थित राजाओं के द्वारा उत्पन्न की गई अराजकता के मध्य परशुराम का आगमन भी बहुत महत्त्व रखता है। भृगुनंदन परशुराम के आराध्य शिव का धनुष तोड़ने वाला कोई सामान्य व्यक्ति नहीं होगा। परशुराम ने समाज में शांति, सौहार्द और धर्माधारित व्यवस्था को स्थापित करने हेतु सहस्रबाहु का वध किया था। अनैतिक कार्यों में लिप्त, निरंकुश और जनता के हितों के प्रति उदासीन रहने वाले शासकों-राजाओं से धरती को विहीन करके समाज को भयमुक्त किया। वृद्धावस्था के समय उनके लिए पुनः उस अतीत को दोहराना कितना कठिन होगा? शिव का धनुष किसी आततायी ने तो नहीं तोड़ा, जो पुनः अतीत की पुनरावृत्ति होने लगे? ऐसी चिंताओं को साथ लिए परशुराम का आगमन जब मिथिलापुरी में होता है, तब उनके क्रोध की कोई सीमा नहीं रहती। परशुराम का विकराल रूप देखकर अनर्गल प्रलाप कर रहे राजागण भयभीत हो जाते हैं और परशुराम को प्रणाम करने लगते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी कवितावली में लिखते हैं-
काल कराल नृपालन के, धनुभंग सुने फरसा लिए धाए ।
लक्खन- राम बिलोकि सप्रेम, महारिसितें फिरि आँखि दिखाए ।।
धीर-सिरोमनि, बीर बड़े, बिनयी, विजयी, रघुनाथ सुहाए ।
लायक हे भृगुनायक सो धनुसायक सौंपि सुभाय सिधाए ।।22।।
परशुराम जब राम की वीरता, उनके व्यक्तित्व की विशिष्टता, राम के शौर्य और पराक्रम से परिचित हो जाते हैं, तब वे वर-वधू को आशीष देते हैं। परशुराम आश्वस्त हो जाते हैं, कि शिव-धनुष तोड़ने वाला विनम्र, धीर-शिरोमणि और लायक है, उचित पात्र है। वे जाते समय अपना धनुष-बाण श्रीराम को सौंप देते हैं। यह राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद भी अपना विशेष महत्त्व और स्थान रखता है।
धनुष-भंग का यह समग्र प्रसंग लोकजीवन से जुड़ता है। रामलीलाओं के मंचन में धनुष-भंग की लीला का अपना विशेष महत्त्व है। धनुष-भंग के प्रथम अंश में सीता-स्वयंवर और द्वितीय अंश में परशुराम-संवाद या परशुरामी आती है। रामलीलाओं के मंचन की परंपरा भी बहुत
पुरानी है। कानपुर की परशुरामी बहुत प्रसिद्ध रही है। आज भी लोगों में एक आकर्षण है।
सूत्रधार की यह पुकार आज भी जब गूँजती है, तो गाँव हों या कस्बे…., या फिर नगर ही क्यों न हों…. अच्छी-खासी भीड़ जुट जाती है। सूचना-संचार के अनेक साधनों के बीच भी रामलीला के विभिन्न प्रसंगों को रात-रातभर रुचि के साथ देखने वालों की कमी नहीं है। पर्व-त्योहारों में, मांगलिक कार्यों में, शुभ अवसरों पर राम और सीता के विवाह का प्रसंग लोकगीतों में रचा-बसा मिलता है। बुंदेलखंड के गाँवों में आज भी महिलाएँ बड़ी रुचि के साथ गाती हैं-
बने दूल्हा छवि देखो भगवान की,
दुल्हन बनी सिया जानकी।
जैसे दूल्हा अवधबिहारी,
तैसी दुल्हन जनक दुलारी,
जाऊँ तन मन से बलिहारी।
मनसा पूरन भई सबके अरमान की।
दुल्हन बनी…ठाँड़े राजा जनक के द्वार, संग में चारउ राजकुमार,
दर्शन करते सब नर-नार,
धूम छायी है डंका निशान की।
दुल्हन बनी…
गुरु विश्वामित्र के साथ सिद्धाश्रम में जाने वाले अयोध्या के राजकुमारों की वीरता लोक के अनुराग का आश्रय है। श्रीराम का पराक्रम जन-आस्थाओं में पूजा जाता है। मिथिलापुरी में भरे समाज के मध्य अपने वीरोचित गुण से, अपने बल और अपनी सामर्थ्य से सभी को हतप्रभ कर देने वाले राजकुमार राम के प्रति लोक की आस्था ऐसी प्रगाढ़ है, कि वह हर वर में, हर दूल्हे में राम को देखती है, और हर वधू में सीता को…।