श्री हरि विष्णु को प्रिय है कार्तिक मास

डॉ. ज्योत्स्ना सिंह राजावत ग्वालियर

भारतीय ज्ञान परम्परा में मानव के जीवन का हर पक्ष  बहुत व्यवस्थित और संयमित है। मनुष्य के जीवन की दिनचर्या हो या दिनचर्या के विभाजन को व्यवस्थित करने के लिए घड़ी, दिवस, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष या ऋतुएं, हम जिस पर भी अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, वही हमें  सबसे अधिक महत्वपूर्ण दिखाई देता है। हमारे ऋषि मुनियों ने बहुत शोध करके प्रमाणिक तथ्यों के साथ इन ग्रंथों का सृजन किया है। इन ग्रंथों में जीवन जीने का सार है, अगर मास की बात करें तो प्रत्येक मास कुछ न कुछ विशेषताओं से परिपूर्ण है। आइये बात करते हैं कार्तिक मास की जिसके स्मरण मात्र से दीप पर्व, कार्तिक स्नान याद आने लगता है बचपन से घर परिवार की महिलाओं को सुबह तड़के सूर्योदय से पहले घर की साफ-सफाई  फिर स्नान करते देखा है। वह स्नान के लिए घर पर पर्व लेतीं, यदि संभव होता तो घर, परिवार, बच्चों के साथ अथवा मित्र, पड़ोसी भाई बन्धुओं के साथ नदी सरोवर में पर्व लेने के लिए निकल जातीं थीं। इस कार्तिक महीने में तुलसी पूजन, नारायण पूजन, स्नान, दान, पुण्य, पूजा पाठ करने का बहुत महत्व है।

नदी में स्नान के बाद दीपदान की परंपरा सदियों पुरानी चली आ रही है। मान्यता है कि इस माह में दीपदान करने से अक्षय फल की प्राप्ति होती है। दीपदान से नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित होकर चैतन्य, शक्ति एवं मानसिक शांति मिलती है। कार्तिक मास को शुभ कर्मों में वृद्धि करने वाला माह कहा गया है। इस माह में किए जाने वाले धार्मिक कार्य अमोघ फलदायी होते हैं। यह समय सांस्कृतिक एवं सामाजिक सभी रूपों से कल्याणकारी समय होता है। कार्तिक मास के किसी भी दिन किया गया दान-पुण्य अक्षय होता है। कार्तिक मास के आरंभ से ही दीपदान शुरू कर देते हैं, यदि किसी कारणवश नियमित दीपदान नहीं हो पाता है तो कार्तिक पूर्णिमा के दिन संपूर्ण माह के दिन की गिनती के अनुरूप दीपक प्रज्ज्वलित किए जाते हैं अथवा उतनी ही बत्तियां बना कर जलाई जाती हैं।

यह समय प्रकृति में होने वाले बदलावों से हमें मजबूती प्रदान करता है, इस कारण से कार्तिक मास की महत्ता धार्मिक, वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक सभी दृष्टि से है। स्कन्द पुराण के वैष्णव खंड में कार्तिक मास की महत्ता इस प्रकार वर्णित है कि कार्तिक के समान दूसरा कोई मास नहीं, सतयुग के समान कोई युग नही, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है –

कार्तिक समो मासो न कृतेन समं युगम् । न वेद सदृशं शास्त्रं न तीर्थं गंगा समम् ।।
मासानां कार्तिक: श्रेष्ठो देवानां मधुसूदन । तीर्थं नारायणाख्यं हि त्रितयं दुर्लभं कलौ।।

(स्कंद पुराण, वै. खं. कां. मा. 1/14)

सभी मासों में कार्तिक मास, देवताओं में विष्णु भगवान, तीर्थ में नारायण तीर्थ (बद्रीनारायण धाम) शुभ हैं। कलियुग में, इन सब की जो पूजा करेगा वह पुण्यों को प्राप्त करेगा। 

श्री श्री राधा मोहन को यह कार्तिक मास सबसे अधिक प्रिय है। इसका वर्णन हरि भक्ति विलास 16/39, 40 में किया गया है। पद्मपुराण के अनुसार कार्तिक मास धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष देने वाला है। पुराणों में कार्तिक मास को स्नान, व्रत व तप की दृष्टि से मोक्ष प्रदान करने वाला बताया गया है।

कार्तिक मास आरोग्य प्रदान करने वाला, रोग विनाशक, पाप नाशक, सद्बुद्धि दाता, पुत्र, धन आदि प्रदान करने वाला कहा गया है। मां लक्ष्मी की साधना के लिए यह माह सर्वोत्तम है।

रोगापहं पातकनाशकृत्परं सद्बुद्धिदं पुत्रधनादिसाधकम् ।
मुक्तेर्निदांन नहि कार्तिकव्रताद् विष्णुप्रियादन्यदिहास्ति भूतले।।

(स्कंदपुराण. वै. का. मा. 5/34) कार्तिक मास सभी महीनों में प्रमुख है, वैष्णव कृष्ण भक्तों को यह कार्तिक मास बहुत प्रिय है – “कार्तिकः प्रवरो मासो वैष्णवनं प्रियः सदा कार्तिकं स्कलम् यस्तु भक्त्या सेवते वैष्णवः” सबसे अधिक प्रिय है, सभी महीनों में कार्तिक मास, सभी तीर्थों में प्रिय द्वारिका और सभी दिनों में एकादशी सबसे अधिक प्रिय है। (पद्म पुराण, उत्तर खण्ड 112.3)

शास्त्रों के अनुसार चतुर्मास या मलमास, में भगवान विष्णु समेत सभी देवी-देवता योग निद्रा में चले जाते हैं। जिस दिन से ये सभी योग निद्रा में जाते हैं, उस दिन को देवशयनी एकादशी के नाम से जाता है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी देवशयनी एकादशी कहलाती है। 4 माह तक विष्णु जी इस योग निद्रा में रहते हैं। उन चार माह में दुनिया के कार्य भार का संचालन भगवान शिव के हाथों में रहता है। शिव अषाढ़ मास से संसार के कल्याण के लिए पृथ्वी के कार्यभार का संचालन करते हैं, सारा संसार शिवमय हो जाता है। हर-हर महादेव  उद्घोष के साथ पूजा -पाठ, अभिषेक पूरे जोर शोर के साथ चलता है। चार महीने के पश्चात कार्तिक मास आते ही देवउठनी ग्यारस के दिन भगवान श्री हरि विष्णु को जगाकर उनकी पूजा के साथ-साथ मांगलिक कार्यों की शुरूआत हो जाती है इस दिन को देव प्रबोधिनी एकादशी भी कहा जाता है। इसी दिन से सभी देवी देवता श्री हरि के साथ अपने-अपने दायित्व में जुट जाते हैं। देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन देवों के स्वागत में घर के मुख्य द्वार पर रंगोली से कलाकृतियां बनाते हैं अथवा गेरू से मण्डप को सुसज्जित करते हैं तोरण लगाते, गन्नों से मंडप बनाकर उसमें भगवान श्री लक्ष्मीनारायण को बैठाकर पूजन करते उन्हें बेर, चने की भाजी, आंवला बैंगन, सिंघाड़ा, लौकी, कद्दू, मूली, गाजर, समेत अन्य मौसमी फल व सब्जियों के साथ खीर पूरी का भोग अर्पित करते हैं। धूप दीप प्रज्ज्वलित करते उसी मंडप में  एकादशी के दिन शालिग्राम के साथ तुलसी जी का विवाह कराते हैं। इसके बाद मण्डप की परिक्रमा करते हुए भगवान से अविवाहितों के विवाह कराने और विवाहितों के गौना कराने की प्रार्थना करते हैं। घर परिवार का वातावरण हर्ष उल्लास और आनन्द से भर जाता है, इसी के साथ मांगलिक कार्य गृह प्रवेश, मुंडन संस्कार, विवाह संस्कार आदि होने आरम्भ हो जाते हैं –

उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये । त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्‌ सुप्तं भवेदिदम्‌॥
उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव । गतामेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः॥

शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव। पौराणिक कथाओं में कार्तिक मास में भगवान विष्णु ने देवताओं को जालंधर राक्षस से मुक्ति दिलाई थी, साथ ही मत्स्य का अवतार लेकर मानवों की, वेदों की रक्षा की थी।  त्योहारों की दृष्टि से हिंदू धर्म में कार्तिक माह का महत्व इसलिए भी है कि इस माह में करवा चौथ, दीपावली, गोवर्धन पूजा, भैया दूज, छठ पूजा और देवोत्थान एकादशी समेत कई महत्वपूर्ण त्योहार आते हैं।  सुहागिन महिलाओं के लिए करवा चौथ त्यौहार बहुत अधिक महत्व रखता है। करवा चौथ का पर्व हर साल कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि के दिन मनाया जाता है। हर साल सुहागिन महिलाएं निर्जला उपवास रखकर, सज संवर कर अपने पति की लंबी आयु के लिए करवाचौथ व्रत कथा पढ़तीं, कैलेंडर की पूजा करतीं और आपस में करवा बदलती हैं। फिर चांद को अर्घ्य देकर, पति के हाथों से जल लेकर अपना व्रत खोलती हैं।  पहले दीवार पर करवा चौथ को घर की सभी महिलाएं मिलकर काढ़ती थीं, जिसमें प्रकृति तत्व सूरज, चांद, सितारे, नदी रामचरित मानस की चौपाइयां, करवा, छलनी, दीपक आदि होते थे, समय बदला और अब कैलेंडर की पूजन होने लगा। करवा चतुर्थी के बाद त्रयोदशी धनतेरस को आध्यात्मिक विजय का दिन माना जाता है। इस दिन भगवान धन्वंतरि, माता लक्ष्मी, भगवान कुबेर की पूजा की जाती है।

वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ।  जहाँ अश्विनी के हाथ में मधु कलश है, धन्वंतरि के हाथों में अमृत कलश, विष्णु संसार के रक्षक हैं अत: रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि ने आयुर्वेदिक औषधि रूपी अमृत कलश को  धारण किया है। धनवंतरी देव विष्णु के अवतारों में से एक है।  विष विद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण (3.51) में आया है।  उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया  है –

सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:। शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:।।

इस आख्यान में मंत्रशास्त्र के महत्व पर विशेष बल दिया गया है। धनतेरस के दिन धन, समृद्धि, और कल्याण के लिए आशीर्वाद मांगा जाता है।

त्योहारों के इसी क्रम में दीपावली से ठीक एक दिन पहले रूप चौदस आती है। इसे नरक चतुर्दशी, छोटी दिवाली, के नाम से जाना जाता है। ऐसी मान्यता है इस दिन जो व्यक्ति पूजा करता और यम दीपक जलाता है उसकी तमाम परेशानियां दूर हो जाती हैं और पापों से मुक्ति मिल जाती है। छोटी दीपावली से ही बच्चों के मन में उत्साह भर जाता है और तमाम तरह की तैयारी में जुट जाते हैं दौड़-दौड़ कर बाजार जाते हैं पटाखे खरीद कर लाते हैं फुलझड़ी खरीद कर लाते हैं और धनतेरस के दिन से ही पटाखे चलाना शुरु कर देते हैं। दीपावली का यह उत्साह रामायण काल से चला आ रहा है।

कार्तिक मास की अमावस्या के दिन भगवान श्रीराम अपना चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके अयोध्या लौटे थे। अयोध्या वासियों ने श्रीराम  के लौटने की खुशी में दीप जलाकर खुशियां मनायी थीं। स्वागत में तरह-तरह के पकवान बनाए गए थे। स्त्री, पुरुष, बच्चे सभी उत्साहित थे। रामचरितमानस के मर्मज्ञ महाकवि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस के उत्तर काण्ड में बहुत सुंदर चित्रण किया है – 

सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।  
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद ।। 

कितना अद्भुत दृश्य प्रभु श्री रामजी अपने महल को चले, आकाश फूलों की वृष्टि होने लगी। नगर के स्त्री-पुरुषों के समूह अटारियों पर चढ़कर उनके दर्शन कर रहे हैं। 

दधि दुर्बा रोचन फल फूला ।
नव तुलसी दल मंगल मूला ।।
भरि – भरि हेम थार भामिनी।
गावत चलिं सिंधुरगामिनी ।। 

श्री राम जी के अयोध्या लौटने पर उनके स्वागत के लिए दही, दूब, गोरोचन, फल, फूल और मंगल के मूल नवीन तुलसी दल आदि वस्तुएँ सोने की थाली में भर-भरकर हथिनी की सी चाल वाली सौभाग्यवती स्त्रियां मंगल गीत गाती हुई चली आ रही हैं। दीपावली के दिन मां लक्ष्मी और श्री गणेश के पूजन का विधान है। मां लक्ष्मी के पूजन में धान की खीलें, खिलौने, बताशे, मिठाइयां, खीर, पूरी, पंचमेवा, फल आज समर्पित किया जाता है। फिर दिए जलाए जाते हैं – घर बाहर सभी जगह दीयों के प्रकाश से भर जाते हैं। कार्तिक मास में मां लक्ष्मी के पूजन से अपार धन संपदा की प्राप्ति होती है। दीपावली के त्यौहार के बाद कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट या गोवर्धन की पूजा घर-घर होती है। विष्णु अवतार भगवान श्री कृष्ण जिन्हें प्रकृति से सदैव प्रेम रहा है इस  गोवर्धन पूजा के माध्यम से श्री कृष्ण संदेश देते हैं कि प्रकृति के सानिध्य में ही जीवन सुरक्षित है। गोवर्धन पर्वत के नीचे सारे बृजवासी मूसलाधार बारिश से सुरक्षित बच जाते हैं। गाय, पंचगव्य पूजन का विधान है। आज भी 56 प्रकार के भोजन के साथ अन्नकूट का त्यौहार मनाते हैं। द्वितीया को यम द्वितीया या भाई दूज मनाया जाता है। दीपावली का त्यौहार पांच दिन तक लगातार मनाया जाता है। पांच त्योहारों को एक साथ लगातार मनाये जाने के कारण पंच पर्व भी कहलाता है। कार्तिक मास के महत्व की पौराणिक कथा भी है। कार्तिक मास के नियमों को मानने वाले स्त्री पुरुष विधि विधान के साथ कार्तिक मास की कथा को भी पढ़ते हैं, सुनते हैं और लोगों को भी सुनाते हैं। हमारी आस्था की मजबूत जड़ें आज भी  सनातन धर्म में मौजूद हैं। समय-समय पर इनको सींचने की आवश्यकता है जिससे कि इन त्योहारों का, धार्मिक परंपराओं का महत्व अगली पीढ़ी तक यूं ही बना रहे ।