"आल्हा ऊदल बड़े लड़ैया, जिनसे हार गई तलवार" बचपन में एक बार किसी परिचित के यहां रात में ये पंक्तियां मेरे कानो में पड़ी थीं और एक अलग ही जोश भरी गायन शैली ने मेरे हृदय में कहीं छुप कर एक जगह बना ली। शायद आपने भी कभी बुंदेलखंड या फिर अवध (जिसे बैसवारा भी कहते हैं) में कभी सुनी होंगी, विशेषतया आषाढ़, सावन में। मैं वर्तमान समय की बात नहीं कर रही क्योंकि अब तो मनोरंजन के बहुत से साधन गांव - गांव तक पहुंच गए हैं।
एक दिन यूं ही यू ट्यूब देखते हुए 'लल्लू बाजपेई का आल्हा' नजरों के सामने आ गया। मैंने अपने बेटे से पूछा, 'आल्हा ऊदल को जानते हो' वो बोला 'कौन आल्हा ऊदल ?' तब अपनी परवरिश पर एक प्रश्नचिन्ह आ गया। ये हमारी जिम्मेदारी है कि अपने बच्चों को अपने गौरवशाली इतिहास से परिचित कराएं।
आल्हा ऊदल बनाफर वंश के दो वीर भाई जो राजा परमर्दी देव के मंत्री थे। राजा परमर्दी देव परमाल (परमार) वंश के शासक थे जो बुंदेलखंड में शासन करते थे और आज के उत्तर प्रदेश के महोबा में उनकी राजधानी थी। परमर्दी देव के राजकवि जगनिक ने परमाल रासो के आल्हा खंड में आल्हा ऊदल की वीरता का बखान किया है। आल्हा खंड लोक गायन के रूप में बहुत प्रचलित रहा है।
कहते हैं कि पृथ्वीराज चौहान से युद्ध करते हुए जब आल्हा की प्राणरक्षा करते हुए ऊदल की मृत्यु हो गई तब आल्हा काल बनकर पृथ्वीराज चौहान की सेना पर टूट पड़े और उस समय पृथ्वीराज चौहान को गुरु गोरखनाथ के कहने पर ही आल्हा ने छोड़ा था। उसके बाद आल्हा ने युद्ध छोड़ कर गुरु गोरखनाथ से दीक्षा ले ली। इस परिदृश्य में डॉ. प्रवीण कुमार श्रीवास्तव की ये पंक्तियाँ बड़ी सटीक बैठती हैं -
ये तो रही इतिहास की बात परंतु लोकगायन में भी आल्हा की एक अलग ही पहचान है। एक वीरता पूर्ण, जोश भरी गायन शैली जो दूर से ही पहचानी जा सकती है। हमारे लोक गान जैसे फाग, आल्हा, बैठकुवा गीत, इनकी जड़ें धीरे - धीरे सूख रहीं हैं। पिछली पीढ़ी तक तो सबको पता था पर अगली पीढ़ी में न के बराबर है। अतः हमें ही कुछ करना होगा। आखिरकार 'बड़े लड़ैया महोबा वाले' हैं ही तो कुछ न कुछ तो करेंगे ही।