स्मृति की सुगंध से सुवासित सृजन - संकल्प

"तुम चले जाओगे, यादों की कड़ी रह जायेगी।
देर तक आंखों में, अश्कों की लड़ी रह जायेगी।"

आत्मीय एवं श्रद्धेयजनों का वियोग, वेदना - व्यथित करे, आँखों को नम कर दे ---- यह स्वाभाविक है। परन्तु आँसुओं की लड़ी मुक्ता - माल के रूप में गुँथकर दिवंगत के प्रति श्रद्धाज्ञापन का रचनात्मक हेतु बन जाय, यह स्तुत्य एवं प्रशंसनीय है।

स्वर्गीया भाभी (श्रीमती शशि त्रिपाठी) की स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए उनके सुपुत्र - सुपुत्री के मन में "जनमैत्री" पत्रिका प्रकाशन के संकल्प को मैं इसी रूप में देखता हूँ। चि. अमित (सुशील) एवं पल्लवी (रोली) के इस शुभ - संकल्प में सहयोगी बने हैं प्रियवर नितिन अवस्थी एवं स्नेहभाजन प्रदीप शुक्ल। पारिवारिक संबंधों के कारण इनको भाभीजी का नैकट्य एवं स्नेह - सद्भाव सहज - सुलभ रहा है। भाभीजी की सदाशयता और आत्मीयता से केवल परिवार ही नहीं, सगे - संबंधी एवं निकटजन भी प्रभावित रहे हैं। कोलकाता में रहते हुए मुझे भी उनका सान्निध्य - सौहार्द दीर्घकाल तक मिला है। वार्तालाप की उनकी अनुराग - रंजित शैली के सभी कायल रहे हैं। मेरे लिए तो उनसे 'वाद - विवाद - संवाद' करना सदैव रोचक होता था। उनकी स्मृति यदा - कदा - सर्वदा आया करती है।

इसलिए जब प्रदीप शुक्ल एवं अमित (सुशील) ने "शशि स्मृति फाउण्डेशन" के अन्तर्गत पत्रिका प्रकाशन के संकल्प की चर्चा की तो असीम आनंद की अनुभूति हुई। इस बात का गौरव - बोध भी हुआ कि भाग - दौड़ भरे आज के इस जीवन में बच्चे अपनी स्नेहमयी माता की स्मृति न केवल संजोए हुए हैं, बल्कि उसे अक्षुण्ण रखने के लिए सजग - सचेत भी हैं।

सामान्यत: विशिष्ट विभूतियों एवं सार्वजनिक क्षेत्र के समर्पित सेवा - साधकों की स्मृति को चिरस्थायी रखने के लिए अनेक प्रकार के आयोजनों की परम्परा से हम सुपरिचित हैं। इसी क्रम में आत्मीयजनों एवं परिवार के दिवंगत सदस्यों के प्रति श्रद्धा - भाव से अपनी सामर्थ्य के अनुरूप छोटे - बड़े धार्मिक - सामाजिक प्रकल्पों का संयोजन - संचालन भी समाज में प्रचलित है। परन्तु स्मृति - संरक्षण योजना के अन्तर्गत पत्रिका प्रकाशन का निर्णय विरल और अनुपम है। "जनमैत्री" के प्रथम अंक (प्रवेशांक) के प्रकाशन - पर्व पर आप सबका हार्दिक वंदन - अभिनंदन करते हुए मुझे विशेष प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।

हमारे वृहत्तर परिवार, इसके संबंधी तथा इससे जुड़े निकटजनों को यह सौभाग्य प्राप्त है कि प्राय: सभी में साहित्य के प्रति लगाव और सृजन के प्रति निष्ठा है। अपनी इसी पीढ़ी में कई रचनाकारों ने अपनी लेखन - सक्रियता से समाज में स्थान बनाया है। कई अनवरत रचनाशील हैं। यह पत्रिका उनकी रचनाओं से निश्चित रूप से समृद्ध होगी।

अपने परिवृत्त में ऐसे कई सदस्य हैं, जिनमें लेखन - प्रतिभा तो है परन्तु संकोचवश वे या तो लिखते नहीं है; या लिखते भी हैं तो उसे प्रकाश में लाना नहीं चाहते। पत्रिका का यह मंच उनकी छिपी प्रतिभा को प्रकाश में लाने का हेतु बने, यह कामना है। हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्तियों के माध्यम से संभावना से पूरित कलमकारों के प्रति आह्वान करना चाहता हूँ -

कलम अपनी साध,
और मन की बात बिलकुल ठीक कह एकाध।
यह कि तेरी - भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।

हार्दिक मंगलकामनाएँ।

डॉ. प्रेमशंकर त्रिपाठी