प्रो.(डॉ.) रश्मि प्रियदर्शनी
गया
यह जीवन सुख-दुःख के समन्वयन से निर्मित है। सुख जीवन की वह अवस्था है, जब हम सब कुछ अपने मन के अनुसार होता हुआ पाते हैं, जबकि दुःख वह अवस्था है, जब परिस्थितियाँ हमारे मन के प्रतिकूल होती हैं। समय की गतिशीलता के कारण कभी हमारा साक्षात्कार सुख से होता है, तो कभी दुःख से; कभी हमारा सामना अश्रुओं से होता है, तो कभी हमारा मिलन मुस्कुराहटों से होता है। कभी लगने लगता है कि इस धरती से अधिक सुंदर स्थान कहीं नहीं होगा, तो दूसरे ही पल, जब हम अपने आस-पास घटित हो रहीं परिस्थितियों को अपने मन के अनुरूप नहीं पाते, तो फिर यही संसार हमें नर्क की समान नज़र आने लगता है।
सच कहा जाये, तो सुख और दुःख दोनों ही हमारे अपने हैं। सुख भी अपना; और दुख भी। अतएव, हमें दोनों अवस्थाओं को अपनी नियति समझ कर सन्यासियों की भाँति सहज रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए। स्वीकार करने के अलावा हमारे पास दूसरा कोई विकल्प भी तो नहीं होता। न तो हम अपने सुख को नकार सकते हैं, न ही दुःखों को। न हम अंधकार को झुठला सकते हैं और न ही प्रकाश को। दोनों ही इस संसार के परम सत्य हैं। कोई एक ऐसी अद्वितीय-अदृश्य शक्ति है, जो इस संसार में हम सबकी नियति को संचालित कर रही है। सुख-दुःख उसी नियति के दो पहलू हैं।
इस संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक जीव की अपनी एक नियति है। प्रत्येक जीव अपनी नियति के कारण ही धरती पर जन्म लेता है एवं उसके कारण ही मृत्यु को प्राप्त भी हो जाता है। नियति तो निर्जीव तत्वों की भी होती है। नदी की जलधारा के साथ बहने वाले रेत के कण भी कभी सजीव रहे होंगे। साथ ही, जो आज सजीव हैं, वे संभवतया कल निर्जीव रह चुके होंगे एवं आने वाले समय में निर्जीव तत्वों से एकाकार हो चुके होंगे।
इस दृष्टि से नियति को हम परिवर्तन का पर्याय बतायें, तो गलत नहीं होगा। बिना किसी लक्ष्य अथवा उद्देश्य के स्वाभाविक रूप से होते रहने वाला परिवर्तन ही इस संसार की वास्तविक नियति है। सजीव हो या निर्जीव, सबकी अपनी-अपनी नियतियाँ हैं। शनैः शनैः सभी इस परिवर्तन रूपी नियति के साक्षी ही तो बनते जा रहे हैं। इस नियति का उद्देश्य किसी सफलता अथवा उपलब्धि की प्राप्ति नहीं होकर, परिवर्तन को अपरिवर्तनीय बनाये रखना है। एक परिवर्तन ही है, जो परिवर्तन से परे है। परिवर्तन कभी सुखदायी होता है, तो कभी दुःखदायी। हमें दोनों प्रकार के परिवर्तनों को अनिवार्य रूप से स्वीकार कर लेने के लिए तैयार रहना चाहिए।
बचपन के उपरांत यौवन, यौवनोपरांत प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था का आना तय है। जिसने जन्म लिया है, उसे एक न एक दिन जीवन का त्याग करना ही है। ये बातें कहने-सुनने में बड़ी सरल प्रतीत होती हैं, किंतु, जब हम इस कटु सत्य पर गहनता से विचार करते हैं, तो हमें अपने जीवन और इस संसार की निस्सारता का बोध होने लगता है। चंद्रमा और सूर्य तो इस सत्य को उद्घाटित करने वाले सबसे विश्वसनीय माध्यम हैं। प्रातः काल में उदित होता सूर्य शाम में डूबता हुआ प्रतीत होता है। चंद्रमा की रौशनी दिन के चकाचौंध कर डालने वाले प्रकाश में खो जाती है, वही रौशनी रात्रि के समय सारे जग को आभामंडित कर जाती है। पूर्णिमा के चाँद का अमावस का चाँद बन जाना तथा अमावस के चाँद का पूर्णिमा के चाँद में बदल जाना ही चंद्रमा की नियति है। वास्तव में, इस तरह के परिवर्तन का कोई उद्देश्य होता ही नहीं। परिवर्तन का एक ही उद्देश्य है परिवर्तन को अपरिवर्तनशील बनाये रहना। इस सृष्टि में सब कुछ धीरे-धीरे परिवर्तित हो रहा है। आश्चर्य की बात यह है कि परिवर्तन के दौर से गुजरते हुए भी इस संसार की वास्तविक प्रकृति अपरिवर्तित ही बनी हुई है। परिवर्तन की यह प्रकृति अनंत काल से ज्यों की त्यों ही बनी हुई है। निःसंदेह, सार्वभौमिक सत्ता परिवर्तित होकर भी अपरिवर्तित ही रहती है। कितनी ही सभ्यताएँ, कितनी ही आपदाएँ इस संसार में आती-जाती रही हैं, उनका आकलन करने की हर कोशिश व्यर्थ ही रहेगी, कोई परिणाम नहीं मिलने वाला। मानव सभ्यता से पहले भी अनगिनत सभ्यताओं का यहाँ सृजन तथा विध्वंस हुआ होगा। भविष्य में क्या-क्या होने वाला है, जानने-समझने का प्रयत्न करने पर महज एक ही निष्कर्ष प्राप्त होगा कि परिवर्तन शाश्वत है और परिवर्तन ही हमारी प्रकृति का वास्तविक संचालनकर्ता है।
हम हमेशा से इस भ्रम में जीते रहने के आदी हो गये हैं कि हमने इतनी सारी उपलब्धियाँ, इतनी सारी सफलताएँ एवं इतनी सारी निधियाँ पा ली हैं, किंतु, असलियत में न तो हम कुछ पा रहे हैं, न ही कुछ खो रहे हैं। हम परिवर्तन के पथ पर महज एक यात्री की तरह चलते जा रहे हैं। प्रकृति में घटित होने वाले सभी तरह के परिवर्तन प्रकृति की नियति हैं। चूंकि हम सब प्रकृति के ही अविभाजित अंग हैं, अतः हम सभी को समय के साथ होने वाले परिवर्तनों को सहज भाव से स्वीकार करने की आवश्यकता है। कुछ परिवर्तन हमारे मन के अनुकूल होंगे, तो कुछ विपरीत। इस तरह से सुख-दुःख का चक्र भी अनवरत चलता रहेगा। इस चक्र को रोक पाना संभव नहीं है।