सिध्दार्थ की सिध्दी

अमित मिश्रा सरायकेला

गौतम से सिद्धार्थ और सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बनने की कथा छठी शताब्दी में उपजी महाक्रांतिकारी घटना भारत में आध्यात्मिक क्रांति की देन है। कपिलवस्तु के राजा के घर नवजात शिशु का जन्म होता है। माता महामाया लुम्बनी वन में एक शिशु को जन्म देने के बाद गुजर जाती हैं। विमाता (मौसी) गौतमी के द्वारा पालन-पोषण होने के कारण उस शिशु का नाम गौतम पड़ा। गौतम के जन्म लेने पर दो ब्राह्मण ज्योतिषियों ने उनके पिता को बताया की उनका लड़का चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या बैरागी संन्यासी बनेगा। गौतम उनके लड़कपन की अवस्था में अपने पिता के ऐश्वर्य-भोग के महल में इंद्रियों को कामिनी-कंचन में लगाकर पूर्ण आसक्ति का जीवन जी रहे थे। उनको इस ओर ही रत रखना उनके पिता की सोची-समझी नीति में से एक थी, ताकि वो दूसरी भविष्यवाणी कि – कहीं वे संन्यासी न हो जाएँ को नष्ट कर सकें। पर सत्य की प्रेरणा हृदय की झंकार है, इसे कष्ट तो दिया जा सकता है पर नष्ट नहीं किया जा सकता।

समय आने पर गौतम का विवाह गोपा नाम की अति सुन्दरी कन्या से हो जाता है। गौतम को उससे एक पुत्र राहुल नाम का होता है। एक दिन की बात है अपने महल में कई सुंदर स्त्रियों के रास-रंग, नृत्य में व्यस्त गौतम उनके साथ सुबह सोकर उठे और उठने पर उन कमीनियों की दुर्दशा देखकर उनकी कुरूपता का उनको भान हो चला — कहीं बाल बिखरे, कहीं रूप-सज्जा भ्रष्ट, कहीं खर्राटों की कर्कशा ध्वनि, कहीं आंख के काजल में लिपटा पीचड़। उन्हें तीव्र विकर्षण हो आया। “होनी को मंजूर वही अंततः होता है जरूर”।

अब गौतम सिद्धार्थ के अपने अन्य नाम को जीने लगते हैं, जो बाद में गौतम के बुद्ध बनने के पश्चात स्वत: सिद्ध हो जाता है। उन्हें

अपनी सुंदरा पत्नी में भी कोई रस नहीं रह जाता है। वो मुनि सा इस पर मनन करने लगते हैं। दूसरी ओर उनके पिता उन्हें बाहर की दुनिया से अनभिज्ञ भी रखना चाहते थे, अतः उन्होंने उनके बाहर विहार करने पर सख्त नजरबंदी रखी थी, सो सिद्धार्थ अपने महल के एक सारथी से आधी रात को बाहर से घुमा लाने की विनती करते हैं। रात में महल के बाहर की दुनिया में उन्हें चार घटनाओं का भान होता है — एक साधू जो गाता मौज में जा रहा था, दूसरा शव जिसका जनाजा और पीछे शोकाकुल परिवार जा रहा होता है, तीसरा एक वृद्ध जो बुढ़ापा से त्रस्त दिखता है और चौथा रोगी जो बीमारी से ग्रस्त दिखता है। इन जिज्ञासिओं का संतुष्टिदायक उत्तर बुद्ध को अपने सारथी से मिलता है। उत्तर में उनकी भी दुःख भरी ऐसी दशा का होना निश्चित है यह जानकर बुद्ध सिद्धार्थ का इरादा पक्का हो गया कि उन्हें उनके पिता ने झूठे भुलावे में अब तक असलियत से दूर रखा है। सही ज्ञान से दूर अज्ञान के भोग-रोग में उन्हे फंसाए रखा है। जहां उन्हें अपने पिता की राजनीतिक सूझ-बूझ से स्वयं के हित के लिए भी उत्प्रेरणा उठती है और वो अपने महल वापिस लौट अपनी पत्नी और अपने नवजात बच्चे को बिना बताए और अपनी विमाता और अपने पिता से बिना अनुमति लिए चुपके से घर त्याग कर उसी सारथी के द्वारा घर से बाहर की ओर निकल पड़ते हैं। सारथी को वापस महल लौटा कर वे एक अकेले खोजी की तरह स्वयं के दुःख भरे जीवन के अज्ञान से ज्ञान को तलाशने में जुट जाते हैं।

सिद्धार्थ खुद को तराशने लगते हैं – पाखंड, आडंम्बर व कर्मकाण्ड तथा यज्ञ-हवन और उन धार्मिक कुरीतियों से नहीं बल्कि सार्थकता, सत्यता और सार से अज्ञानता से उपजे शोक ने सिद्धार्थ को ज्ञान का बुद्ध बना दिया। उनकी शिक्षा ने बंद बुद्धि को खोला। बुद्ध जो एक श्रत्रिय वर्ण में पैदा हुए पर अब वे असल में, ब्राह्मण हो चुके, स्वयं को वैसा बना चुके थे। यही कारण है कि उनके प्रारंभिक पांच शिष्य स्वयं भी ब्राह्मण होते हुए बुद्ध सरीखे ब्राह्मण का शिष्य बनना

स्वीकार करते हैं। सिद्धार्थ से बुद्ध बन कर उन्होंने दुःख का कारण अज्ञान को बताया और उसे दूर करने के लिए ज्ञान का दीपक जलाया। इसलिए उन्होंने सबसे कहा – “अपना दिया स्वयं हो”।

यह सत्य है कि कुछ होने के पश्चात भीड़ जुटने लगती है, अतः ‘बुद्ध ‘ बनने के बाद उनके अनुयायियों की व उनसे दीक्षित भिक्षुओं की भीड़ जुटने लगी। मठ-आश्रम बनने लगे और पुनः ‘बुद्ध’ बनने के पश्चात वे एक दिन अपने पिता के महल लौटकर अपनी पत्नी तथा मौसी (गौतमी) इत्यादि को भी भिक्षुणी बनाकर अपने साथ कर लाये। परंतु स्त्रियों के मठ में प्रवेश देने की अनुमति ने मठ के जीवन – शैली व अनुशासन – नियम को धूमिल करना शुरू कर दिया तब अपने प्रिय शिष्य आनन्द को उन्हें कहना पड़ा कि अब इसकी पवित्रता खतरे में है। अतः बुद्ध का ये निर्णय उनकी ज्ञान-परख में रह गई त्रुटि की ओर सूक्ष्म ईशारा करता है कि उनका स्त्रियों को मठ में प्रवेश देने का फैसला ज्ञान के विपरीत कितना अज्ञान से भरा गलत निर्णय था। अतः जैसा पहले कहा जा चुका,”होनी को जो मंजूर वही अंततः होता है जरूर”।

बुद्ध के नहीं रहने के बाद मठ में काम-वासना / भोग-अनाचार व्याप्त होता चला गया और बुद्ध एकमात्र स्वयं का ही उद्धार करके गये बाकि का अभियान आज तक एक प्रतिकृति के रूप में फल-फूल रहा है, जिसमें फूल और फल वर्तमान समय के साथ-साथ एक भी बुद्ध मूल में नहीं गढ़कर उसे बढ़ाकर अनेक ‘बुद्ध मूल पेड़ का जंगल नहीं बना पा रहे हैं। उनकी ख्वाहिश ‘बुद्ध’ बनाना है न कि ‘बुद्धू’ बनना। अतः आज भी सिद्धार्थ का अर्थ सिद्ध नहीं हो पा रहा है। अभी भी कइयों का बुद्ध बनना शेष है, शुद्ध बनना शेष है। अंततः अब ‘बुद्ध से पहले ‘सिद्धार्थ’ बनाओ इस नेक काम में एक-दूसरे का हाथ बटाओ और अनेक सिद्धार्थ को बुद्ध बनाने में जुट जाओ। यही बुद्ध बने सिद्धार्थ कि सिद्धी होगी, प्रसिद्धि तो बहुत हो चुकी।