सीय स्वयंबरु देखिअ जाई

डॉ. लक्ष्मी शंकर त्रिपाठी
कानपुर

आज मिथिला नगरी निहाल हुई जा रही है। नगर के प्रत्येक घरों, वीथियों, राजमार्गों, संपर्क मार्गों में भांति-भांति के अति सुंदर तोरण, बंदनवार, आम्र पत्र, कदली स्तंभ और मंगल कलश शोभायमान हो रहे हैं। विभिन्न रंगों से उकेरी गई आकर्षक रंगोली मन मोह रही है। हो भी न क्यों—-आज उस ‘राजकन्या ‘का स्वयंवर है जिसने प्राकृतिक आपदा के सबसे भयंकर प्रकोप— वर्षों से ‘अनावृष्टि’ के कारण पीड़ित मिथिला राज्य को सीत (हल का अग्रभाग) के प्रहार से भूमिष्ठ घड़े से “भूमिजा” रूप में प्रगट हो कर “अमृतमय वृष्टि” का उपहार दिया था। प्रजावत्सल विदेहराज महाराज जनक के अपनाने से वही कन्या — सीता, वैदेही, जानकी, जनकनंदिनी, मैथिली, मिथिलेश कुमारी आदि नामों से जानी गई।

धर्मज्ञ, ब्रह्मज्ञ, परमज्ञानी, धर्मपरायण, ब्रह्मवेत्ता विदेहराज के अभिभावकत्व में मैथिली भी धर्म, ज्ञान, शास्त्र में पारंगत हो गई। साहित्य, संगीत, कला, ज्ञान, विज्ञान से समृद्ध मिथिला राज्य की राज्य-सभा सुशोभित हो रही थी इन विधाओं के आचार्यों से। देश देशान्तर के विद्वानों के आगमन और उनके संवाद से सभा की सारगर्भित चर्चा में यदा कदा जानकी की भागीदारी से उनकी वक्तृता, बुद्धिमत्ता, प्रत्युत्पन्नमति तथा गूढ़ ज्ञान की समझ ने जनक सहित सभी को प्रभावित ही नहीं आश्चर्यचकित कर दिया था।

सुंदरतम से भी अति सुंदर तथा अति सुकुमारी जानकी ने जब “महान शिव धनुष “उठा लिया था तब अचंभित विदेहराज ने प्रण किया था इसी धनुष को जो वीर प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसी से जानकी का ‘पाणिग्रहण’ किया जाएगा। उनके अनुसार ‘सदाशिव की भक्ति’ से ज्ञानप्राप्त और ‘शिव धनुष पर प्रत्यंचा’

चढ़ा देने वाला महावीर ही जानकी के लिये उपयुक्त वर होगा। आज की यह हलचल उसी घोषणा के अनुसार ही ‘सिया स्वयंवर’ का दिन है जिसमें भाग लेने हेतु देश-देशांतर के अनेकानेक राजा, युवराज और राजकुमार पधारे हैं।

महाराज जनक के निर्देशानुसार उनके व्यवस्थापटु अमात्यों तथा राज्य कर्मचारियों ने इस महत आयोजन को अविस्मरणीय बनाने हेतु उत्कृष्ट व्यवस्था की है। अमरावती को भी लजाने वाले साज-सज्जा और चित्ताकर्षक सजावट से राजमहल तथा उसके सामने का विशाल प्रांगण आगंतुकों को मोहित कर रहा है। स्वयंवर स्थल के बीचोबीच ‘महान शिव धनुष’ रखा गया है।

विदेहराज के सिंहासन के एक ओर मंत्रिपरिषद दूसरी ओर राज्य के श्रेष्ठ जनों के आसीन होने की समुचित एवं यथोचित व्यवस्था की गई है। स्वयंवर हेतु पधारे प्रतिभागियों हेतु उत्तम व्यवस्था उन्हें प्रसन्न कर रही है। मिथिला प्रजाजन अपनी प्रिय, दुलारी और सम्माननीय राजकुमारी सीता का स्वयंवर भलीभाँति देख सकें इसका भी पूरा ध्यान रखा गया है। विशेष रूप से आमंत्रित ऋषियों, मुनियों, ऋत्विजों, साधुओं, सन्यासियों तथा विभिन्न क्षेत्रों के विशिष्ट विद्वानों हेतु यथोचित व्यवस्था की गई है।

बंदीजनों की घोषणा होती है—मिथिला नरेश पधार रहे हैं। विभिन्न वाद्यों की कर्णप्रिय ध्वनि तथा स्वस्तिवाचन के बीच महाराज जनक अपनी पटरानी सुनयना के साथ आते हैं। उनके सम्मान में खड़े सभी को प्रणाम कर उन्हें आसन ग्रहण का आग्रह कर सिंहासनारूढ़ होते हैं। पुनः बंदीजनों ने राजकुमारी जानकी के पधारने की घोषणा की। विभिन्न वाद्यों की ध्वनि तथा स्वस्तिवाचन के बीच राजकुमारी सीता अन्य राजकुमारियों तथा सखियों के साथ मंडप में प्रवेश करती हैं। सीता भी सभी को प्रणाम करते हुए उनके लिये निर्धारित स्थान पर आसीन होती हैं। सुंदरता के सभी उत्कृष्ट विशेषणों की संयुक्त सीमा भी जिसकी सुंदरता से लजाए ऐसी है जानकी की सुंदरता।

प्रतिभागी गण कभी शिव धनुष कभी जानकी को देख कर मन ही मन निज बल, शक्ति और सामर्थ्य का आकलन करते हैं। एकत्र प्रजाजनों में प्रतिभागियों को देखकर धीमें स्वर में चर्चा हो रही है—–क्या इनमें कोई जानकी योग्य अनुकूल पात्र है। वाणी नहीं संकेत से ही उनकी भावना का प्रकटीकरण हो जाता है। विगत दिवस जिन नयनों ने अयोध्या के राजकुमारों विशेषकर ज्येष्ठ दशरथ नन्दन राम का दर्शन किया है या उनके स्वरूप, गुण, उपलब्धि एवं शील की चर्चा भी सुनी है उन्हें जानकी योग्य अन्य कोई जंच ही नहीं रहा है। सभी उत्सुकता से विशिष्ट अतिथि मुनि विश्वामित्र के पधारने की प्रतीक्षा कर रहे हैं जिनके साथ होंगे कुमार राम और लखनलाल।

सहसा कुछ हलचल हुई, महाराज जनक अपने सिंहासन से उठ कर प्रवेश द्वार की ओर अमात्यों सहित बढ़े। शतानन्द के साथ मुनि विश्वामित्र तथा पीछे दोनों कुमार आ रहे हैं। विदेहराज आगे बढ़ कर मुनि विश्वामित्र का स्वागत करते हुए उन्हें सर्वोच्च मञ्च तक ले जा कर आसन ग्रहण हेतु निवेदन करते हैं। दोनों राजकुमारों को देखते ही प्रजाजन तुमुल हर्ष ध्वनि करते हुए धन्य हुए जा रहे हैं। विदेहराज ने दोनों कुमारों को मुनि विश्वामित्र के समीप ही आसन दिया।

मिथिला के राजपुरोहित ऋषि गौतम पुत्र अहिल्या नन्दन शतानन्द ने ही सर्वप्रथम मुनि विश्वामित्र और दोनों राजकुमारों से उनके जनकपुर आगमन पर भेंट की थी। उन्हीं की सूचना पर मिथिलेश ने आगंतुकों से भेंट कर इस स्वयंवर में विशिष्ट अतिथि के रूप में पधारने का निवेदन किया था। ज्येष्ठ दशरथ नंदन कुमार राम द्वारा उनकी माता अहिल्या के उद्धार से वे अति भावविह्वल, पुलकित एवं आनंदित थे। कृतज्ञ भाव और अश्रुपूरित नयनों से वे कुमार राम को अपलक निहार कर गदगद हुए जा रहे थे।

आकर्षक व्यक्तित्व प्रभावित करता है एवं सुकृत्य वंदनीय बनाता है —और हो भी न क्यों। जड़वत, परम एकाकी, प्रस्तर मूर्ति, अभिशप्त देवी अहिल्या का जिन्होंने उद्धार किया—ताड़का, सुबाहु तथा अन्य उत्पाती राक्षसों का वध कर पूरे क्षेत्र को राक्षसी आतंक से मुक्ति दिलाई —ऐसे कुमार राम मिथिला वासियों के लिये अभिनंदनीय होंगे ही। कुमार राम की उपस्थिति से मिथिला वासियों को आनंद तो हो रहा था किन्तु इस स्वयंवर में वे विशेष आमंत्रित अतिथि थे प्रतिभागी नहीं—ऐसी चर्चा से चिंतित भी हो रहे थे।

राम का स्वरूप और उनके सत्कार्य तथा मिथिला वासियों द्वारा उनके प्रति दर्शाए गए मुखर आदर से प्रतिभागियों में भय, ईर्ष्या, लज्जा, अवसाद की भावना बलवती होने लगी। उन्हें इतना ही संतोष था कि ये तो विशिष्ट अतिथि हैं, प्रतिभागी नहीं। प्रतिभागियों में से कुछ ऐसे भी थे जो कुमार राम को श्रद्धापूर्वक देखकर भाव विभोर हो रहे थे।

मिथिला नरेश ने मुनि विश्वामित्र तथा राज-पुरोहित शतानंद से अनुमति प्राप्त कर बंदीजनों को संकेत किया – इस आयोजन के शुभारंभ का। बंदीजनों ने विस्तार से मिथिला राज्य, मिथिला नरेश के गुणगान के पश्चात शिव धनुष तथा विदेहराज के प्रण का उल्लेख करते हुए प्रतिभागियों को आमंत्रित किया।

विभिन्न रंगों और शारीरिक सौष्ठव के देश देशांतर से पधारे प्रतिभागी अपने अपने देश-प्रदेश की विशिष्ट वेश-भूषा में सज-धज कर इस आयोजन में पधारे थे। बंदीजनों के आह्वान से उनमें हलचल हुई। पहले प्रतिभागी ने अपने समाज की उत्साहित करने वाली गर्जना के साथ ही प्रस्थान किया। अपने बल के अहंकार में पहले एक हाथ फिर दोनों हाथों से प्रयास किए। निष्फल होने पर पुनः पुनः प्रयास भी जब सफलीभूत न हुआ, निराश हो कर अपने स्थान पर आ बैठे। एक-एक कर लगभग सभी प्रतिभागी ऐसे ही उठे और वापस अपने स्थान पर लौट आए। कुछ ने ऐसी उपहास की स्थिति न हो सोच कर प्रयास ही नहीं किया।

विदेहराज ने जब देखा कि कोई प्रतिभागी महान शिव धनुष को हिला भी न पाया तो अत्यंत आक्रोश में आकर सभी प्रतिभागियों से अपने-अपने देश वापस जाने को कहा। उन्होंने अपनी वेदना व्यक्त करते हुए कठोर शब्दों में कहा—‘यदि मैं ऐसी स्थिति की कल्पना भी कर पाता तो कभी ऐसा प्रण न करता, मेरी पुत्री का विवाह कैसे हो पाएगा–मुझे तो लगता है यह पृथ्वी वीरों से विहीन हो गई है—-क्या कोई भी वीर नहीं है जो मेरे प्रण को सफल कर सके’। विदेहराज को इतना विह्वल देखकर सभी भावुक हो गए। रनिवास से लेकर प्रजाजन को अपने धीर, गंभीर, विवेकी महाराज की वेदना अपनी वेदना सी लगी।

किन्तु कुमार लखनलाल विदेहराज की ‘वीर विहीन’ उक्ति सुन कर तिलमिला उठे। अपने को संयत करते हुए सहसा खड़े हो कर लगभग ललकारते हुए विदेहराज को उनकी उक्ति का विरोध करते हुए कहा—-‘महाराज का कथ्य अनुचित है, रघुवंशियों के उपस्थित रहते यह सर्वथा अनुचित है–यहां रघुवंश शिरोमणि कुमार राम की उपस्थिति में तो यह और भी अनुचित है’। गुरुवर वशिष्ठ से शिक्षा प्राप्त अस्त्र शस्त्र की विभिन्न विधाओं में निष्णात कुमार राम विशेषकर धनुर्विद्या के सभी आयामों में पारंगत हैं। गुरु विश्वामित्र के आह्वान पर उनकी यज्ञ साधना में विघ्न डालने वाले राक्षसों का वध कर सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का परिचय दे ही दिया है। सभा लखनलाल के आक्रोश भरे वचनों को सुनकर सन्न रह गई। मिथिला के प्रजाजन कुमार राम की उपलब्धि का वर्णन सुन प्रसन्न हो कर सहमत भी हुए। गम्भीर बैठे कुमार राम ने अपने अनुज को शान्त होने तथा स्थान ग्रहण का संकेत किया।

विशेष परिस्थिति का संज्ञान लेते हुए अभी तक शान्त भाव से विराजमान मुनि विश्वामित्र खड़े हुए। उन्होंने सर्वप्रथम मिथिला राज्य के वैभव, संस्कृति, परंपरा का वर्णन करते हुए आज के आयोजन की भव्यता, दिव्यता तथा व्यवस्था की भरपूर प्रशंसा की। आमंत्रित प्रतिभागियों को सांत्वना के साथ-साथ प्रोत्साहित भी किया। विदेहराज को सम्बोधित करते हुए उनके ज्ञान, प्रजाप्रेम, शिवभक्ति की चर्चा करते हुए उनके इस प्रण को उचित ठहराते हुए आमंत्रित प्रतिभागियों के निष्फल होने पर व्यक्त आक्रोश को भी स्वतःस्फूर्त भाव प्रगटीकरण कहा। शास्त्रीय सिद्धान्तों के अनुसार असमंजस की स्थिति में राजा के लिए गुरु, मंत्रि गण, विद्वानों तथा प्रजाजनों की राय महत्वपूर्ण हो जाती है। वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए यह स्पष्ट है कि आमंत्रित प्रतिभागीगण ‘महान शिव धनुष’ पर प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर, हिला भी न सके। ‘राजकन्या जानकी’ के विवाह के लिये ही तो यह आयोजन हुआ है, यदि आमंत्रित प्रतिभागी असफल हुए हैं और विदेहराज की आक्रोशित उक्ति के पश्चात कुमार लक्ष्मण ने जिनकी उपस्थिति का संज्ञान दिलाया है तो उन्हें भी एक अवसर दिया जा सकता है क्योंकि यह प्रण अब आमंत्रित प्रतिभागियों की असफलता के पश्चात सार्वजनिक हो गया है। यह मंतव्य यदि समीचीन लगे एवं आपकी सहमति हो तभी मैं अपने शिष्य कुमार राम को आदेश दूंगा। मुनि विश्वामित्र अपने वक्तव्य की समाप्ति पर आसन ग्रहण करने हेतु उद्द्यत ही हुए थे तभी समवेत स्वरों में गुरुजनों, मंत्रीगणों, विद्वानों, ऋषियों तथा प्रजाजनों नें इस प्रस्ताव पर पूर्ण समर्थन व्यक्त किया। राजपुरोहित शतानन्द के माध्यम से विदेहराज भी सहमत हुए। अब सभी अपलक कुमार राम की ओर आशा, विश्वास, उत्कंठा से निहारने लगे। सबकी मुखर सहमति से आश्वस्त मुनि विश्वामित्र ने अत्यंत स्नेह, आदर और विश्वास से कुमार राम को महाराज जनक के संताप को दूर करने का आदेश दिया। सभी ने तुमुल हर्षध्वनि से इस घोषणा का स्वागत किया।

इस पूरे घटनाक्रम में कुमार राम शांत, धीर, गम्भीर ही बैठे थे। गुरुवर विश्वामित्र के आदेश पर सहज भाव से उठकर उनसे शुभाशीष ग्रहण करने के पश्चात अतिथि वृन्द को प्रणाम कर सहज भाव से ही उस विशिष्ट स्थल की ओर बढ़े जहां उनके आराध्य शिव शंकर का धनुष रखा है। आगे बढ़ते हुए उन्होंने विदेहराज सहित पूरे सभा मण्डप में विराजित सभी को आदर सहित प्रणाम किया। कुमार राम प्रसन्न-मुख, शान्त चित्त, सहज गति से मन ही मन अपने आराध्य सदाशिव का ध्यान एवं वंदन करते आगे बढ़ रहे थे। मिथिला प्रजाजन उल्लसित, प्रतिभागी गण आशंकित, ऋषि एवं विद्वत गण आशान्वित, रनिवास की देवियां मुदित हो कर कुमार राम को निहार रहे थे। महारानी सुनयना द्वारा शिव धनुष की विशालता और कुमार राम की सुकोमलता विचार कर संशय प्रकट करने पर सखियों ने विभिन्न उदाहरणों से उन्हें आश्वस्त किया। राजकुमारी जानकी भी मन ही मन गणपति गणेश, माता गौरी एवं सदाशिव की आराधना करने लगीं।  कुमार राम इस बीच शिव धनुष के और निकट आ गए। अभी धीर गति से चल रहे कुमार राम ने कुछ तेज गति से शिव धनुष की परिक्रमा प्रारंभ की।

कुमार राम के इस गति परिवर्तन से उल्लसित लखनलाल ने हुंकार भरी—-सावधान हो जाओ दिशि कुंजरों– सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को भली भांति साधे रखिये -रघुवंश शिरोमणि, कौशल्या सुवन, दशरथ नंदन, गुरुवर वशिष्ठ एवं गुरुवर विश्वामित्र के सुयोग्य शिष्य कुमार राम अपने आराध्य सदाशिव के धनुष के समीप आ गए हैं, किसी भी क्षण सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की अद्भुत, अलौकिक एवं अद्वितीय घटना घटने वाली है। अपने बाएं चरण से पृथ्वी को पूरी शक्ति से दबाए लखनलाल उच्च स्वर से ‘जय श्री राम’ का उद्घोष करने लगे, उनके साथ-साथ मिथिला प्रजाजन भी उत्साहित हो कर जय-जय कार करने लगे। ऋषि गण स्वस्ति वाचन करने लगे। कुमार राम इधर परिक्रमा कर रहे थे। शनैः शनैः परिक्रमा बढ़ती जा रही थी और उनकी गति तीव्र से तीव्रतर होती जा रही थी। गति की तीव्रता के बीच ही कुमार ने सहसा अपने बाएं कर से शिव धनुष को उठाया और प्रत्यंचा चढ़ाने हेतु दाहिने कर से दबाव दिया ही था कि विशाल शिव धनुष मध्य से टूट कर दो खंड हो गया। घोर निनाद एवं विद्युत सी चमक के कारण उपस्थित सभी जनों नें अपने नेत्र एवं कान बन्द कर लिये थे। कुमार राम ने उक्त प्रक्रिया इतनी शीघ्रता एवं चपलता से की कि किसी को कुछ भी नहीं दिखा। नाद शान्त होने पर ही लोगों ने देखा विशाल शिव धनुष दो खण्डों में और उसके समीप खड़े –मुस्कुराते हुए कुमार राम। लखनलाल हर्षातिरेक से दौड़ते हुए कुमार राम के समीप जा कर दंडवत प्रणाम करते हैं। राम ने सस्नेह अपने अनुज को दोनों हाथों से उठा कर हृदय से लगा लिया। दोनों भ्राताओं ने उपस्थित सभी को प्रणाम किया।

मिथिला वासियों के आनंद का तो कोई पारावार ही नहीं। परस्पर गले लग कर एक दूसरे को अति भावुक हो कर बधाई देने लगे, न्यौछावर की तो कोई सीमा ही नहीं। महारानी सुनयना ने भाव विभोर हो जानकी को आलिंगन में ले लिया। महाराज जनक अति हर्षित हो राजपुरोहित शतानन्द के साथ जा कर मुनि विश्वामित्र को अश्रुपूरित नयनों से प्रणाम करते हैं।

शतानन्द के निर्देशानुसार जानकी अन्य राजकुमारियों एवं सखियों के साथ ‘जयमाल’ ले कर स्वयंवर विजेता कुमार राम की ओर प्रस्थान करती हैं। विभिन्न वाद्य यंत्रों यथा शंख, ढोल, तुरही, नगाड़े, झांझ आदि की कर्ण प्रिय ध्वनि, वेद मंत्र ध्वनि, ऋषियों के सामूहिक स्वस्तिवाचन, सखियों के मंगल गान, मिथिला वासियों की जय-जय कार तथा पुष्प वर्षा के बीच “सिय जयमाल राम उर मेली”। इस नयनाभिराम दृश्य से सभी आनंदित हो रहे हैं।

“सोहति सीय-राम छबि कैसे,
छबिगन मध्य महाछबि जैसे।”