फागुन का आरम्भ होते ही बासंती पर्व होली की सुगबुगाहट होने लगती है। एक ओर दिनकर धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करते हैं तथा दक्षिणी गोलार्ध से प्रस्थान कर उत्तरी गोलार्ध की ओर बढ़ते हैं, तो दूसरी ओर गर्माहट बढ़ने के साथ ही सर्दी की जकड़न से उपजी निष्क्रियता को तोड़ने की इच्छा हर प्राणी में होने लगती है। इस जड़ता को समाप्त करने का साधन होली से उत्तम और क्या हो सकता है।
इसी कारण फाल्गुन माह के लगते ही मानव मन में उमंगों की हिलोर उठने लगती है तथा लोकगीतों और फाग-फगुआ के माध्यम से प्रस्फुटित होने लगती है। प्रकृति का मुरझाया कलेवर नूतन हरे पल्लवों तथा रंगबिरंगे पुष्पों के आगमन से बदलने लगता है, जो कि मधुमास अथवा बसंत के सांकेतिक आगमन का प्रतीक बन कर जनमानस के द्वार पर दस्तक देने लगता है।
प्रकृति के रंगीले रूप से सामंजस्य रखते हुए होली के पर्व को रंगों के पर्व से जोड़ा गया है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य के जीवन से जड़ता दूर होकर गत्यात्मकता का संचार होने लगता है, जो बिना
हेल-मेल और सामंजस्य के संभव नहीं है। जब बसंत में प्रकृति का नवनिर्माण हो सकता है तो मानवीय संबंधों में जान क्यों नहीं फूँकी जा सकती है। तभी तो होली को भूले-बिसरे रिश्तों को पुनर्जीवित करवाने वाला त्योहार भी कहते हैं। प्रकृति में हो रहे बहुरंगी परिवर्तन मानव के तनमन के लिए उत्प्रेरक का कार्य करते हैं।
एक कृषि प्रधान देश होने के कारण भारत में मनाये जाने वाले पर्व-त्योहार भी फसलों के आगमन से भी घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। रबी की फसल तैयार होकर अपने यौवन की पूर्णता प्राप्त कर किसानों के हृदय में अपूर्व उत्साह का संचार करती है। क्योंकि अच्छी फसल की आवक संपन्नता और सुनहरे सुखमय भविष्य की द्योतक है। इसलिए, भारतीय जनमानस प्रकृति के साथ-साथ कृत्रिम रंगों से भी खेल कर, गीत-संगीत के माध्यम से अपना उल्लास प्रकट करते हुए ईश्वर को आभार व्यक्त करता है।
फसल के साथ-साथ प्रत्येक पर्व प्रतीकों पर भी आधारित है और होली भी इसका अपवाद नहीं है। अतः होलिका दहन के रूप में मानव मन में बसी बुराईयों, कुण्ठाओं और विद्वेषों का दहन कर एक नई ऊर्जा के संचार को महसूस करता है, जो कि ढोल-थाप के साथ फाग गीतों के माध्यम से फूटती है और मनुष्य एक दूसरे को रंग लगा कर इक-दूजे के रंग में रँगने को आतुर दिखता है। इससे न केवल मन में बसी कटुता के भाव तिरोहित होते हैं अपितु रिश्तों में नई गर्माहट का संचार होता है तथा लोग गले मिल कर विद्वेषों को भुला कर नए रिश्तों की नींव रखते हैं।
आज जब हम वर्तमान परिस्थितियों का अवलोकन करें तो एक दृष्टि महानगरीय जीवन शैली पर भी डालना समीचीन होगा। आज बड़ी-बड़ी सोसायटीज या ऊँचे-ऊँचे आपर्टमेंट्स में कैद नागरिकों
की दिनचर्या की बात करें तो पायेंगे कि लोगों के बीच आपसी सामाजिक संपर्क लगभग समाप्त हो चुका है। लोग अपनी ही दुनिया में मस्त अथवा व्यस्त रहते हैं। आपसी संपर्क सुबह-शाम की सैर के समय अथवा अपार्टमेंट्स की लिफ्ट्स में आते-जाते समय नजरें मिल जाएं तो कुछ औपचारिक शब्दों का आदान-प्रदान तक ही सीमित रहता है।
ऐसे में साल भर में एक पर्व आता है होली का, जिसकी विशेषता ही यह है कि यह पर्व सामूहिक रूप से मनाया जाता है। भारत के कई अन्य पर्व लोग अपने घर में परिवारजनों के साथ मनाते हैं – जैसे दीपावली, रक्षाबंधन, या कुछ पर्वों में घर के साथ-साथ बाहर जाकर भी पूजा-अर्चना की जाती है जैसे नवरात्रि / दुर्गा पूजा, गणपति उत्सव या फिर शिवरात्रि, जिनमें लोग घर से बाहर तो जाते तो हैं पर आपसी मेलजोल से अधिक आराध्य के प्रति, उनकी पूजा के प्रति ध्यान रहता है जिसमें आध्यात्मिक और धार्मिक भाव की प्रधानता रहती है। इनके विपरीत होली एक ऐसा पर्व है जिसमें धार्मिकता का पुट एक सीमा तक होता है और सामूहिकता सिर चढ़ कर बोलती है। होली के एक दिन पहले होलिका दहन से लेकर जब तक होली मनाई जाती है तब तक हँसी-खुशी, मेलजोल तथा हुड़दंग का माहौल बना रहता है, जिसमें सब मिलजुल कर जोशोखरोश के साथ जाति, धर्म, उम्र आदि का भेद भूल कर हँसते-गाते और रंगों से खेलते हैं। जिस के तहत सारी औपचारिकताएं तिरोहित हो जाती हैं तथा आपसी संबंधों का विनिर्माण होता है। साथ ही होली पर बनने वाले पकवानों यथा गुझिया, पापड़ चिप्स तथा
भाँति-भाँति के नमकीन का बनना या आज के जमाने में बाजार से खरीद कर एक दूसरे को खिलाने से संबंधों में रस का संचार होता है, जो यह याद दिलाता है कि मानवीय संबंधों तथा सामाजिकता का अंत नहीं हुआ है। इन सबको जीवंत बनाये रखने में होली का बहुत बड़ा योगदान है और यही तथ्य होली की प्रासंगिकता को रेखांकित करता है।
होली की अग्रिम शुभकामनाएँ।