अतीत के पन्नों पर विचारधारा की नई स्याही

भारत में इतिहास शिक्षा केवल एक अकादमिक अनुशासन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना, राष्ट्रीय दृष्टिकोण और लोकतांत्रिक विचारधारा का आधार भी है। एनसीईआरटी द्वारा वर्ष 2025 के लिए इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में किए गए संशोधनों ने इस भूमिका को पुनः बहस के केंद्र में ला दिया है। पाठ्यक्रमों में मुग़ल काल, दिल्ली सल्तनत और अन्य मध्ययुगीन अवधियों से संबंधित अध्यायों में कटौती की गई है, जबकि गुरुकुल परंपरा, वैदिक गणराज्य, तीर्थयात्रा संस्कृति और पवित्र भूगोल जैसे विषयों को जोड़ा गया है। बाबर को ‘क्रूर’ और अकबर को ‘सहनशील लेकिन हिंसक’ बताने वाले विवरणों ने भी व्यापक चर्चा को जन्म दिया है। आलोचकों का मत है कि इस तरह के बदलाव ऐतिहासिक घटनाओं की वैज्ञानिक व्याख्या की बजाय वैचारिक पुनर्लेखन के प्रयास प्रतीत होते हैं। उनका तर्क है कि भारत का इतिहास केवल एक गौरवशाली संस्कृति की याला नहीं, बल्कि विभिन्न मत, विचार, संघर्ष, सह-अस्तित्व और बदलावों का सम्मिलित दस्तावेज़ है।
आलोचना का एक बड़ा आधार यह भी है कि मध्यकालीन इतिहास को हटाकर एक विशेष सांस्कृतिक दृष्टिकोण को प्रधानता दी जा रही है, जिससे भारत की बहुलतावादी परंपरा को खतरा हो सकता है। इतिहास शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थियों को आलोचनात्मक विवेक, तुलनात्मक दृष्टिकोण और प्रमाणाधारित विश्लेषण से सुसज्जित करना होता है। जब पाठ्यक्रम में कुछ वर्गों,विचारों या समुदायों को प्रमुखता और अन्य को उपेक्षा मिलती है, तो शिक्षा केवल ज्ञान नहीं, बल्कि एक विचारधारा का वाहक बन जाती है।
हालाँकि, इस समग्र विमर्श में यह भी आवश्यक है कि हम उन पक्षों को समझें जो इन संशोधनों को भारतीय परंपराओं की पुनर्प्रतिष्ठा के रूप में देखते हैं। लंबे समय तक औपनिवेशिक प्रभावों के कारण भारतीय इतिहास लेखन पश्चिमी दृष्टिकोण से प्रभावित रहा है। ‘एग्लो सैक्सन’ शैली में लिखे गए इतिहास ग्रंथों में भारतीय परंपराओं, मूल्यों और सांस्कृतिक पहचान को या तो गौण माना गया या ‘आधुनिकता के अवरोधक’ के रूप में चिनित किया गया। इसी कारण से कई शिक्षाविदों का मानना है कि नई शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत एनसीईआरटी का यह प्रयास एक प्रकार की सांस्कृतिक पुनर्स्थापना है, जो भारतीय आत्मबोध को पुनः सक्रिय करता है।
भारतीय संदर्भों में यह जरूरी हो जाता है कि विद्यार्थी केवल विदेशी आक्रांताओं, युद्धों और सत्ता संघर्षों के माध्यम से ही इतिहास न पढ़ें, बल्कि ऋषि-परंपरा, उपनिषदों की वैचारिक गहराई, भक्ति आंदोलन की समावेशिता, आदिवासी ज्ञान परंपराओं, लोक इतिहास और स्त्री दृष्टिकोणों को भी समझें। यदि नई पाठ्यपुस्तकें इन पहलुओं को सम्मिलित करती हैं, तो यह निस्संदेह सकारात्मक पहल हो सकती है। साथ ही, यह भी आवश्यक है कि यह पुनर्लेखन केवल गौरवगाथा या पौराणिकता की ओर न झुके, बल्कि ऐतिहासिक तथ्यों की कसौटी पर परखा जाए और विद्वत्तापूर्ण विवेचना का आधार बने ।
जो अध्याय हटाए गए हैं,जैसे कि मुग़ल काल, वह भारत के इतिहास का एक आवश्यक हिस्सा हैं। बाबर की विजय से लेकर अकबर की धार्मिक सहिष्णुता तक, शाहजहाँ की स्थापत्य कला से औरंगज़ेब की कट्टर नीतियों तक – इन सभी घटनाओं ने भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे को प्रभावित किया है। इनसे भारतीय उपमहाद्वीप की विविधता, सह-अस्तित्व और राजनीतिक जटिलताओं को समझने में सहायता मिलती है। यदि इन्हें हटा दिया जाता है या केवल नकारात्मक दृष्टि से प्रस्तुत किया जाता है, तो विद्यार्थियों में एक पक्षीय सोच विकसित हो सकती है।
दूसरी ओर, यह भी सत्य है कि पाठ्यपुस्तकों में लंबे समय से कुछ सांस्कृतिक तत्वों की उपेक्षा की गई थी। उदाहरणस्वरूप, भारत के वैदिक गणराज्यों, बौद्ध
गणसंघों, चोल, मौर्य, गुप्त या अहोम वंशों की प्रशासनिक दक्षता और सामाजिक संरचनाओं पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। ऐसे में यदि एनसीईआरटी इन विषयों को पुनः प्रमुखता देता है, तो यह सुधारात्मक कदम माना जा सकता है। परंतु यह सुधार तभी उपयोगी है जब वह समावेशी हो, न कि प्रतिस्थापनपरक ।
शिक्षा का उद्देश्य केवल जानकारी देना नहीं, बल्कि छात्र को विवेकशील नागरिक बनाना भी है। जब वह विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों से इतिहास को समझता है, तब वह वर्तमान घटनाओं को अधिक संतुलित ढंग से देखने की क्षमता प्राप्त करता है। यदि पाठ्यपुस्तकें केवल सांस्कृतिक महिमा का चित्रण बन जाएँ और संघर्षों, विवादों, विविधताओं की व्याख्या से वंचित रहें, तो विद्यार्थी की ऐतिहासिक समझ अधूरी रह सकती है।
यह भी स्मरणीय है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में इतिहास शिक्षा एक माध्यम है, जिससे नागरिक बहुलतावादी लोकतंत्र के मूल्य सीखते हैं। यदि पाठ्यपुस्तकों में से उन अवधियों को हटा दिया जाए, जहाँ सह-अस्तित्व, धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक समरसता की मिसालें थीं, तो वह लोकतंत्र की नींव पर भी प्रभाव डाल सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि एक साथ गुरुकुल और मदरसे की भूमिका, काव्य और कसीदा की परंपरा, वेदों और फ़ारसी साहित्य, मंदिरों और मस्जिदों की वास्तुकला – सभी का संतुलित अध्ययन हो ।
कुछ इतिहासकार यह भी कहते हैं कि अगर मुग़ल इतिहास को संकुचित करके प्रस्तुत किया जा रहा है, तो यह इतिहास से नहीं, बल्कि वर्तमान राजनीतिक विमर्श से प्रेरित निर्णय प्रतीत होता है। किंतु अगर यह समकालीन ऐतिहासिक दृष्टिकोण को समावेशित करके एक बहुसांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य गढ़ने का प्रयास है, तो यह स्वागतयोग्य पहल हो सकती है। वास्तविक समाधान इन दोनों ध्रुवों के बीच संतुलन में है।
भारत की ऐतिहासिक चेतना को पुनर्जीवित करने के लिए आवश्यक है कि हम स्थानीय इतिहास, ग्रामीण सामाजिक संरचनाओं, आदिवासी परंपराओं, दक्षिण और उत्तर के सत्ता संघर्ष, स्त्री आंदोलन, जातिगत इतिहास और किसान संघर्षों को भी पाठ्यक्रम में लाएँ। साथ ही, विदेशी आक्रांताओं की भूमिका और प्रभाव को नकारा नहीं जाए, बल्कि तटस्थता और ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर उसका मूल्यांकन हो ।
भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में इतिहास लेखन एक सतत संवाद की प्रक्रिया होनी चाहिए, जिसमें राज्य, विद्वान, शिक्षक और छात्र सभी सक्रिय भागीदार बनें। पाठ्यक्रम का उद्देश्य ज्ञान के साथ-साथ आलोचना, बहस और संवाद को बढ़ावा देना होना चाहिए। जब पाठ्य पुस्तकें इस प्रकार तैयार की जाती हैं, तो वे केवल ज्ञान का माध्यम नहीं रहतीं, बल्कि एक सोचने-समझने वाले समाज का निर्माण करती हैं।
अतः आवश्यक यह नहीं है कि इतिहास में किसे हटाया या जोड़ा गया, बल्कि यह कि उसका चयन किस तर्क, उद्देश्य और प्रक्रिया के तहत हुआ। अगर प्रक्रिया पार्शी,
समावेशी और अकादमिक संवाद पर आधारित है, तो पाठ्यपुस्तकों में बदलाव समाज के लिए सकारात्मक दिशा तय कर सकते हैं। किंतु यदि बदलाव पूर्वाग्रह और एकांगी सोच पर आधारित हैं, तो यह शिक्षा के उद्देश्य और संविधान के मूल्यों के विरुद्ध जाएगा। भारत का इतिहास किसी एक धर्म, जाति या विचारधारा का नहीं, बल्कि सभी का साझा इतिहास है। उसे उसी बहुलता, विविधता और संवाद की भावना से पढ़ाया जाना चाहिए। यही भारतीय दृष्टिकोण का वास्तविक अर्थ है – समावेश, संतुलन और सत्य की खोज ।
