लीला लड्डू गोपाल की

पं. राकेश राज मिश्र “जिज्ञासु” कानपुर

मेरी मां वैष्णव संप्रदाय से थीं और पिताजी आर्य समाज के अनुयाई। धार्मिक आस्था दोनो में थी किंतु प्रकृति एक दूसरे के विपरीत। मां के पूजा पाठ में छुआछूत बहुत था जिसे पिताजी ने स्वीकारा तो नहीं किंतु कभी असहयोग भी नहीं किया। पिताजी का विश्वास हवन आदि में भरपूर था और घर में नियमित हवन पूजन होता रहता था जिसमें मां का पूरा सहयोग रहता।

सगुण साकार और निर्गुण निराकार के इस अद्भुत संयोग का प्रभाव मेरे मन मस्तिष्क पर ऐसा पड़ा कि सगुण स्वरूप श्री कृष्ण मेरे आराध्य देव तो हैं किंतु मंदिर जाकर उनके दर्शन की अभिलाषा कभी नहीं रही। क्योंकि उनकी सर्वव्यापकता में मेरी प्रबल आस्था है। मंदिर में स्थापित प्रतिमाओं में मुझे उनके दर्शन नहीं होते इस कारण मंदिर जाना मुझे निरर्थक सा लगता है। यदि किसी कारण मंदिर जाने का संयोग बना तो वहां स्थापित प्रतिमाओं के प्रति मन में कोई निरादर का भाव भी नहीं है। वे आम लोगों की श्रद्धा का प्रतीक हैं, श्रद्धापूर्वक उनको नमन करने में कभी पीछे भी नहीं रहता। 

मुझे याद है सन 1980 में अपनी व्यावसायिक यात्रा के संदर्भ में जब पहली बार मथुरा नगरी जाने का संयोग बना तो प्रस्थान के समय मेरी नानी ने मेरा टीका किया यह कहते हुए कि मैं तीर्थ यात्रा पर जा रहा हूं। उन्होंने एक 50 पैसे का सिक्का निकालकर मुझे दिया और कहा कि इसे मैं यमुनाजी में छोड़ दूं। मैंने सिक्का तो उनके निर्देश के अनुसार छोड़ दिया किंतु उनके तीर्थ श्री द्वारिकाधीश के मंदिर में जाकर दर्शन करने की श्रद्धा नहीं बनी।

उसके बाद 12 वर्षों तक तो मेरा वहां जाना लगभग प्रति माह रहा। प्रत्येक टूर प्रायः दो दिन का होता था और वहां पर श्री कृष्ण जन्म स्थान में स्थित अंतरराष्ट्रीय विश्रामगृह में ठहरना होता था क्योंकि सुविधा और

शुल्क के हिसाब से वह सर्वोत्तम था। वहां ठहरता अवश्य था किंतु मंदिर जाकर दर्शन करने की इच्छा कभी नहीं हुई। सन 1986 में एक बार परिवार के साथ वहां जाने का संयोग बना तब परिवार के साथ जाकर मंदिर की भव्यता और प्रभु के दर्शन किए, अच्छा बहुत लगा।

इसके बाद एक लंबे अंतराल के बाद व्यापार के ही सिलसिले में सन 2007 में वहां जाने का संयोग बना। दो लोग दिल्ली से आकर मेरे साथ जुड़े। और हम सब वहीं अंतर्राष्ट्रीय विश्राम गृह में ही ठहरे। सुबह मेरी मॉर्निंग वॉक की आदत है। साथ के दोनों को मंदिर जाकर दर्शन करने थे इस कारण हम तीनों साथ ही निकले। मंदिर के प्रवेश द्वार पर उन्हें छोड़कर मैंने कहा आप लोग दर्शन कर लो, मैं तब तक वॉक करके आ जाता हूं। उन्होंने पूछा कि आप नहीं करोगे तो मैंने कहा मैं तो करता ही रहता हूं, आप लोग कर लो।

वॉक करते समय मोबाइल मेरे हाथ में रहता है। अचानक मैंने महसूस किया कि मेरे हाथ में मोबाइल नहीं है। मैं फौरन कमरे में लौटा मोबाइल लेने को किंतु आश्चर्य ! मोबाइल वहां नहीं था ! हर वह जगह देख ली जहां वह हो सकता था, किंतु कहीं नहीं ! बहुत याद करने का प्रयास

किया तो ऐसा ध्यान आया कि जाते समय उठाया तो था। फिर जाकर मंदिर के प्रवेश द्वार तक देख दिया किंतु कहीं नहीं दिखा। इतनी देर में वह दोनों दर्शन करके लौट आए। उन्हें बताया तो उन्होंने मेरा नंबर मिलाया पर कोई उत्तर नहीं। कितनी ही बार प्रयास किया, घंटी पूरी बजती थी पर प्रतिक्रिया नहीं होती।

उनके ही नंबर से अपने घर में फोन करके बता दिया कि मेरा फोन खो गया है, कोई विशेष बात हो तो इस नंबर पर संपर्क हो सकता है मुझसे। अब मुझे लगने लगा कि प्रभु को आज मेरे द्वारा उनकी उपेक्षा अच्छी नहीं लगी। मैंने मन ही मन उनसे क्षमा याचना की और विचार किया कि यदि मोबाइल मिल जाएगा तो 101 रुपए का प्रसाद चढ़ाऊंगा और 51 रुपए दान पात्र में डालूंगा। यद्यपि ये मेरी प्रकृति में नहीं है फिर भी मन में आ गया तो आ गया।

मन में ऐसा आने के पीछे गुरु जी की सुनाई एक कथा की भूमिका रही। गुरुजी ने एक बार भक्ति भाव का एक अनूठा किस्सा सुनाया था। बृंदावन के निकट किसी गांव में एक संत पुरुष रहते थे जिन्हें लोग कांछी बाबा के नाम से जानते थे ! उनके पास लड्डू गोपाल की एक प्रतिमा थी जिसका पालन पोषण वे अपने बालक की भांति करते थे। हर समय उनसे कुछ ना कुछ संवाद करते रहते। रात्रि में पास ही सुलाते, स्वयं को सर्दी लगे तो कहते कि लाला को सर्दी लग रही होगी ! तुरंत उन्हें ओढ़ना उढ़ाते ! स्वयं को गर्मी लगे तो बोलते लाला को गर्मी लग रही होगी और उन्हें पंखा करने लगते।

सुबह उठते ही बोलते “गोपाल जी राधे-राधे ! उठ जा लाला भोर है गई ! देख तो बाहर पंछी कब से पुकार रए ! उठ जा अब”। उठा कर बिठाते, बिस्तर तह करते, फिर बोलते “चल लाला अब स्नान है जाय !” प्यार से उन्हें नहलाते, वस्त्र बदलते और बराबर कुछ ना कुछ संवाद

करते रहते। उसके बाद कहते कि चलो अब भिक्षाटन है जाय ! उन्हें साथ ही लेकर निकलते, जो कुछ भी मिल जाय उसे उनके समक्ष प्रस्तुत कर देते “ले लाला आज जे मिलो है !” और उसके बाद उसे प्रसाद मानकर स्वयं ग्रहण कर लेते। गांव में हर कोई उनका सम्मान करता था इस कारण कोई समस्या नहीं थी जीवन आनंद पूर्वक चल रहा था।

एक दिन कांछी बाबा ने सुना कि आने वाले रविवार से बृंदावन में भागवत शुरू होने वाली है। कांछी बाबा ने सुन रखा था कि भागवत श्रवण से मोक्ष की प्राप्ति होती है। सो निश्चय किया कि मोक्ष प्राप्ति का यह अवसर हाथ से नहीं जाने देना है। निश्चय करते ही लड्डू गोपाल से बोले कि बृंदावन में भागवत शुरू है रई, जानो है। एसो करंगों कि तुमे मंदिर में छोड़ दूंगों वहां पे तुमाई सेवा है जागी कायदे से। हमाए साथ तो बड़ी दिक्कत है जागी। अनजान जगह, न ठहरबे को ठिकानो न ख़ायबे को ! हमाई का है, गुजर है जागी जैसे तैसे ! तुमे दिक्कत होगी। इसके बाद जब तक प्रस्थान का समय नहीं आ गया लड्डू गोपाल को समझाते रहे कि तुम चिंता मती करियो, भागवत खतम होतेई भाग के आ जांगे तुमाये

पास, बस आठ दस दिन की तो बात है। जब चलने का समय आया तो बोले अब निकलो जाय, तुमे मंदिर छोड़ते भए निकल जांगे। मंदिर पहुंचे, वहां के पुजारी को सौंपते हुए खुद उनकी ही आँखें भर आईं ! बोले ऐसे का देख रए ! अच्छो तो मोकोऊं ना लगेगो तुमए बिना ! पर का करें तुमई दिक्कत को खयाल आवे। का कै रओ ? कोई दिक्कत ना होवेगी ? ठीक है फिर चल !

इस प्रकार अपने लड्डू गोपाल को साथ लेकर काँछी बाबा चल दिए भागवत सुनने ! वहां पहुंचकर यमुना जी के किनारे एक छोटी सी मठिया में ठिकाना बनाया। जब तक भागवत हो भागवत सुनें, उसके बाद लड्डू

गोपाल से चर्चा करें कि ब्यास जी जे कै रए थे, ब्यास जी जे कै रए थे। लड्डू गोपाल से उनकी इस प्रकार की चर्चा वहां पर चर्चा का विषय बन गई। अधिकांश लोग उनकी भक्ति भाव को बड़ी श्रृद्धा के साथ देखते।

इस प्रकार एक सप्ताह बीत गया आराम से। आठवें दिन कुछ ऐसा हुआ कि कांछी बाबा को भिक्षा में सिर्फ एक सूखी रोटी मिली, और कुछ न मिला। बोले लड्डू गोपाल से आज तो खाली रोटी मिली है, नमकऊ ना मिलो। एसो करत हैं, जमुना जल में भिजोये देत हैं खा लेओ। उन्होंने रोटी जल में भिगो कर रख दी। थोड़ी देर में बोले नईं खाए जा रई ! अब हम काँ से लए आवें नमक ? खा लो ऐसेई, आजई की तो बात है। कल तो भंडाराे होनो है। न खाए होए तो फिर आपै करो व्यवस्था नमक की।

इधर ये चल रहा था उधर यमुना जी में किसी व्यापारी की नाव एक जगह रुक गई और ऐसी अटक गई कि वहां से हिलने को भी तैयार नहीं ! जैसे किसी ने जंजीरों से बांध दिया हो मजबूती के साथ। व्यापारी ने बृंदावन के चमत्कारों के विषय में काफी सुन रखा था। वह तैर कर किनारे पहुंचा और लोगों से अपनी समस्या बताई। लोग भी सुनकर आश्चर्यचकित ! किसी ने कहा इन्हें उन बाबा के पास ले चलते हैं जो दिनभर ठाकुर जी से बात किया करते हैं। क्या पता कि चमत्कार कर दें।

वे सब पहुंचे कांछी बाबा के पास और बताई समस्या। सुनते ही कांछी बाबा बोले कि तुम्हाई नाव में नमक है का ? यह सुनते ही व्यापारी साष्टांग दंडवत करते हुए बोला आप तो अंतर्यामी हैं महाराज ! नमक की बोरियां हैं, बाजार में पहुंचानी हैं। कांछी बाबा लड्डू गोपाल से बोले वाह महाराज कर लई व्यवस्था आपने ! फिर व्यापारी से बोले भइया बामे से थोड़ो सो नमक लाके हमें दै देओ, फिर जाओ। उसने लाकर नमक दे दिया और नाव चल पड़ी।

थोड़ी देर में घर से फोन आया कि मेरा फोन त्रिवेणी नाम के किसी व्यक्ति को मिला है, वह जन्मभूमि गेट के ठीक सामने चाय के होटल में बैठा है, उसने सफेद सफारी सूट पहना हुआ है। मैं उससे अपना फोन वापस पा सकता हूं। फिर क्या था भागा भागा पहुंचा वहां। त्रिवेणी जी तो नहीं मिले, मेरा फोन मिल गया। पता चला कि सामने सड़क पर पड़ा था लड़के की नजर पड़ी तो उठा कर रख लिया। होटल मालिक त्रिवेणी जी आए तो उन्होंने लास्ट डायल्ड नंबर पर कॉल किया जोकि मेरे घर का था, और सूचना दे दी कि फोन उनके पास है।

यह सुनकर स्पष्ट हो गया कि प्रभु की लीला देखने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हो गया ! अन्यथा ऐसा कैसे संभव था कि फोन हाथ से छूट गया और मैं जान ही नहीं पाया। मैने पूरी ईमानदारी के साथ 101 रुपए के पेड़े खरीदे और पहुंच गया मंदिर, प्रसाद चढ़ाया, दान पात्र में 51 रुपए डाले और दोनों हाथ जोड़कर भगवान श्रीकृष्ण के सामने खड़ा हो गया। कहा कुछ नहीं, मन में भाव ठीक वैसे ही थे जैसे बचपन में कभी कोई गलती पकड़े जाने पर मां के समक्ष होते थे।