जनकवि चंद्रभूषण त्रिवेदी 'रमई काका' ने अवधी (बैसवाड़ी) में लिखित अपनी कविताओं के कारण अपार लोकप्रियता हासिल की। उन्होंने अवधी के सम्मानित कवि बलभद्र दीक्षित 'पढ़ीस' की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए सामाजिक कुरीतियों पर हास्य-व्यंग्य की रचनाओं के कारण समाज के विभिन्न स्तर के लोगों को समान रूप से प्रभावित किया। रमई काका की कविताओं ने उन लोगों पर भी अपना प्रभाव छोड़ा, जिनकी बोल-चाल की भाषा अवधी (बैसवाड़ी) नहीं है।
'धोखा' शीर्षक रचना उनकी हस्ताक्षर कविता मानी जाती है। इस रचना ने उन्हें अखिल भारतीय कीर्ति प्रदान की। एक भोले-भाले निपट ग्रामीण के पहली बार शहर जाने पर उसे कैसी अनुभूति होती है, कैसे-कैसे 'धोखे' होते हैं - इसका रोचक वर्णन रचना में है -
'हम गयेन याक दिन लखनउवै, / ककुआ संजोग अइस परिगा।
पहिलेहे पहिल हम सहरु दीख, / सो कहूँ कहूँ ध्वाखा होइगा।।'
चमक-दमक से आकर्षित होकर सोना के भ्रम में पीतल की जंजीर कैसे खरीदी; लखनऊ के अमीनाबाद में लम्बे-लम्बे बालों वाले 'क्लीन शेव्ड' पुरुष को देखकर 'मेम साहब सलाम' का संबोधन करने पर कैसे डाँट खानी पड़ी; दुकान के बाहर 'शो-केश' में सजी मिट्टी की मूर्ति को 'मालकिन' समझकर अभिवादन के प्रयास में कैसे धोखा हुआ; चुटीले अंदाज में इसकी मोहक प्रस्तुति इस कविता में की गयी है। पंक्तियाँ हैं -
हम गयेन अमीनाबादै जब, कुछु कपड़ा लेय बजाजा मा,
माटी कै सुघरि मेहरिया अस, जँह खड़ी रहै दरवाजा मा।
समुझा दुकान कै यह मलिकिनि, सो भाव-ताव पूछै लागेन।
याकै बोले यह मूरति है, हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा।।
चन्द्रभूषण त्रिवेदी का जन्म 2 फरवरी 1915 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के रावतपुर ग्राम में हुआ था। आप के पिता अंग्रेजी सेना में सिपाही थे, जो प्रथम विश्व युद्ध में शहीद हुए थे। चन्द्रभूषण की रुचि छात्र-जीवन से ही साहित्य-सृजन में थी। उत्तरोत्तर विकसित होकर इस साहित्यानुराग ने हास्य प्रधान नाटिकाओं, प्रहसनों तथा बैसवाड़ी भाषा में 'रमई काका' नाम से काव्य-सृजन कराया तथा उन्हें ख्याति प्रदान की। वे ३५ वर्षों तक आकाशवाणी लखनऊ से संबद्ध रहे। प्रहसन, रूपक, संवाद एवं कविताओं के माध्यम से उन्हें श्रोताओं की आत्मीयता मिली। रेडियो में उनके किरदार 'बहिरे बाबा' को पर्याप्त यश प्राप्त हुआ। अवधी भाषा तथा साहित्य के प्रति अप्रतिम अवदान के कारण उन्हें 'अवधी सम्राट' का सम्मान प्रदान किया गया। 18 अप्रैल 1982 को रमई काका का देहावसान हुआ।
रमई काका की प्रकाशित काव्य-कृतियाँ हैं - बौछार, भिनसार, नेताजी, फुहार, गुलछर्रा, हास्य के छींटे, माटी के मोल, रतौंधी, बहिरे बोधन बाबा आदि । 'बौछार' उनकी सर्वाधिक चर्चित काव्य-कृति है। ग्रामोफोन कम्पनी (एच.एम.वी.) के रिकार्डों के माध्यम से उनकी रचनाएँ अवधी अंचल में खूब लोकप्रिय हुईं।
ग्राम्य-चेतना, किसान के प्रति संवेदना तथा माटी के प्रति अनन्य अनुराग उनकी कविताओं में यत्र-तत्र परिलक्षित होता है। अवध का लोक-जीवन तथा ग्रामीण गतिविधियाँ उनकी कविताओं में मुखरित हैं। बड़ी ही भावप्रवण हैं 'धरती हमारि' शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ -
'हम अपनी छाती के बल ते, धरती मां फारु चलाइत है
माटी के नान्हे कन-कन मा, हमहीं सोना उपजाइत है
अपने चरनन की धूरि जहाँ, बाबा-दादा धरिगे हमारि।
धरती हमारि, धरती हमारि।।'
'बौछार' कृति के समर्पण में चंद्रभूषण त्रिवेदी लिखते हैं - "उस अन्नदाता को, जो सदियों से भूखा है; और जो अपनी छाती के बूते अपने हिस्से का रोटी- कपड़ा छीनने चल पड़ा है।" 'धरती हमारि' कविता में बुजुर्गों की धरती से अनुराग रखने वाले एक साधारण किसान के माध्यम से माटी के प्रति कवि की आत्मीयता मुखरित हुई है। जी-तोड़ मेहनत द्वारा खेतों में फावड़ा चलाकर कण-कण में सोना उत्पन्न करने की कृषक-निष्ठा इस प्रेम को पुष्ट करती है। इस लम्बे गीत की वे पंक्तियाँ अत्यन्त मार्मिक हैं, जहाँ किसान कहता है- 'हमारे तलवे घिस गए हैं, खून-पसीना एक हो गया है, परन्तु हम सर्दी-गर्मी वर्षा की परवाह किये बिना धरती मैया की सेवा में दिन-रात तपस्वियों के वेष में संलग्न रहना चाहते हैं' -
'हमरे तरवन कै खाल घिसी और रकतु पसीना एकु कीन।
धरती मय्या की सेवा मा हम तपसिन का अस भेसु कीन।।'
प्रख्यात आलोचक डॉ. राम विलास शर्मा ने 'बौछार' काव्य-कृति की भूमिका लिखी है। वे कहते हैं- "उनकी (रमई काका की) रचनाओं में एक विद्रोही कृषक का उदात्त स्वर है, जो समाज में अपने महत्त्वपूर्ण स्थान को पहचान रहा है और अपने अधिकार पाने के लिए कटिबद्ध हो गया है। 'धरती हमारि' इस कोटि की एक श्रेष्ठ रचना है। खेतों में किसान का निकट सम्पर्क, जाड़े और घाम में उसका विकट परिश्रम, पैदावार पर अधिकार पाने की भावनायें बड़े सुन्दर ढंग से व्यंजित हुई हैं।"
त्रिवेदीजी की कई कविताओं में खेती, किसान, खलिहान, पशु-पक्षी तथा प्रकृति के ग्रामीण बिम्ब बड़ी सहजता से व्यक्त हुए हैं। 'दानी किसान' कविता की चार पंक्तियाँ ध्यातव्य हैं - 'देखि त्यागु तुम्हार खेतिहर / सकल खेतन घेरि बादर / करत निज जीवनु निछावर। मोर कुहकत मीठि बानी। धन्नि-धन्नि किसान दानी ।।'
किसान के कठोर परिश्रम के फलस्वरूप उत्पन्न अनाज के प्रत्येक दाने की महिमा से वह सुपरिचित है। 'अन्न देउता' शीर्षक लम्बी कविता में एक गृहिणी अपने बेटे को समझाते हुए कहती है कि अन्न का कण-कण मूल्यवान है, इसके दानों को वह बिखेर कर नष्ट न करे। ये दाने तपस्वी किसान की कीर्ति के अक्षर हैं। इन्हीं अन्न कणों की बदौलत हमारी धरती सुन्दर-सुघर स्वरूप धारण करती है -
"तपसी किसान की कीरति के, ई दाना हैं अम्बर अक्षर।
होइ जाति बदौलति इनहिन के, धरती हरियरि सुनहरी सुघर।।'
बिखरे हुए एक-एक दाने को बटोर कर सँजोने तथा उनके प्रति श्रद्धा-भाव रखने का परामर्श देते हुए माता बेटे से कहती है कि ये दाने लक्ष्मी का प्रसाद हैं, इनसे भूखे व्यक्ति की क्षुधा शान्त होती है, इन अन्न कणों को प्राप्त करने के लिए गरीबों को भिक्षाटन करना पड़ता है, इन्हीं के अभाव में बंगाल में अकाल की चपेट में असंख्य लोगों को काल-कवलित होना पड़ा था। हृदयस्पर्शी हैं ये पंक्तियाँ -
'मूठी भरि छिरके दाना ई / बिनि लाव पूत तुम बोरिया मां।
ना जानै कबधौं जाय परै / ई कहि की भूखी झोरिया मां
ई दानन के हित हाथ पसारैं / दीन-दुखी धरि अजब भेसु।
येई दानन के कारन ते / भूखन मरिगा बंगाल देसु।।'
आगे की पंक्तियाँ हैं - 'परसादु लच्छिमीजी का यहु / सपनेउ मइहां निदराव न तुम। / कहि रही घरैतिन मुनुवां ते / ऐ पूत अन्न बिखराव न तुम।।'
'कचेहरी' शीर्षक लम्बी कविता में जिला कचहरी के परिदृश्य का विनोदपूरित शैली में प्रभावी अंकन किया गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में मुकदमेबाजी का प्रकोप कैसे भोले-भोले ग्रामीणों को पीड़ित प्रताड़ित करता रहता है, इसका यथातथ्य चित्रण, रचना में किया गया है। गाँव से जिला कचहरी तक जाने के क्रम में 'रेल यात्रा' की बानगी -
जब आई रेल बरेली से, पहिले घुसि गयेन जनाना मा
फिरि सबै मेहरिया भकुरि उठीं, हम भागेन दूसरे खाना मा
यह याक टेम कै गाड़ी है, खिरकिन मा हिलगे बड़े-बड़े
जइसे तइसे घुसि गयेन, मुला हमहूँ का बीता खड़े-खड़े।।'
रचना में मुहावरेदानी की अद्भुत छटा यत्र-तत्र परिलक्षित तो होती ही है, बैसवाड़ी के ठेठ शब्दों का प्रयोग पंक्तियों की अर्थच्छटा को द्विगुणित कर देता है -
'हम हरि भजनन का गये रही, वाटै का मिला कपासु मुला'
'जेतने के कीन्ही भगति नहीं, वतने कै खँझरी फारि लीन'
'बौछार' कृति के आरम्भ में 'परिचय' शीर्षक प्रस्तावना में हिन्दी के मूर्द्धन्य समीक्षक डॉ. भगीरथ मिश्र लिखते हैं 'यह कविता की रसमयी बूँदों की बौछार है। यह नाशक नहीं, पोषक है। इससे समाज का सुख और आनन्द पनपता है, किन्तु साथ ही आलस्य, कुविचार, व्यसन आदि पीले और श्लथ पत्तों की भाँति गिरकर अपने विनाश में कोमल कोंपल एवं नवीन किसलयों, सुरभित कुसुमों के विकास का वरदान देते हैं।' रमई काका की रचना 'बुढ़ऊ का बियाहु' अवध-अंचल के जन-जन की ज़बान पर है। वृद्धावस्था में विवाह करने की ललक जैसी सामाजिक कुरीति पर हास्य की बौछार के साथ मारक प्रहार इस लम्बी कविता में है। 'जब पचपन के घर घाट भयेन तब देखुआ आए बड़े-बड़े' से आरम्भ हुई रचना, विवाह हेतु सजते-सँवरते अधेड़ दूल्हे तक पहुँचकर विनोद-मुद्रा में आ जाती है -
'म्वाछन का जरते छोलि-छोलि, देहीं के रवावां झारि दीन।
भउँहन की क्वारैं साफ भईं, मूड़े मा पालिस कारि कीन।।'
अपने को 'छैल चिकनिया बाबू' बनाने की (कु) चेष्टा में इस 'वर' की कैसी दुर्गति हुई, इसका रोचक वर्णन आनन्दित करता है। 1942-43 के कालखण्ड की यह रचना तत्कालीन समय और समाज में व्याप्त इस कुरीति पर प्रहार तो करती ही है, कवि के सामाजिक दायित्व बोध को भी रेखांकित करती है। वे कहते भी हैं - 'जब जनता के विचारों में कुछ परिवर्तन एवं क्रान्ति कराने की आवश्यकता होती है तो लोकभाषा का ही आश्रय लेना पड़ता है।'
'बौछार' के प्राक्कथन में कवि लिखता है 'आज जबकि सरस्वती ग्रामवासियों की पूजा के लिए अपना युग-मंदिर स्थापित करना चाहती है, तो खेत-खलिहान की भाषा में अपने विचार प्रकट करना अनुपयुक्त नहीं है। जब हम गाँवों का उद्धार करना चाहते हैं; हल, बैल, किसान और मजदूर जब हमारी लेखनी के विषय हो चले हैं, तो हमें वहाँ की धूल में सने हुए शब्दों को अपनाकर उनका भी उद्धार करना होगा। लोक-भाषाओं के ऐसे बहुत से बहुमूल्य शब्द रत्न हैं, जिन्हें हिन्दी में मिला लेने से खड़ी बोली समृद्ध हो जायेगी।' आज आधुनिकता के नाम पर कृत्रिमता के आवरण तले लोक भाषा, लोक-संस्कृति, लोक-गीत तथा लोक-साहित्य की अवहेलना की जो परिपाटी चल पड़ी है, ऐसे में लोक जीवन से जुड़े रचनाकारों-कलाकारों का स्मरण हमारी भाषा-संस्कृति तथा हमारे साहित्य-समाज के लिए आवश्यक है।