शाकाहार अपनायें, स्वयं को जीव हत्या
के महापाप से बचायें
हमारी भारतीय संस्कृति प्रारंभ से ही सात्विक भोजन की पक्षधर रही है। "जैसा खाओगे अन्न, वैसा ही पाओगे मन", यह संदेश हमारे महान ऋषि-मुनिगण प्रारंभ से ही देते आये हैं। निःसंदेह, यह सत्य है कि भोजन से सिर्फ हमारा तन ही नहीं, बल्कि, मन भी निर्मित तथा संचालित होता है। भोजन का प्रभाव हमारे विचारों और हमारी भावनाओं पर पड़ता है, जिससे हमारे व्यवहार भी अछूते नहीं रह पाते। अतः, हमें तामसिक तथा राजसिक भोजन की जगह पर सात्विक भोजन ग्रहण करना चाहिए। राजसिक भोजन राजा - महाराजाओं के घर में बनने वाले भोजन को कहा जाता था। इस तरह के भोजन में घी, तेल तथा मसालों का अधिक प्रयोग होता है, जो स्वास्थ्य के लिए गरिष्ठ तथा नुकसानदेह होता है। राजसिक खान - पान से मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक उत्तेजनाओं में वृद्धि होने की संभावना बलवती हो जाती है। जबकि, तामसिक भोजन को राक्षसी भोजन का ही पर्याय माना जा सकता है, जिसके अंतर्गत मांस-मछली, अंडे तथा मादक पेय पदार्थों का सेवन आता है। क्रूरता से क्रूरता का जन्म लेना बिल्कुल स्वाभाविक है। तामसिक भोजन से हमारे अंदर तमोगुण की वृद्धि होती है। हमारे भीतर क्रोध, हिंसा, ईर्ष्या, द्वेष, एवं प्रतिकार जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियाँ प्रज्ज्वलित हो उठती हैं। लहसुन - प्याज आदि का अत्यधिक मात्रा में सेवन भी वर्जित माना गया है।
सात्विक भोजन, साधु-संतों द्वारा ग्रहण किया जाने वाला साधारण शाकाहारी भोजन है। यह श्रेष्ठतम भोजन माना जाता है, जिसके अंतर्गत फल - फूल, शाक -सब्जियाँ, दूध - दही - घी - मट्ठा, अन्नादि आते हैं। सात्विक भोजन के सेवन से मनुष्य के भीतर पवित्र ऊर्जा और बुद्धिवर्द्धक पोषकता का संचरण होता है। इस तरह के भोजन से उत्तम विचारों तथा उदात्त भावनाओं का सृजन होता है। शाकाहार ही सात्विक भोजन है, जिसे ग्रहण करके आत्मा सर्वाधिक तृप्त होती है, क्योंकि इसमें परपीड़ा सर्वाधिक कम होती है। जबकि, मांसाहार से मनुष्य में सुप्त क्रूरता तथा हिंसा की प्रवृत्तियाँ जाग उठती हैं। संसार में मार-काट-हत्या-युद्ध आदि में वृद्धि के पीछे मांसाहार का बहुत बड़ा हाथ है। ऐसे भी, हम मनुष्यों का पाचन-तंत्र शाकाहारी भोजन को पचाने के अनुरूप ही बना है। विज्ञान ने भी यह तथ्य स्पष्ट रूप से प्रमाणित कर दिया है कि खाद्य श्रृंखला में जो भोज्य पदार्थ सूर्य के सबसे निकट होता है, वही सबसे अधिक ऊर्जादायक, पोषक तथा हानिप्रद जानलेवा रसायनों के जमाव से मुक्त होता है। अतएव, शाकाहारी भोजन ही सर्वश्रेष्ठ भोजन है। जो मनुष्य जिह्वा के क्षणिक स्वाद हेतु निर्दोष जीव - जंतुओं, पशु - पक्षियों व अंडे के भीतर पल रहे अजन्मे बच्चों को मारकर अपनी उदराग्नि को शांत कर आनंदित हो रहे होते हैं, वे भविष्य में प्रकृति के कोप को ही आमंत्रित कर रहे होते हैं। हमें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि कोरोना-संकट भी तो मांसाहार से ही उत्प्रेरित तथा प्रसारित हुआ था।
मांसाहार को अपनाकर हम मनुष्यों ने स्वयं का सर्वनाश कर डाला है। हम देवताओं के समकक्ष बनने के सपने देखते हैं और भोजन लेते हैं सर्पों और राक्षसों वाले ! मनुष्य ने चूहे, छिपकली, कीड़े - मकोड़े, केकड़े, चमगादड़, किसी भी जीव को नहीं छोड़ा है। सबको अपनी पैशाचिक भूख शांत करने का माध्यम बना लिया है। यह कैसी मनुष्यता है ? हम यह क्यों भूल जाते हैं कि मनुष्य के शरीर की बनावट भी शाकाहारी भोजन ग्रहण करने लायक है ? क्या कारण है कि दिनानुदिन मांसभक्षण बढ़ता जा रहा है, जीव-हत्याएँ बढ़ती जा रही हैं? ये सारे प्रश्न अत्यंत गंभीर तथा विचारणीय हैं। आज मनुष्य भोली-भाली मातृस्वरूपा गउओं को भी नहीं छोड़ रहे! उनका दूध ग्रहण करने की जगह, जोंकों की भाँति उनके रक्त और मांस से अपनी भूख शांत करने लगे हैं (?) क्या यही है मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र की धरती? क्या यही है लीलापुरुषोत्तम गोपाल श्रीकृष्ण चन्द्र की वसुंधरा? यदि भारतीय, विशेष रूप से हिन्दू भी, जीवहत्याएँ बंद नहीं करते हैं, तो हमें जय श्री राम, जय श्री कृष्ण, नमो बुद्धाय जैसे नारों के लगाने का ढोंग भी बंद कर देना चाहिए। शाक-सब्जियों (पेड़-पौधों) में भी प्राण होता है, संवेदना होती है, परंतु पक्षियों/जंतुओं की अपेक्षा काफी कम। पेड़-पौधों में अंतःस्रावी ग्रंथियाँ होती है, किंतु तंत्रिका तंत्र नहीं; जिस कारण से उन्हें उतनी पीड़ा नहीं होती है। होती भी है, तो उसकी अनुभूति नगण्य होती है। अतः, हम मनुष्यों की कोशिश यह होनी चाहिए कि हम वही कर्म करें, जिनसे पीड़ा का साम्राज्य यथासंभव कम हो, न कि अधिक।
मनुष्य का पाचन-तंत्र भी शाकाहारी भोजन के उपयुक्त बना है। यह बात श्री राम जानते थे, श्री कृष्ण भी, तब तो वे शाकाहारी थे। पर न जाने स्वयं को श्री राम भक्त और श्री कृष्ण भक्त मानने वाले हम मनुष्य यह बात कब समझ पायेंगे? कब तक अपने शरीर को कब्रिस्तान और रसोईघर को श्मशानघाट बनाये रहेंगे? श्री राम, श्री कृष्ण और महात्मा बुद्ध की भारतभूमि पर तो मांसाहार जैसा घोर अनर्थ बिल्कुल ही नहीं होना चाहिए था। परंतु, आज सड़कों के किनारे खून से लतपथ बकरे, मुर्गे और मछलियों के शवों का बाजार काफी गर्म है। मातृ-शक्तियाँ, जो करुणा की मूरत मानी जाती हैं, भी मांस कटवा कर खरीदती दिखने लगी हैं। वाह रे मानव, जो तूने जिह्वा के क्षणिक स्वाद हेतु रसोई घर को श्मशान और अपने शरीर को कब्रिस्तान बना डाला! बहुत खूब! अब भी समय है। यदि हम ईश्वर की नज़रों में स्वयं को अच्छा बनाये रखने के इच्छुक हैं तो अनिवार्य रूप से शाकाहार अपनायें और स्वयं को जीव हत्या के महापाप से बचायें। हाथी सा बलवान और खरहे सा होशियार बनना हो, तो शाकाहारी बनिए और मांसाहार के घोर अपराध से बचिए।
भोजन वही सर्वोत्तम है, जिसमें स्नेह, प्रेम और करुणा की झलक हो; न कि किसी दूसरे जीव-जंतु की पीड़ा और वेदना भरी चीख-पुकार मिली हो। सिर्फ श्रावण अथवा कार्तिक मास में ही नहीं, अपितु आजीवन स्वयं को निरामिष बनाये रखने की आवश्यकता है। जब हमारे शरीर के किसी भी हिस्से के कट जाने व छिल जाने पर इतनी पीड़ा होती है, तो उन मासूम पशु - पक्षियों की पीड़ा का तो स्मरण करें, जिनके पंख नोच लिए जाते हैं, चमड़ियाँ उधेड़ दी जाती हैं, खिलाने - पिलाने के बाद गले रेत दिये जाते हैं ! हम मनुष्य इन निरीह पशु - पक्षियों के साथ कौन सी हैवानियत नहीं बरतते हैं ? फिर भी, स्वयं को श्रेष्ठतम जीव बतलाने के मिथ्या दंभ से ग्रस्त रहते हैं ? ध्यान रहे, हमारा जीवन तभी श्रेष्ठ कहा जा सकता है, जब हमारे । भीतर प्रेम, दया, करुणा तथा परमार्थ जैसी भावनाएँ हों। अन्यथा, हममें और सिंह, भालू, भेड़िये, कुत्ते, बिल्ली व गीदड़ जैसे हिंसक जीवों में कोई विभेद नहीं रह जायेगा। इस बात का आंतरिक अहसास तो हर मनुष्य को है कि मांसाहार गलत है, इससे ईश्वर कुपित होते हैं, प्रसन्न तो कतई नहीं। मांसाहार जानबूझकर किया गया नैतिक तथा धार्मिक अपराध है। जानबूझकर किये गये अपराध की सजा कभी माफ़ नहीं होती है। इहलोक नहीं, तो परलोक में, स्वार्थवश जीवहत्याओं में संलिप्त लोग परमपिता परमात्मा द्वारा निश्चय ही दंड के भागी होंगे।
मत बनायें अपनी रसोई को श्मशान एवं इस पावन मानव तन को कब्रिस्तान।
पशु - पक्षियों पर दिखायें करुणा, अपनायें शाकाहार, बनें श्रेष्ठ, बुद्धिमान, बलवान।।
शरीर के ज़रा सा कट-छिल जाने पर, होती है जब हमें इतनी वेदना, इतनी पीड़ा तो जिह्वा के क्षणिक स्वाद हेतु, निरीह जीव - जंतुओं के संग क्यों इतनी क्रूर क्रीड़ा ?
सात्विक भोजन करें, निर्दोष प्राणियों की हाय से डरें;
न बनें इतने असंवेदनशील व हैवान।
रखें स्नेहिल भाव, विचार तथा व्यवहार; अपनायें शाकाहार,
तभी प्रसन्न होंगे भगवान।।