वह यादगार पल

डॉ. सतीश “बब्बा”
चित्रकूट

एक दिन मेरी बात डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय जी से हुई थी कि, ‘आपको 21 जुलाई को टाइम होगा क्या ?’ मैंने असमर्थता जताई थी कि, 21 जुलाई को मुझे गैवीनाथ धाम (फटहाबाबा) विरसिंहपुर जाना होगा, क्योंकि उस दिन पूर्णिमा के साथ – साथ गुरु पूर्णिमा भी है।

उस दिन तो मेरे साहित्यिक गुरु डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय ने कहा था कि, “चलो कोई बात नहीं है !” फिर एक दिन डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय जी का फोन आया कि, “आपकी उपस्थिति अनिवार्य है!” मैंने कहा — “चलो आने का प्रयास करूंगा !” मैंने जाने का संकल्प लिया ताकि दोनों गुरु मुझसे दर्शन के लिए नहीं छूटें ! मैंने 21 जुलाई 2024 रविवार को दो बजे रात में ही अपना बिस्तर छोड़ दिया। मेरे तख्त ने कहा भी कि, ‘अभी रात बहुत बाकी है!’ पर, मैं कहां मानने वाला – मैं अपने काम के प्रति संकल्पबद्ध जो था!

मैंने प्रातः कालीन सभी क्रियाएं पूरी कर; नहा धोकर सुबह के तीन बजे ही अपनी बसंती ( एक्टिवा ) से चल पड़ा; वीरसिंहपुर की ओर !

मैंने पढ़ा भी है और सुना भी है कि, ‘हर जिंदगी में कहानी है और हर कहानी में जिंदगी है !’ रास्ते में घनघोर जंगल धारकुंडी पड़ता है। आपने भी धारकुंडी जंगल की रोमांचक कहानियां सुनी होंगी — जंगली जानवरों और डाकुओं की डरावनी कहानियां।

मुझे अपनी बसंती पर भरोसा था। मैंने बसंती को बढ़ाया, दौड़ाया, मुझे डाकुओं का भय इसलिए नहीं लग रहा था कि, मैं एक साहित्यकार और पत्रकार हूं, वैसे भी वह जानते हैं कि, इस फटीचर के पास कुछ भी नहीं होगा। रही बात शेर की जो बहुत से लोगों को मिला है और पसीने छुड़ाए हैं। एक आस्था जागी कि, मैं जिसके दर्शन के लिए जा रहा हूं वो माता पार्वती दुर्गा रूप में उस पर सवारी करती हैं। मैं तो पार्वती और पार्वती पति शंकर के लिए जा रहा हूं। डर किस बात का।

वास्तव में भयावह जंगल में जंगली पशु – पक्षी और जानवरों की आवाजें भय तो पैदा करती हैं फिर भी प्रयागराज तो पहुंचना ही है। मेरी बसंती दौड़ती रही, रुकी नहीं। धारकुंडी के परमहंस आश्रम में गुरू पूर्णिमा को विशाल मेला लगता है और भंडारा भी होता है। पर, जंगल तो जंगल है, करीब पांच से छः किलोमीटर किस प्रकार से निकाला मैं ही जानता हूं। हिम्मत मैंने नहीं हारी हां ब्रेकरों पर गुस्सा आ रहा था क्योंकि संकरी सड़क पर ब्रेकर ऐसे बनाए गए हैं जहां, गाड़ी को जीरो की रफ्तार में, लगभग रोककर गाड़ी आगे बढ़ाना पड़ता था वरना सफर जल्दी ही तय हो जाता।

धारकुंडी जंगल में पहले यह सड़क नहीं पत्थरों से बना हुआ रपटा हुआ करता था। लोग चार पहिया वाहन में भी रात में यहां नहीं घुसा करते थे। अब आर सी सी रोड है सिर्फ ब्रेकर अखरते हैं। अब भी बहुत कम लोग रात में यहां से निकलते हैं और निकलते भी हैं तो अकेले मेरी तरह नहीं।

गेट पर जहां से उत्तर प्रदेश की सीमा समाप्त और मध्य प्रदेश की सीमा शुरू होती है वहां पहुंचा तो ब्रेकरों से निजात मिली और मंजिल करीब लगी। ढांढस और विस्वास के साथ चढ़ाई चढ़कर परमहंस आश्रम के पहले वाले दरवाजे पर पहुंचा। वहां पर कुछ साधु और मेले में दुकान लगाने आए व्यापारी जाग रहे थे। मैंने अब गाड़ी की घड़ी की ओर देखा चार बजने में अभी सात मिनट बाकी थे। मैं बहुत खुश हुआ, जहां दिन में अकेले चलने में लोग डरते हैं; मैं रात में नहीं डरा !

सुबह एक अखबार की कतरन योगेन्द्र मिश्र ने जो मेरे दूसरे नंबर के सुपुत्र हैं और जबलपुर में रहते हैं, भेजा था जिसमें एक समाचार का शीर्षक था कि, धारकुंडी जंगल में सड़क के बाजू दिखा तेंदुआ ! मुझे क्या, रहा होगा ! सड़क में नहीं आया था जब मैं वहां से निकल रहा था। सड़क किनारे दोनों तरफ घनघोर जंगल, पहाड़ हैं; उससे मेरा क्या लेना देना ? वह तो जानवरों का घर ही है।

मेरे घर से गैवीनाथ धाम, फटहाबाबा वीरसिंहपुर पूरे साठ किलोमीटर है और फिर वहां से वापस चालीस किलोमीटर मानिकपुर स्टेशन पर आया और बसंती को वहीं पास में ही एक पहचान के मिश्र जी के यहां खड़ी कर दिया। टिकिट खिड़की से देखा एक गाड़ी खड़ी थी। टिकिट लिया और जाकर उसमें बैठ गया। वह गाड़ी पवन एक्सप्रेस थी जो शायद मेरे ही इंतजार में खड़ी थी। वह मेरे बैठते ही चल पड़ी। ट्रेन में ही प्रदीप का फोन आया।

प्रदीप डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय के घर पर ही था। मैंने डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय जी से बताया कि, ‘मैं सारनाथ एक्सप्रेस से पहले पवन एक्सप्रेस से आ रहा हूं !’ सुनकर उनकी खुशी मोबाइल फोन पर भी समझ में आ रही थी।

मुझे गर्व है डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय जी पर कि, वह अपनी मां की स्मृति में, माता राजपती देवी स्मृति साहित्य सम्मान महिला रचनाकारों को देकर, मां के साथ बिताए दिनों की याद करके बहुत ही भावुक हो जाते हैं और उपस्थित जनसमूह को भी भावविभोर कर देते हैं। मुझे कार्यक्रम स्थल ज्वाला देवी सरस्वती विद्या मंदिर मम्फोर्डगंज पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं हुई। वहां पहुंचकर मैंने अपने आपको धन्य माना और जीवन को सार्थक समझा क्योंकि बहुत से उच्च कोटि के साहित्यकारों में जिनमें बहुतायत महिला रचनाकारों के दर्शन मुझे किसी तीर्थ से कम नहीं लग रहे थे और मुझे अदृश्य सरस्वती में स्नान करने जैसा लग रहा था। मैं उस प्रयागराज की पावन धरा में, जहां गंगा यमुना और अदृश्य सरस्वती का संगम है। लोग पूछते हैं कि, ‘आप गंगा नहा कर आए !’

मैंने 21 जुलाई 24, गुरु पूर्णिमा को अपने साहित्यिक गुरु डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय का सानिध्य प्राप्त किया और सरस्वती का प्रत्यक्ष दर्शन और स्नान किया है जो; सबको संभव कहां होता है ! युगों युगों से पुराणों और वेदों में प्रयागराज को सरस्वती का निवास स्थान कहा गया है। मैं सरस्वती की लहरों में गोते लगा रहा था।

वहां पर उपस्थित सैकड़ों की तादाद में महिला रचनाकारों, साहित्यकारों से मिलने का हृदयेश अवसर मिला और बहुत से पुरुष साहित्यकारों से मिलने का शुभ अवसर मिला। अपनी बहन जया मोहन से मिलकर मैं भी और वो भी बहुत खुश हुए और गीता चौबे, गूंज बेंगलुरु से मिलने का अवसर मिला जो संचार माध्यम से मिलती थीं और आज आमने-सामने मिलकर बहुत खुशी हुई, उनके पति भी बहुत मिलनसार व्यक्तित्व के धनी लगे।

इस संस्मरण में इतने सारे लोगों का नाम कहना बहुत कठिन है। यह इतनी कठिन तपस्या करने के बाद मैंने प्राप्त किया है जो ऐतिहासिक यादगार के रूप में याद किया जाता रहेगा। डॉ. राम लखन चौरसिया ने पुस्तक प्रदर्शनी का कार्य संभाला था। जिस प्रदर्शिनी में मेरी भी पुस्तकें शामिल की गई थीं। मैंने देखा इतनी अच्छी बाल रचनाओं वाली डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय की और मेरी पुस्तक सूखे पत्तों का पानी को लोग उठाते और देखते, पन्ने पलटते फिर रख देते, वह पुस्तकें खरीदने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पाए।

डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय की पुस्तक तोते का स्कूल और परी और पीहू को भी लोग नहीं ले सके ! कार्यक्रम शुरू किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसिद्ध रचनाकार बहन जया मोहन ने किया। मुख्य अतिथि मुनेश्वर मिश्र सहित छः विद्वान मंच पर आसीन थे। सबसे पहले सरस्वती प्रतिमा पर माल्यार्पण किया गया फिर दीप प्रज्ज्वलित करके ज्वाला देवी सरस्वती विद्या मंदिर की बहनों ने गीत गाए।

लेखिका जया मोहन एवं और बहुत सी देश भर से आई महिला रचनाकारों को अंगवस्त्र, माला एवं प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया गया। यह कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर का था। मेरी पुस्तक ‘भखाराम नहीं रहे’ का लोकार्पण किया गया और भी कई रचनाकारों जैसे जया मोहन और डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय जैसे लेखकों की पुस्तकों का तालियों की गड़गड़ाहट के बीच विमोचन किया गया। और रचनाकारों के साथ मुझे भी सारस्वत सम्मान से नवाजा गया।

डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय के संचालन में कार्यक्रम बहुत ही अच्छा रहा; जितनी भी सराहना की जाए कम होगी ! साहित्यकारों के लिए जलपान और भोजन की व्यवस्था बहुत ही उत्तम थी। मैंने भी डॉ. सुभाष चन्द्रा एवं नीलाक्षी के साथ भोजन किया। कार्यक्रम में ज्वाला देवी सरस्वती विद्या मंदिर मम्फोर्डगंज का बहुत ही अच्छा सहयोग था। विद्यालय प्रबंधन के साथियों, बहनों शिक्षिकाओं का बहुत बढ़िया सराहनीय योगदान रहा था। उन्होंने मंगलमय स्वागत गीत और सरस्वती वंदना भी गाया।

कार्यक्रम में मैं सम्मान पाकर धन्य हो गया। यह मेरे जीवन का कभी नहीं भूलने वाला संस्मरणीय यादगार पल बन गया है। मैं आयोजक मंडल में डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय और डॉ. पवनेश उपाध्याय पवन को साधुवाद देना चाहूंगा और उनके द्वारा मुझ नाचीज को भी सम्मानित किया गया जो, मेरे लिए बहुत ही यादगार, कभी भी नहीं भूलने वाला संस्मरणीय पल होगा।

डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय जो मानव रूप में साक्षात देवता कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अपने जीवन के अनुभव में डा. भगवान प्रसाद उपाध्याय की जितनी तारीफ करूं कम होगी ठीक वैसे ही जैसे सूर्य को दीपक दिखाना होगा।

मैं लौटकर घर आया और लोगों ने वही प्रश्न दोहराया कि, “प्रयागराज गए थे गंगा स्नान किया ?” उनके लिए मेरा एक ही जवाब है, “सर्व पुण्य सलिला सरस्वती का स्नान मैंने किया है !” शायद ही कोई मेरे इस जवाब को समझा होगा !

बहुत से आयोजन मैंने देखे हैं लेकिन 21 जुलाई 24 गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर यह राजपती देवी स्मृति साहित्य सम्मान जो हनुमान प्रसाद उपाध्याय पुस्तकालय द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय के संचालन में ऐतिहासिक यादगार बन गया। इतने कष्टों के बावजूद मैं भी पहुंच गया। अगर नहीं पहुंच पाता तो इस परम सुख से वंचित रहकर पछतावा में जलता रहता।

वास्तव में जिस निष्ठा से मैं गया, उस निष्ठा और पूजा का फल मुझे मिला जो जीवन पर्यन्त याद रहेगा और इस संस्मरण के माध्यम से दस्तावेज के रूप में, सदा सुरक्षित, संवलित रहेगा !