श्रावण मास

रुद्र रूप में सृष्टि संचालन करते हैं शिव

सम्पूर्ण विश्व ईश्वर का रूप है और श्रावण मास में प्रकृति उसका वर्षा की जल धारा से अभिषेक करती है। हिन्दू धर्म में श्रावण मास का विशेष महत्व है। "श्रावण" अर्थात् श्रवण - "ज्ञान का श्रवण" ज्ञान के श्रवण से मन को ठंडक मिलती है। ज्ञान - जल के अभिषेक से आत्मा शीतल होती है। यह वर्ष का सबसे पवित्र मास माना जाता है। श्रावण माह की पूर्णिमा को श्रवण नक्षत्र होता है, इस कारण ही इस माह का नाम श्रावण पड़ा है। भगवान शिव ने सनत्कुमार को कहा था कि इस माह का महत्व श्रवण योग्य है, इससे सिद्धि मिलती है, इसीलिए भी इसे श्रावण कहते हैं। श्रावण के महीने में भगवान शिव ही रुद्र रुप में सृष्टि का संचालन करते हैं, इस कारण भी यह माह उन्हें अति प्रिय है।

ऋतु डागा, कोलकाता

शिव सर्वत्र हैं, शिव सबके हैं, शिव समाधान हैं, सभी समस्याओं के समाधिस्थ होने का नाम शिव है। जहाँ पीड़ा और आनन्द एकीकृत हो जाते हैं - वहाँ शिव हैं। शिव कोई संज्ञा नहीं है, बनावट का विलीन होना ही जीवन में शिव का प्रवेश है। घटना का घटित होना ही शिव है। शिव असीम हैं, शिव तरल हैं, शिव को प्राप्त करने का मार्ग सहज है। सृष्टि के समस्त भावों को जहाँ आश्रय मिले, वहीं शिव हैं। शिव द्वार रहित, मार्ग रहित हैं। शिव शक्ति भी हैं, शिव से शक्ति को विलग करने से शिव शव हैं, शमशान में भी शिव हैं। हमारे पुराणों में वर्णित है कि --


"अलंकारम् विष्णु: प्रियः । जलधारा शिवम् प्रियः ।।"

शिव जी सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हैं, पूरा ब्रह्मांड ही उनका शरीर है, तो उनपर जलधारा तो प्रकृति ही कर सकती है। इस कारण श्रावण में बादल बरसते हैं, और सम्पूर्ण सृष्टि का अभिषेक होता है। यह विश्व ऊर्जा का एक खेल मात्र है --"सकारात्मक ऊर्जा और नकारात्मक ऊर्जा" शिव नकारात्मक ऊर्जा का संहार करके सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करते हैं। शिव विश्व की आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक हैं। उनका तीसरा नेत्र ज्ञान और विवेक का प्रतीक है।

श्रावण का ज्योतिष शास्त्र में भी बहुत महत्व है - श्रावण मास के आरम्भ में सूर्य अपनी राशि परिवर्तन करते हैं। सूर्य का गोचर सभी 12 राशियों को प्रभावित करता है। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार इस वर्ष श्रावण के प्रथम सोमवार को विभिन्न शुभ संयोग बन रहे हैं -- "प्रीति संयोग" - इस योग के स्वामी स्वयं श्री हरि हैं। पुराणों में इसे अत्यंत मंगलकारी बतलाया गया है। "आयुष्मान योग" - भारतीय संस्कृति में लंबी आयु का आशीर्वाद हेतु - "आयुष्मान भव" कहा जाता है। "नवम् पंचम राजयोग" - इस योग में शिव पूजन करने से कुंडली में मौजूद सभी ग्रह दोष दूर हो जाते हैं। "शश योग" - इस योग के स्वामी शनिदेव हैं, जो भगवान शिव के शिष्य हैं। शश योग के प्रभाव से व्यक्ति समाज में अपनी अलग पहचान बनाता है। "सर्वार्द्ध सिद्धि योग" - इसका नाम ही इसका परिचायक है, यह योग सभी कार्यों को सिद्ध करता है। श्रावण पूर्णिमा को राखी पूर्णिमा भी कहा जाता है।

श्रावण के महीने का प्रकृति से भी गहरा सम्बन्ध है।

पानी ही जीवन है, जब जीवन धरा पर उतरता है तो धरती धन्य हो जाती है। ग्रीष्म ऋतु से तप्त धरा को बरखा की बूंदें सरसित कर देती हैं। जिस प्रकार धरती गर्म हवा के थपेड़ों के बाद सावन में बरसती बूंदों से अपनी प्यास बुझाती है और असीम आनन्द और तृप्ति की अनुभूति कराती है, बरखा के सिंचन से सभी पेड़-पौधे फलने-फूलने लगते हैं, उसी प्रकार श्रावण माह में भगवान शिव सभी प्राणियों की इच्छापूर्ति कर भक्ति और प्रेम का अनूठा संगम दिखलाते हैं, अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति का आनन्द देते हैं। प्रकृति का अनुकरण करके हम भी जगतव्यापी शिव शंकर पर जल चढ़ा कर उनका अभिषेक कर देते हैं।

कुछ विद्वानों ने मार्कण्डेय ऋषि की तपस्या को भी श्रावण मास से जोड़ा है। कथाओं के अनुसार मार्कण्डेय ऋषि की उम्र कम थी पर उनके पिता ने उन्हें लम्बी आयु पाने के लिये शिव जी की विशेष पूजा करने को कहा था। मार्कण्डेय ऋषि ने श्रावण मास में कठोर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न किया था, जिस कारण काल भी नतमस्तक हो गया था, इसलिए शिवजी को महाकाल भी कहा जाता है।

हिन्दू पंचांग के अनुसार सभी मास किसी न किसी देवता के साथ सम्बंधित हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रावण मास भोले शंकर को समर्पित है। इस माह में शिव उपासना का विशेष महत्व होता है। अविवाहित भक्तों के लिए श्रावण माह अत्यंत शुभ माना जाता है। भगवान शिव की पूजा करने वालों की अति शीघ्र मनोकामना पूर्ण होती है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सागर में अमृत मंथन के समय 14 रत्न निकले थे, उनमें से एक हलाहल विष भी था। इस विष में ब्रह्मांड को नष्ट करने की क्षमता थी। सम्पूर्ण विश्व की रक्षा हेतु सर्वोच्च देव भगवान शिव ने विष का सेवन किया परन्तु उसे गले से नीचे नहीं उतरने दिया। इस विष के प्रभाव से प्रभु शिव का कंठ नीला पड़ गया था और वे नीलकंठ कहलाने लगे। लंकाधिपति रावण भगवान शिव का अनन्य भक्त था, वह अपने प्रभु के गले की जलन को कम करने हेतु काँवड़ में गंगा जल लेकर गये थे और उसी जल से उसने प्रभु का अभिषेक भी किया। तब जाकर भोलेनाथ को विष की तपिश से मुक्ति मिली। इसी कारण श्रावण मास में शिव भक्तों द्वारा काँवड़ यात्रा का आयोजन किया जाता है। गंगाजल से भरी काँवड़ लेकर वे शिव तीर्थ को जाते हैं और भोले शंकर का जल से अभिषेक करते हैं। विष से होने वाली जलन कम करने के लिए भक्त सावन के महीने में शिव जी को जल चढ़ाते हैं।



अंततः श्रावण और शिव एक दूसरे के पूरक हैं। शिव इतने सहज हैं कि जलधारा से ही प्रसन्न हो जाते हैं। सारी सृष्टि उन्हीं से है, इस कारण प्रकृति भी वर्षा के रूप में उनपर जल चढ़ाती है। आदि योगी शिव निराकार हैं, सृष्टि के पालक और संहारक दोनों हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -- "नाम प्रभाउ जान सब नीको । कालकूट फलु दीन्ह अमी को ।।"