यूँ तो, कथा साहित्य के लेखन का इतिहास अत्यंत प्राचीन है पर आधुनिक काल में इसका उद्भव 1874 के आस - पास का है । " बिहार - बन्धु " में पटना के स्कूल शिक्षक मुंशी हसन अली की लघु कथाएं प्रकाशित मिलती हैं, तत्पश्चात 1875 में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की लघु कथा - "परिहासिनी" का वर्णन मिलता है। लघुकथा में शीर्षक की परंपरा भारतेन्दु की देन है। हिंदी साहित्य की प्रथम लघुकथा भारतेन्दु हरिश्चंद्र की -"अंगहीन धनी" को ही माना जाता है । माधव राव की लघु कथा - “एक टोकरी भर मिट्टी” को लघु कथा की कसौटी पर खरा माना गया है। भारतेन्दु के बाद इस विधा के अनेक कथाकार आये - माखनलाल चतुर्वेदी, पदुमलाल पन्नालाल बख्शी, कन्हैया लाल मिश्र, रामधारी सिंह दिनकर, जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद आदि। इस प्रकार लघुकथा विकास करती हुई उन्नीसवीं सदी में प्रवेश कर गई। 1942 में बुद्धिनाथ झा ने शार्ट स्टोरी को लघुकथा का नाम दिया, छोटी कथा यानी लघु कथा के नाम से यह सम्मानित हुई। जीवन की द्रुतगमिता और संघर्ष के फलस्वरूप इसकी अभिव्यक्ति की संक्षिप्तता ने कहानी के क्षेत्र में लघु कथा को प्रगतिशील बनाया। आजादी के बाद लघुकथा सृजन में त्वरा आई और वह सफलता के नए सोपान चढ़ने लगी। आधुनिक युग के सातवें दशक के आस-पास लघु कथा के कथानक समय के कठोर धरातल पर, यथार्थ को कल्पना का पुट देकर प्रस्तुत करने लगे। इस सृजन यात्रा में अनेक कथाकार आये -- सतीश दुबे, श्यामनन्द शास्त्री, रावी, विक्रम सोनी, उपेंद्र नाथ अश्क, आदि की कथाओं ने पाठकों को बहुत प्रभावित किया। सन् 1975 का समय देश के लिए आपातकालीन समय था, परिणाम स्वरूप कागज की कमी आई, लघुकारिय विधाओं के लिये कागज का यह संकट शुभ रहा। शुभ इसलिए कि पत्रिकाओं में लघुकारिय रचनाओं को बढ़ावा मिलने लगा। वस्तुतः लघु कथा साहित्य जगत की सशक्त विधा के रूप में सामने आई और इसने धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक, पारिवारिक समस्याओं की विसंगतियों को बड़े अच्छे से उभारा। यह सत्य है कि समय परिवर्तनशील होता है, युग परिवर्तन के साथ साहित्य में भी बदलाव आना नियमानुसार सही है। साहित्य समाज का दर्पण है, सामर्थ्य हाथों के सृजन की शक्ति होती है। साहित्य जैविक है, नव निर्माण, नवीन प्रयोग समय की आवश्यकता है। समय के साथ नये लघु कथाकारों की भीड़ उमड़ पड़ी। नवोदय कथाकार जल्दबाजी में अपनी रचना प्रस्तुत करने लगे हैं, जिससे उन्हें लघुकथा जगत में कामयाबी नहीं मिली। यह लघुकथा की ज्वलन्त व्यथा है। नवोदय वर्तमान का मूल्यांकन अपने अनुभव के आधार पर अपने अनुरूप करते हैं, यह एक विचारणीय विषय है कि लघु कथा कहां से चली और कहां पहुंच गई, इसके सृजन की प्रौढ़ता में कोई संदेह नहीं है परंतु इसकी लेखन शैली में कुछ मुख्य मानक को नजरअंदाज कर देना ही इस विधा की मुख्य समस्या है। लघुकथाकारों की आपसी मत भिन्नताएं भी इसकी एक अनूठी समस्या है। वर्तमान समय कोरोना काल का समय है, समय ठहर सा गया है, इस क्षतिग्रस्त समय में - मानों लघुकथा सृजन में बाढ़ सी आ गई है, परन्तु प्रश्न यह है कि यह सृजन किस कोटि का है। ऑनलाइन, फेस बुक आदि पर निजी ग्रुप, निजी चैनलों पर नित नई लघु कथाएं आ रहीं हैं, यह एक शुभ संकेत है, पर देखना यह है कि ये कथाएँ लघुकथा मानक की बुनावट और कसावट पर सही उतरती हैं कि नहीं ? हर पीली वस्तु सोना नहीं होती, उसी प्रकार हर कथा लघु कथा नहीं होती। लघु कथा वो कथा है जो समय के सत्य को पुष्ट करती हो, रोमांच पैदा करने की क्षमता रखती हो, कुछ सोचने पर मजबूर करती हो, ऐसी ही लघु कथा जीवन का दिशा निर्देश करती हैं, जरा सी भी बनावट की चूक लघु कथा को कमजोर कर देती है, यही आज की लघु कथाओं से स्पष्ट दर्शित हो रहा है। यही चूक लघु कथा पर मंडराता गहरा संकट है, जो प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष रूप से प्रदर्शित हो रहा है ।