शहीद शिरोमणि वीर चंद्रशेखर आज़ाद

गतांक से आगे…….

"जिंदगी लम्बी नहीं बल्कि बड़ी होनी चाहिए" को यदि भावार्थ के दृष्टिकोण से देखा जाये तो श्री आज़ाद ने अपने जीवन काल को इतना महानतम बना दिया है की साधारण मनुष्य का लम्बा जीवन भी उसके सामने बौना प्रतीत होता है। सच में सरल स्वभाव के साथ अदम्य साहस से भरा उनका व्यक्तित्व हम सब के लिए अनुकरणीय है।

पत्रिका के पिछले अंकों (फ़रवरी 2023 - पेज 34 - 36 एवं मई 2023 पेज 25 - 27) में उनके संघर्ष, साहस एवं चातुर्य का संछिप्त उल्लेख मिलता है, परन्तु अब हम स्व. श्री शिव विनायक मिश्र "बैद्य" द्वारा संकलित श्री आज़ाद के सन्दर्भ में जिन संस्मरणों को प्रस्तुत करने जा रहे हैं वो अत्यंत मार्मिक होने के साथ ही रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं। सम्पूर्ण जनमैत्री परिवार इन संस्मरणों को सहेज कर रखने और साथ ही पत्रिका में प्रकाशनार्थ हेतु साझा करने के लिए बैद्य जी के पौत्र श्री सतीश कुमार मिश्र का ह्रदय से आभारी है।

आगे प्रस्तुत है स्व. श्री शिव विनायक मिश्र "बैद्य" के शब्दों में संकलित श्री आज़ाद के मर्मस्पर्शी संस्मरण :

इलाहाबाद यात्रा

श्री चन्द्रशेखर आजाद इलाहाबाद उस समय क्यों आये थे, इसका रहस्य है। सुनते हैं कि इलाहाबाद के एक सज्जन के पास रूपये जमा थे। उसकी नीयत खराब हो गयी थी। रूपया देने के बहाने आजाद और उसके साथियों को अजमेर से बुलाया और इधर पुलिस को भी सूचना दे दी। फलस्वरूप पुलिस से मुठभेड़ हुई। इस लड़ाई में आजाद ने पुलिस सुपरिटेन्डेट की कलाई पर ऐसा निशाना लगाया कि उसकी हाथ से पिस्तौल गिर गयी और एक पेड़ की आड़ में छिपकर अपनी जान बचायी। उसमें पुलिस वाले एक तरफ थे और अकेला आजाद एक तरफ था। पेड़ की आड़ से वह दुश्मनों का समाप्त कर रहा था। पर आजाद अकेला और उधर से बहुत। आजाद ने वीर गति प्राप्त की। वह वीर आत्मा स्वर्ग चली गयी। उसके पास जाने को पुलिस का साहस नहीं होता था। मृत्यु हो जाने पर भी पुलिस गोली चलाती रही।

पुलिस की गोली से नहीं मरे

आजाद अपने साथियों से कहा करता था कि पुलिस के हाथ गिरफ्तार होने से पहले मैं अपने को गोली मार लूंगा। जिन्दा न पकड़ा जाऊंगा। जिन लोगों ने आजाद के शव को देखा था उनका कहना है कि आजाद के कनपटी में घाव था। इससे यह स्पष्ट है आजाद अपनी ही गोली से मरा था, पुलिस की गोली से नहीं ।
चन्द्रशेखर आजाद के जीवन के सम्बन्ध में अन्य बहुत-सी आर्श्यजनक घटनाएँ है। इस छोटे से लेख में सभी बातों का उल्लेख किया जाना संभव नहीं है। उनके क्रांतिकारी जीवन के सम्बन्ध में उनके सहयोगियों ने जीवनी लिखकर प्रकाश डाला है। तब भी अपूर्णता रह गयी। अच्छा होता यदि पुराने सच्चे साथी जो अब भी जीवित हैं, उनका पूरा हाल लिखते। यद्यपि इस दिशा में उन लोगों का प्रयास सराहनीय है।

चन्द्रशेखर आजाद की माता 22 मार्च सन् 1951 को झांसी में आजाद के वियोग में कलपती हुई चली गयीं। आजाद के न रहने के बाद कई वर्षों तक हम लोग आजाद की माता के दुःख में शामिल नहीं हुए। बाद में सरकार ने उनको पेन्शन दिया। इस कार्य में जहाँ तक मेरी जानकारी है, श्री बनारसीदास चतुर्वेदी, श्री भगवानदास माहौर ने माताजी को बहुत सम्हाला।

वीरगति प्राप्ति के पश्चात् अन्तिम दर्शन

27 फरवरी सन् 1931 को श्री आजाद इलाहाबाद में वीर गति को प्राप्त हुए। उस समय फिर आजाद से जलती हुई चिता पर भेंट हुई। उस महान आत्मा ने भारत की स्वाधीनता की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति दे दी। आज भी उस महान वीर की बलि-बेदि प्रयाग के अल्फ्रेड पार्क में बनी हुई है। अब तो स्वतन्त्र भारत में राज्य सरकार ने वहाँ आजाद का स्मारक बना दिया है। श्री बाबा राघवदास जी ने उसी स्थान पर एक वृक्षारोपण भी किया था। उस समय उन्होंने मुझे एक पत्र भी लिखा था जो नीचे दिया जाता है-

श्रीमान् पंडित शिवविनायक जी,

इलाहाबाद के आजाद पार्क में जहाँ अमर शहीद श्री चन्द्रशेखर आजाद की मृत्यु हुई थी, जिस जामुन वृक्ष के सहारे वह अपना बचाव करते रहे, जिस वृक्ष को अंग्रेजी हुकूमत ने रातों-रात काट कर जमींदोज कर दिया था। वहाँ फिर मित्रों की सहायता से जामुन का वृक्षारोपण किया गया है वह वृक्ष हमारे लिए मृत्यु आलिंगन करने में और मानव-सेवा, समाज-सेवा, राष्ट्र के लिए सहायक हो, यही प्रार्थना है। आजाद जी की पूज्य माताजी को प्रणाम । राघवदास तारीख 03-09-1949

अन्तिम समाचार

27 फरवरी सन् 1931 को जब श्री चन्द्रशेखर आजाद शहीद हुए, इलाहाबाद से एक सज्जन जो गांधी आश्रम के कार्यकर्ता थे? जिनको स्वर्गीय कमला नेहरू जी ने मेरे पास भेजा था 11 बजे रात को स्वर्गीय श्री ज्ञानचन्द्र मुरब्बेवाले को लेकर मेरे मकान पियरी पर आये। आजाद अक्सर उनसे भी मिलता था। उन्होंने मुझसे कहा कि 'आजाद' मारा गया और कहा कि उसकी लाश लेने के लिए मुझे बुलाया गया है, क्योंकि 14-15 वर्ष की उम्र में 'आजाद' मेरे घर रह चुके थे। वे संस्कृत पढ़ने के लिए मध्यप्रदेश से काशी आये थे। मैं कुछ दिन पहले ही फैजाबाद जेल से छूट कर आया था। मैंने अपनी धर्मपत्नी से पूछा कि अब क्या करें। उन्होंने सलाह दी कि जाइये, जो होगा, देखा जायगा । हम लोगों ने विचार किया कि जितनी जल्दी इलाहाबाद पहुँचा जाय अच्छा है। उस समय कोई गाड़ी इलाहाबाद नहीं जाती थी। कई दोस्तों से मोटरें भी मांगी गयी, मगर प्रबन्ध नहीं हो सका। विवश होकर उसी व्यक्ति के साथ सबेरे 4:30 बजे की छोटी लाइन ट्रेन से रवाना हुआ।

शव प्राप्त करने का प्रयत्न

झूसी स्टेशन से मैंने एक तार इलाहाबाद मजिस्ट्रेट को दिया कि आजाद मेरे सम्बन्धी है, लाश नष्ट न की जाय। मैं जब इलाहाबाद पहुँचा तो पहले आनन्द भवन गया। अस्पताल से जब पोस्टमार्टम होकर लाश मोटर से रवाना हुई, तब मैं पहुँचा। बन्द लाॅरी में लाश आगे पीछे जबरदस्त हथियार बन्द पुलिस के पहरे में जा रही थी। मेरा इक्का उसको पकड़ नहीं सकता था। मैं सीधा डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के बंगले पर गया। दिन के लगभग 10 बजे थे। मजिस्ट्रेट भोजन कर रहे थे। उनका अर्दली बाहर था। उससे मैंने प्रार्थना की कि साहब को कह दो कि मैं आजाद का सम्बन्धी हूँ। मैंने उनको तार भेजा था। उनको मिला है या नहीं। अर्दली ने कहा अभी मैंने उनको तार दिया है। अर्दली साहब के पास गया। वह स्वयं बाहर आकर मुझसे कहने लगे कि आप सुपरिटेण्डेन्ट पुलिस के पास जाइये। शायद लाश तो जला दी गयी होगी। मुझे पता नहीं कि लाश कहां गयी? यह कार्य उन्हीं के जिम्में था। मैं अकेला था। साथ वाले व्यक्ति को मैंने आनन्दभवन से ही यह कहकर विदा कर दिया था कि तुम जवान हो, हमारा साथ छोड़ दो। इक्का वाला भला आदमी था। जल्दी से सुपरिटेण्डेन्ट पुलिस के बंगले पर ले गया। पुलिस कप्तान ने बताया कि किसी ने लाश मांगने का आवेदन नहीं किया था, इसलिए लाश जला दी गयी। तब मैंने कहा कि अभी मैंने अस्पताल से लाश जाते देखा है। सुपरिटेण्डेन्ट ने मुझसे बहुत वाद-विवाद किया। मैंने कहा कि मैंने पाला-पोसा है हम और वह दोनो उन्नाव जिले के हैं। मेरा वह भतीजा लगता है। मुझे वह फुफा कहा करता था। इसी सम्बन्ध से 'आजाद' से मेरा सम्बन्ध था, हम लोग एक रक्त-मांस के हैं। वाद-विवाद में मुझे भुलावा देकर उन्होंने एक पत्र दारागंज के दारोगा के नाम से लिखा कि त्रिवेणी पर लाश नहीं है पुलिस की देख-रेख में इनको अन्त्येष्टि संस्कार करने दिया जाय।

जब मैं साहब के बंगले के बाहर निकला तो थोड़ी दूर चलने के बाद ही एक मोटर लिए हुए श्री पद्यकान्त जी मालवीय दिखायी दिये। उनको पता चला कि मैं आया हूँ। उनकी मोटर पर बैठकर दारागंज पुलिस के पास गया। दारोगा खत पढ़ते ही मेरी मोटर में बैठ कर चलने को तैयार हो गये। पता चला कि लाश गंगा के किनारे रसूलाबाद गयी है। हम लोग उधर ही गये। रसूलाबाद पहुँचे तो चिता में आग लग चुकी थी। इंचार्ज अफसर को साहब का आर्डर दिया। उन्होंने कहा कि आप जो अपना धार्मिक कार्य करना चाहें कर सकते हैं। हमने तथा पद्यकान्त जी ने चिता बुझायी। शव के ऊपर की त्वचा जल गयी थी आजाद को पहचाना नहीं जा सकता था मैंने बड़ी मुश्किल से पहचाना वही थे क्योंकि फरार होने पर भी छिप के वह काशी आते थे और उन्हें देखने का एकाध बार मौका मिला था।

जब मैं साहब के बंगले के बाहर निकला तो थोड़ी दूर चलने के बाद ही एक मोटर लिए हुए श्री पद्यकान्त जी मालवीय दिखायी दिये। उनको पता चला कि मैं आया हूँ। उनकी मोटर पर बैठकर दारागंज पुलिस के पास गया। दारोगा खत पढ़ते ही मेरी मोटर में बैठ कर चलने को तैयार हो गये। पता चला कि लाश गंगा के किनारे रसूलाबाद गयी है। हम लोग उधर ही गये। रसूलाबाद पहुँचे तो चिता में आग लग चुकी थी। इंचार्ज अफसर को साहब का आर्डर दिया। उन्होंने कहा कि आप जो अपना धार्मिक कार्य करना चाहें कर सकते हैं। हमने तथा पद्यकान्त जी ने चिता बुझायी। शव के ऊपर की त्वचा जल गयी थी आजाद को पहचाना नहीं जा सकता था मैंने बड़ी मुश्किल से पहचाना वही थे क्योंकि फरार होने पर भी छिप के वह काशी आते थे और उन्हें देखने का एकाध बार मौका मिला था।

अन्तिम अवशेष

उस फोटो का निगेटिव सरकार ने देने नहीं दिया। चिता जलते-जलते श्री पुरूषोत्तमदास टण्डन, श्रीमती कमला नेहरू आदि भी वहाँ पहुँच गयी थीं। लगभग 200-300 आदमी बाद में इकट्ठा हो गये चिता बुझाकर अस्थि-संचय मैंने किया। अवशिष्ट भाग गंगाजी में प्रवाह किया। सभी लोगों ने तिलांजलि दी और गंगा स्नान के बाद एक मटकी में चिता की राख और थोड़ी-सी अस्थियाँ मैं अपने साथ लेता आया था। अस्थियाँ आज तक मेरे पास सुरक्षित हैं।

हड़ताल और जुलूस

रसूलाबाद से लौटकर मैं श्री टण्डनजी के साथ उनके मकान पर रहा। शहर में पूर्ण हड़ताल थी। जनता में अपूर्व उत्साह था। इलाहाबाद में लोग यही समझते थे कि गोली चलेगी। सायंकाल काले कपड़े में 'आजाद' की अस्थियों का भारती भवन से चौकी पर जुलूस निकला। श्री पुरूषोत्तम दास पार्क में श्री मोहनलाल गौतम की अध्यक्षता में सार्वजनिक सभा हुई। सभा आदि का कार्यक्रम छात्र-संघ द्वारा हुआ था। सभा में श्री पुरुषोत्तमदास टण्डन (सभापति, प्रांतीय कांग्रेस कमेटी) स्व. श्रीमती कमला नेहरू तथा मेरा व्याख्यान हुआ, जिसमें मैंने आजाद के विस्तृत जीवन पर प्रकाश डाला था। सभा में मुझसे कई तरह के प्रश्न किये गये। शाम की गाड़ी से मैं काशी वापस चला आया। और विधिवत श्री चन्द्रशेखर 'आजाद' का संस्कार किया। काशी में दसवां के दिन यूथ लीग की ओर से कुछ नवजवानों ने जुलूस और सभा का प्रबन्ध किया था। मेरे ऊपर 144 दफा लगाकर सरकार ने सभा में जाने से रोक दिया था। जुलूस दशाश्वमेध घाट से निकलने वाला था। वहाँ बहुत से नवयुवक आ भी गये थे और सरकारी आज्ञा का उल्लंघन करना चाहते थे। बाबू शिवप्रसाद गुप्त भी उस मौके पर आ गये थे। मैं गांधी आश्रम डेड़सी पुल के पास बैठा हुआ था। वहाँ लड़के एकत्र थे। 144 लग जाने के कारण जा नहीं सकता था। बाबू शिवप्रसाद गुप्त से मैंने कहा कि लड़कों को जाकर समझाइये कि जुलूस न निकालें। उन्होंने जाकर समझाया और लड़के मान गये।

मेरी भावरा यात्रा

27 फरवरी सन 1965 को मध्य प्रदेश के भावरा ग्राम जहाँ आजाद ने जन्म लिया था, सरकार की विकास योजना के अन्तर्गत वहाँ आजाद के नाम से मेला लगाया गया। उसके निमन्त्रण पर मैं आजाद की अस्थियों का कलश लेकर भावरा गया था। इस यात्रा का वर्णन "आज" दैनिक पत्र में विस्तार के साथ सन 1966 में प्रकाशित किया था। आजाद की अस्थियों का स्वागत जिस धूमधाम से इन्दौर से लेकर भावरा तक हुआ था यह एक ऐतिहासिक अपूर्व दृश्य था भावरा में लगभग 30 हजार आदिवासी तथा अन्य सरकारी गैर सरकारी लोगों ने जिस उत्साह से आजाद के बलिदान होने के 34 वर्ष बाद अस्थियों का स्वागत किया वह लिखा नहीं जा सकता। आजाद जिस कुटिया में पैदा हुए थे वहाँ पर सायंकाल सार्वजनिक सभा हुई, जिसमें आजाद के कई क्रान्तिकारी साथियों का तथा मेरा भाषण हुआ इस अवसर पर आजाद की एक मूर्ति का उद्घाटन हुआ। भावरा का नाम अब आजाद नगर हो गया है। 27 फरवरी 1965 को मेरा रेडियो भाषण भी इन्दौर में हुआ था।

चन्द्रशेखर आजाद के क्रान्तिकारी जीवन के सम्बन्ध में उनके सच्चे सहयोगियों ने कई पुस्तकें लिखी हैं। उनको पढ़ने से सच्ची घटनाओं का दिग्दर्शन होता है। आजाद का कार्यकाल सन 1921 से लेकर 1931 तक यानी 10 वर्ष तक बहुत ही भीषण घटनाओं से भरा है। स्वतन्त्रता संग्राम में सन 1857 से ही महान् वीर सेनानी हुए हैं। उनमें उन वीरों के बलिदान से भारत माता को जो मोतियों का जयमाल पहनाया गया है उस माला में आजाद तथा उसके साथी सदैव चमकते हुए मोती रहेंगे 14 वर्ष की उम्र से जिस लगन और बहादुरी से अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद ने कर्मयोगी बनकर कमाल किया, वह स्वर्ण अक्षरों से लिखने लायक है। इन्हीं सच्चे, त्यागी, सुचरित्र, वीरों के बदौलत आज देश स्वतन्त्र हुआ है। संक्षेप में आजाद के कुछ उपरोक्त साहसिक, क्रान्तिकारी कार्यो की गाथा लिख सका हूँ, यों तो ऐसे वीर शिरोमणि का जीवन ही वीरता कार्यों से भरा रहा है जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता। वास्तव में आजाद के कार्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि आजाद शब्द ही हिन्दुस्तान के वीरता, त्याग एवं बलिदान का प्रतीक बन गया है। नीचे लिखे सिंहनाद से जो आजाद अक्सर कहा करते थे उनके द्दढ़ प्रतिज्ञ होने एवं आत्म-बल का परिचय मिलता है जिसे जीवन के अन्तिम क्षणों में उन्होंने कर दिखाया था। दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे। आजाद थे, आजाद हैं, आजाद ही रहेंगे ।।

इस छोटे से लेख में अधिक न लिखकर पाठकों से यही निवेदन है कि ऐसे शहीदों के जो स्मारक देश में बन रहे हैं, उनके बलिदानों से प्रेरणा लेकर हम लोग बिना भेदभाव के मिली हुई स्वतन्त्रता की रक्षा करें।