सम्पादक की ओर से

अपनी सोच और उद्देश्यों के साथ जनमैत्री के कदम लगातार बढ़ रहे हैं। राजनीति, धर्म, पंथ-सम्प्रदाय से संबंधित विषयाेंं से परहेज करने की अपनी नीति इस पत्रिका की विशेषता बनती जा रही है। यही वजह है कि महज दो अंक ही अब तक प्रकाशित हुए हैं लेकिन आधुनिक और प्रगतिशील सोच वाले हिन्दी पाठकों की चहेती बनने लगी है। जानकार एवं संवेदनशील पाठकों, जागरुक परिवारों के लिए वैचारिक दृष्टि से सामान्य अभिरूचि की सम्पूर्ण खुराक परोसना पत्रिका का प्रारंभ से लक्ष्य रहा है, उसी रास्ते पर आगे भी कदम बढ़ते रहेंगे। पत्रिका के तीसरे अंक में साहित्य, संस्कृति, काव्य, समाज, परिवार, पुरानी-नई पीढ़ी, पर्यटन, ज्ञान-विज्ञान तथा योग-प्राणायम से संबंधित सामग्री प्रस्तुत की जा रही है। सम्बद्ध विषयों में परिपक्व-गहरा अनुभव रखने वाले नामचीन हस्तियों के आलेख पाठकों की मानसिक जरूरत पूरी करने में सहायक होंगे। वरिष्ठ साहित्यकार और जनमैत्री के सम्पादक डा. प्रेमशंकर त्रिपाठी का अवधी भाषा में प्रस्तुत लेख विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस लेख में परोसी गई सामग्री बिल्कुल अलग अन्दाज में विशेषकर उत्तर प्रदेश की जड़ों में रची-बसी संस्कृति से साक्षात्कार कराएगी।

हमारा प्रयास रहेगा कि पत्रिका के अगले अंकों में भारतीय चेतना और भारत की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत से पाठकों को तरो-ताजा रखते रहें। दरअसल विरासत का अर्थ सिर्फ स्मारकों, ऐतिहासिक स्थलों या फिर कला से जुड़ी वस्तुओं के संग्रहण तक ही सीमित नहीं है। व्यापक अर्थ में इसे देखें तो पाएंगे कि हमारी विरासत की उन परम्पराओं और जनहितकारी प्रभावी विचारों को शामिल करना जरूरी है, जो हमें पूर्वजों से प्राप्त हुए हैं या हो रहे हैं। पूर्वजों से प्राप्त सांस्कृतिक-पारम्परिक विरासत नई पीढ़ी और अगली पीढ़ी तक पहुंचाना निश्‍चित रूप से एक चुनौती भी है और बड़ा प्रश्‍न भी। ऐसे प्रश्‍नों के उत्तर खोजने का काम हम करते रहेंगे, लेकिन यह काम कठिन है, सरल तभी होगा, जब हमें चिंतनशील पाठकों का साथ मिलेगा और अनुभवी कलमकारोंं का सहयोग। इसी आशा और विश्‍वास के साथ प्रस्तुत है जनमैत्री का तीसरा संस्करण। फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे डिजिटल प्लेटफार्म के संसाधनों के माध्यम से हमें पाठकों की बेबाक टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी।

प्रदीप शुक्ल