आजादी की वर्षगांठ के पुनीत अवसर पर यदि हम बीते वर्षों की घटनाओं पर नज़र डालें तो पाते हैं कि “हमारे देश को आजादी सन 1947 में मिल गयी थी, परन्तु हमें क्या आज भी पूर्ण स्वतंत्रता मिली है" ? हमारा देश जब आजाद हुआ तब सबने भरपूर खुशियां मनाई और आज भी उसके वर्षगांठ पर मनाते हैं, लेकिन हमने यह नहीं सोचा की हमें असली आजादी कब मिलेगी ? स्वतंत्रता सिर्फ अंग्रेज़ों से नहीं, हमें आजादी चाहिए थी उस सोच से जिसने पूरे समाज को खोखला कर दिया है। हाँ ! मैं बात कर रही हूँ - भेद भाव की। भेद भाव, कितना छोटा शब्द है ना यह, और कितनी आसानी से हम इसका प्रयोग भी कर लेते हैं, पर क्या हम इसका सही मतलब जानते हैं ? इस कहानी में हम भेद भाव का असली मतलब जानेंगे।” प्रशांत यह पढ़कर सोच में पड़ गया की भेद भाव असल में होता क्या है, वह बड़ी ही उत्सुकता से आगे पढ़ने लगा -
पंकज एक छोटे गांव का लड़का था, उसके गांव में कोई सुविधा नहीं थी। पंकज नीची जाति का था। बाहर शहरों में तो बहुत परिवर्तन आ गया था, वहां लोग ऊंच - नीच का उतना भेद भाव नहीं करते थे, परन्तु गावों में अभी भी वही सोच थी कि ऊँची जाति वाले सर्वोपरि हैं और नीची जाति वाले अछूत। इसी ज़हरीली सोच से प्रभावित लोग पंकज को ऐसी नज़रों से देखते थे जैसे कोई घिनौनी चीज़ हो। पंकज मात्र 7 साल का था जब उसके माता पिता की मृत्यु हो गयी थी। गांव वालों ने पंकज को उसी के घर से निकाल दिया था और उसके घर की जगह एक दुकान लगा दी।
पंकज ने आजतक इस बात की शिकायत किसी से नहीं की। वह तो बस अपने गांव की उस मिट्टी से जुड़ा रहना चाहता था जिसमें उसका जन्म हुआ था। पंकज ने केवल 10 साल की उम्र से कबाड़ बेचने का धंधा आरंभ कर दिया था। जब भी वह किसी के घर कबाड़ लेने जाता वहां के लोग उसे न तो घर के अंदर आने देते थे, ना ही उससे अच्छे से बात करते थे। एक दिन पंकज कबाड़ लेने एक बड़े घर में गया, उसने देखा की एक छोटा बच्चा आंगन में खेल रहा है। उसके चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान को देखकर पंकज भी मुस्कुराने लगा। जब वह कबाड़ तौल रहा था तभी उस बच्चे ने ज़िद पकड़ ली की उसे भी वह तराज़ू पकड़ना है। पास से एक आदमी गुज़र रहा था उसने यह सब देखा और कबाड़ देती हुई महिला से कहा की वह पंकज से बात करके समाज में अपना सम्मान कम कर रही है। उस आदमी की बात सुनकर महिला को गुस्सा आ गया और उसने कहा “भगवान ने हमें एक समान बनाया है तो हम किस आधार और अधिकार से भेद भाव करते हैं ?” इस प्रश्न का उस आदमी के पास कोई उत्तर नहीं था। उसका सर शर्मिंदगी से झुक गया। पंकज को भी यह आभास हो गया की इस समाज में अभी भी कुछ लोग हैं जो भेद भाव नहीं करते। हमें भी भेद भाव नहीं करना चाहिए। हर इंसान को आदर और प्रेम देना चाहिए।
प्रशांत ने भी मन में यह गाँठ बांध ली की वह ज़िन्दगी में कभी भी भेद भाव नहीं करेगा और सबका आदर करेगा। पर, मन ही मन सोच भी रहा था कि इस भेद भाव की मानसिकता को कमजोर करने में ही सालों बीत गए और ना जाने कितने और वर्ष बीत जाएँ इसे पूर्ण रूप से ख़तम होने में। पर सच पूछो तो आज़ादी के पर्व को सही मायने में हम तभी पूरे उत्साह के साथ मनाने में समर्थ होंगे, जब हमारा सम्पूर्ण समाज इस मानसिकता से पूरी तरह से उबर पायेगा।