अथ कॉफ़ी कथा

कॉफ़ी शब्द दिमाग में आते ही एक मादक सी ख़ुशबू भर जाती है। मन को मस्त कर देने वाली खुशबू ने सदैव मन के तारों को छेड़ा है।

भारत में आयातित इस पेय पदार्थ ने काफी समय से अभिजात्य वर्ग में अपनी पैठ बना ली है। कॉफी पीने वाला व्यक्ति अपने आप को एक्सक्लूसिव महसूस करने लगता है। दक्षिण भारत के पश्चिमी घाट में उपजने वाला यह पेय पदार्थ अंग्रेजों द्वारा उत्तर भारत में लाया गया। उन दिनों गोरा साहब के साथ कॉफी के कुछ घूंट लगा लेने वाले रायचंदों / राय साहबों और सरकारी अफसरों को समाज में अलग ही स्थान मिल जाता था।

कॉफी की यह रहस्यात्मकता आज़ादी के बाद भी विद्यमान है। आज़ादी के बाद इसे नव-प्रबुद्ध वर्ग और नव-धनाढ्य वर्ग ने अपनाया।

तत्कालीन सरकार ने सन 1942 में इंडियन कॉफी बोर्ड की स्थापना की, जिसके तत्वावधान में देश के हर बड़े शहरों में इंडिया कॉफ़ी हाउस खोले गए। जिनमें बैरों की कलँगीदार पोशाक देखते सामान्य जन की हालत पतली कर देता था। उस पर कॉफ़ी की कीमत भी सामान्य वर्ग के पहुंच से बाहर थी तभी इसे अभिजात्य वर्ग की निशानी माना जाता था। उस समय नव-प्रबुद्ध वर्ग और कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित लोगों का जमावड़ा कॉफ़ी हाउस में हुआ करता था। जहां पर विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर बहस-मुसाहिबे हुआ करते थे। यहां तक कि कई नामवर लेखक और कवि शौक से अड्डा जमाया करते थे। देश के कई सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों की नींव भी इन कॉफ़ी हाउसों की देन है। गोया की कॉफ़ी पीना अपने आपको अलग और दूसरों से श्रेष्ठ माने जाने की निशानी है। यह मानसिकता आज भी बरक़रार है जबकि इसकी उपलब्धता और पहुंच अधिक व्यापक हो गई है, फिर भी घर आये मेहमान को विशिष्टता का दर्जा या अहसास कॉफी पिला कर दिया जाता है। "मैं चाय नहीं पीता बस कॉफ़ी पीता हूँ या सिर्फ ब्लैक कॉफ़ी पीता हूँ" कहने मात्र से सामने वाला व्यक्ति हम जैसे चाय सुड़कने वालों को निम्न सिद्ध कर देता है। यही अभिजात्यपन और उच्चता की भावना बाज़ारीकरण के बावजूद बनी हुई है।

महीने का सामान खरीदने वाला व्यक्ति आधा एक किलो चाय पत्ती के साथ माह दो माह में पचास ग्राम की कॉफी की एक शीशी या पाउच ज़रूर खरीदता है और घर आये आगन्तुक से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए "आप चाय लेंगे या कॉफ़ी" ज़रूर पूछता है, ऐसा बोलते समय "कॉफ़ी" शब्द पर विशेष जोर देता है और दर्शाता है कि भइया हम तो कॉफ़ी पीने वाले लोग हैं, भले ही वह महीनों शीशी का ढक्कन खोल कर सूंघ कर वापस रख देता हो, पर उस समय तो वह अपनी श्रेष्ठता का सिक्का जमाने का पूरा प्रयास करता है। उधर नमी के कारण जमी और ऐंठी हुई कॉफ़ी भले ही अपनी किस्मत को रो रही हो, पर साहब ने तो अपनी साहबी झाड़ ही ली।

अब जब कि हर गली नुक्कड़ में कॉफ़ी चाय के साथ सुलभ हो गई तो इस वर्ग को अपनी प्रतिष्ठा की चिंता हो गई। अपनी अभिजात्यता की रक्षा करने के लिये इस वर्ग ने दिमाग लगाया और एक्सक्लुसिव कॉफ़ी आउटलेट खोलने लगे, जो कि एक बार फिर सामान्य को अभिजात्य में विभाजित करने में सफल हुए। चूंकि अब साहबी का दौर तो रहा नहीं, बस पैसे का बोलबाला है तो धनाढ्य और नव धनाढ्य वर्ग के बीच अंतर परिभाषित करने के लिए "कॉफ़ी चेन" की श्रेणियां बन गईं। इसी के तहत "कैफ़े कॉफ़ी डे", "बरिस्ता" और अब "स्टारबक्स" जैसे नाम सामने आये। जो दूसरों का जी जलाने में बड़े सहायक सिद्ध हुए।

सोशल मीडिया के इस ज़माने में अब लोग अपनी औकात के अनुसार स्टेटस डालने लगे हैं। तभी तो सोशल मीडिया में "चेक्ड इन सी सी डी", या "चेक्ड इन बरिस्ता" या फिर "चेक्ड इन स्टारबक्स" के स्टेटस नज़र आने लगे हैं। ऐसे लोग भले ही अपने बच्चे की नैपी न चेक करें पर कितने लाइक्स आये या कितने कमेंट्स आये, वो चेक करना नहीं भूलते हैं।

अब तो दोस्ती का पैमाना भी बदल दिया मुई कॉफ़ी ने। अगर भूल से लाइक या कमेंट न किया तो दोस्ती पर आफत आ जाती है, ऐसे में रूठे दोस्त को अपनी औकात से बाहर जाकर भी इन्हीं आउटलेट्स में ले जाकर कॉफ़ी पिलानी पड़ती है।

इस बात का कड़वा अनुभव हमारे एक प्रिय, किंतु तुनकमिजाज मित्र के हमारे घर में पधारने पर हुआ। उनके आगमन के उपरांत हमनें उनसे चाय या ठंडा लेंगे पूछने पर उन्होंने मुझे आश्चर्य मिश्रित हिकारत भरी नज़र से ऐसे देखा जैसे किसी शहंशाह की तौहीन कर दी हो। वह मुँह फुलाकर ऐसे बैठ गए कि मनाना मुश्किल हो गया। जब तक उनको मन मार कर अपनी पॉकेट में सुराख करके बरिस्ता ले जाकर कॉफ़ी नहीं पिलाई वह नहीं माना। बाद में पता लगा वह महाशय प्रागैतिहासिक काल की शीशी में अकड़ी सूखी कॉफ़ी सिर्फ दिखावे के लिए रखते हैं, पर दूसरों के घर जाकर ऐसा दिखाते हैं मानो कॉफ़ी न मिली तो कोमा में चले जायेंगे। उनकी इस अदा ने तो पूरे महीने का बजट ही बिगाड़ दिया। अब तो दोस्ती के नाते फोन पर ही दुआ सलाम कर लेता हूँ, पर घर बुलाने की हिम्मत नहीं कर पाता। लगता है कॉफ़ी का अस्तित्व और बाज़ार इन्ही जैसे तथाकथित अभिजात्यों पर टिका हुआ है।

इति कॉफ़ी उवाच:- "कॉफ़ी महारानी की महिमा न्यारी, इन पर टिकी है दोस्ती अब सारी।"

जय हो !

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