राम कपिन्ह जब आवत देखा

कानपुर
ऋष्यमूक पर्वत की एक शिला पर विराजमान “राम एवं लखनलाल”। वानरराज सुग्रीव पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर दिशा से आए कपिदल से जानकी अन्वेषण के उनके प्रयासों का संज्ञान ले रहे थे। इन सभी दिशाओं से सफलता की संभावना कम ही थी, अब प्रतीक्षा थी दक्षिण दिशा की ओर गए कपिदल की। एक माह का समय पूरा हो रहा था। व्यग्र सुग्रीव पर्वत के विभिन्न स्थानों से चारों ओर जा कर पुनः शिला तक लौट आते हैं। व्यग्रता अधिक होने पर पर्वत से नीचे उतर कर एक विशाल वृक्ष पर चढ़कर चतुर्दिक देखते हुए निराश हो कर एक शिला पर बैठे हुए विचार करने लगे—‘अग्नि को साक्षी मानकर “श्रीराम” के साथ परस्पर मित्रता निभाने का वचन लिया गया था। “श्रीराम” ने तो मित्र धर्म निभा दिया किन्तु मेरा वचन पूर्ण नहीं हो पा रहा है’।
निराशा में यदा कदा आशा जगती है कि दक्षिण दिशा के दल में परम प्रतापी ‘ऋक्षराज जामवंत’, ‘युवराज अंगद’, ‘नल’, ‘नील’ के साथ ही मेरे अतिप्रिय विवेकशील ‘महावीर हनुमान’ भी हैं। हो सकता है वे सभी इस महा अभियान में सक्रिय हों। आशा-निराशा के इस ऊहापोह में व्यग्र सुग्रीव को एक परिचित ध्वनि पड़ी—‘वानरराज, आपके प्रिय वन ”मधुवन” को वानरों ने उजाड़ दिया है, यही नहीं हमारे रक्षकों के प्रतिरोध करने पर उन्हें आघात भी पहुंचाया है, वह भी ”युवराज अंगद” के नेतृत्व में’।
वानरराज सुग्रीव ने देखा—उनके मामा ‘दधिमुख’ कुछ अन्य वानरों के साथ आते हुए और यह समाचार उन्होंने ही दिया है। तत्परता से सुग्रीव उन तक पहुंचे और देखा आघात से घायल दधिमुख और अन्य कपिगण। सुग्रीव का अतिप्रिय वन था मधुवन, जिसकी सुरक्षा का दायित्व दिया गया था अति बलशाली दधिमुख को। इस वन में थे अनेकों प्रकार के विशाल फलदार वृक्ष। मधु के छत्ते भी इन्हीं वृक्षों पर थे। विभिन्न प्रकार के सुमधुर फलों तथा सुस्वादु मधु से भरपूर इस वन को रीछों तथा वानरों से सुरक्षित रखने के लिये दधिमुख की सहायता के लिए थी वानर सेना।
‘मधुवन उजाड़’ का समाचार सुग्रीव को उद्वेलित कर गया। अभी तक दक्षिण दिशा को गए कपिदल के न आने से चिंतित थे ही उस पर प्रिय मधुवन का यह समाचार।अत्यंत क्रोध से उन्होंने दधिमुख से प्रश्न किया—-‘किसका है यह दुस्साहस? आप तो स्वयं इतने बलशाली हैं और आपकी सहायता के लिए वानर सेना भी है फिर भी ऐसा कैसे हो गया? आप सब इस घायल अवस्था में कैसे? मुझे सारे समाचार से अवगत कराएं, जिसने भी ऐसी उद्दंडता की है उसे इसका परिणाम भुगतना ही पड़ेगा’।
दधिमुख ने लगभग कराहते हुए कहा—महाराज, नित्य की भांति मैं अपनी सेना के साथ मधुवन की रखवाली में प्रस्तुत था, अचानक वानरों का एक दल ‘जय श्री राम’ ‘जय हनुमान’ का उच्च स्वर में नाद करते हुए आया। सतर्क सैनिक उनके प्रवेश में बाधा दे ही रहे थे कि अन्य कपियों के दल भी आ गए। वे सभी इतने उत्साह और उल्लास में थे कि हमारे सैनिकों को घायल करते हुए मधुवन में प्रवेश कर गए। उसी उत्साह में वे फल का आहार एवं मधु का पान करने लगे।ऐसा लगता था जैसे कई दिनों बाद उन्हें आहार मिला है। यहां तक तो ठीक था किन्तु फल एवं मधु छककर खा लेने के पश्चात सभी खेल सा करते हुए अति आनन्दित होते हुए “जय श्रीराम” का नाद करते हुए वृक्षों को उजाड़ने लगे। हमारे सैनिकों ने पुनः बाधा दी तो उन पर प्रहार कर घायल कर दिया। समाचार मिलने पर मैंने ललकारते हुए उन्हें चेतावनी दी—यह महाराज सुग्रीव का अतिप्रिय वन है, तुम लोगों का इतना दुस्साहस? किसके आदेश से इस वन में प्रवेश कर इसे उजाड़ रहे हो? इसकी परिणति भुगतनी ही होगी।
मैं इतना कह ही रहा था कि कुछ वानर मुझ पर टूट पड़े, तभी एक गम्भीर ध्वनि सुनाई पड़ी—-‘मेरे आदेश से’। यह ध्वनि थी युवराज अंगद की। उन्होंने पुनः कहा मेरे आदेश से। मैंने प्रतिकार करने का प्रयास किया किंतु तभी कुछ वानरों ने मुझ पर भी प्रहार कर दिया। युवराज अंगद ने पुनः कहा ‘इन वानरों को जैसे भी जिस वृक्ष से जो जो लेना है लेने दो, कोई प्रतिरोध नहीं करेगा’ उत्साहित वानरों ने मुझे और मेरी सेना पर प्रहार कर वहां से भागने पर मजबूर कर दिया।
भाग कर आपको सूचित करने की प्रक्रिया में मैंने देखा ‘ऋक्षराज जामवंत’, ‘नल’, ‘नील’ एवं ‘आंजनेय हनुमत’। सभी “अत्यंत प्रसन्नता एवं उत्साह” से मधुबन में प्रवेश कर रहे हैं। दधिमुख ने सोचा था कि वानर राज ‘मधुबन उजाड़’ का समाचार सुनकर अति क्रोध से वानर सेना उनके सहायतार्थ भेजेंगे और उन्हें यह भी भली-भांति ज्ञात था कि ‘बालि-पुत्र अंगद केवल प्रभु श्री राम की अनुकंपा से ही युवराज बनाए गए हैं’ अतः सुग्रीव कोई ‘कठोर निर्णय लेंगे’। इसी संभावना से दधिमुख ने घटनाक्रम का वर्णन भी किया था किंतु उन्होंने देखा सुग्रीव की ‘क्रोध युक्त भाव भंगिमा’ सहसा “शांत एवं संतोष” की मुद्रा में बदलते।
सुग्रीव ने मन ही मन विचार किया यदि राम का काज पूर्ण न हुआ होता तो कपिदल निश्चित ही हतोत्साहित होता। यह उत्साह उल्लास ही है जिसके कारण वे मधुबन में पहुंचे हैं। युवराज अंगद मेरे इस प्रिय वन व इसके प्रति मेरी प्रीति को जानते ही है और इसमें उद्दंडता करने वाले के प्रति मेरे क्रोध को भी। जामवंत जी अत्यंत सूझबूझ वाले हैं, वह ऐसी उद्दंडता कभी सहन नहीं करते और मेरे सचिव आंजनेय हनुमत तो सर्वदा मेरे हित-चिंतक रहे हैं वह भी इस धृष्टता पर मौन ही नहीं उल्लसित हैं तो अवश्य ही कोई अति ‘महत्वपूर्ण घटनाक्रम’ है। संभवतः ही नहीं निश्चित रूप से राम काज भलीभांति पूर्ण हुआ है।
सुग्रीव ऐसा विचार कर ही रहे थे कि उन्हें दूर से ‘जय जयकार’ की ध्वनि सुनाई पड़ी कुछ उचककर उन्होंने देखा —‘वानर दल की जय जयकार के बीच जामवंत, अंगद, नल, नील एवं हनुमान’। उत्साह से उछलते कूदते वानर जय ‘श्री राम’ ‘जय हनुमान’ ‘जय वानरराज’ ‘जय युवराज’ के उच्च स्वर से नाद करते हुए। तत्परता से सुग्रीव जामवंत तक पहुंचे। जामवंत ने अत्यंत स्नेह से सुग्रीव को गले लगाते हुए कहा – ‘पवन तनय ने श्री राम का काज भलीभांति संपन्न कर दिया है’। सुग्रीव ने अत्यंत अनुराग से हनुमत को देखकर प्रश्न किया ‘क्या माता-सीता का पता चल गया है, कहां हैं, कैसी हैं और कैसे पता लगाया’? हनुमत हाथ जोड़ इतना ही कह सके “सब प्रभु श्री राम की ही कृपा है”। जामवंत ने सुग्रीव से कहा चलिए “श्री राम व्यग्र होंगे माता का समाचार सुनने को, वहीं संपूर्ण घटनाक्रम का वर्णन करूंगा”।
एक शिला पर “श्री राम” एवं “लखनलाल” बैठे थे। राम ने कुछ चिंतित स्वर में लखनलाल से कहा –जानकी का कोई समाचार अभी तक नहीं मिल पाया है। अन्य दिशा के कपिदल तो आ गए हैं, दक्षिण दिशा के कपिदल का कोई समाचार भी नहीं मिल रहा है। वानरराज सुग्रीव भी नहीं दिखाई दे रहे हैं। अन्य दिशाओं से निष्फल वानर दल निराश और निस्तेज से विभिन्न शिलाओं पर बैठे हुए हैं। लखनलाल ने प्रभु से कुछ कहना ही चाहा था कि एक आश्चर्यजनक घटनाक्रम परिलक्षित हुआ। अन्य दिशाओं के वानरों में जैसे नवीन ऊर्जा का संचार हुआ। वे सभी किलकारी मारते हुए पर्वत की शिलाओं से उछलते कूदते हुए नीचे भागने लगे। वानरों की इस हलचल से लखनलाल ने चौंक कर उनके भागने की दिशा की ओर देखा—अति उत्साह और उल्लास से आता हुआ दक्षिण दिशा को गया कपिदल, जिनके आनंद में सम्मिलित होते हुए अन्य कपिगण। उल्लसित लखनलाल ने प्रभु से कहा—“लगता है दक्षिण दिशा के कपिदल ने माता का पता लगा लिया है”। लखनलाल इतना कह ही रहे थे कि उच्च स्वर से जयजयकार की ध्वनि सुनाई दी। राम कुछ आश्वस्त हुए कि कार्य सफल हुआ है और वैदेही का पता चल गया है।
वानरों के समवेत जय-जयकार के बीच अति प्रसन्न-मुख एवं उत्साह से सुग्रीव और जामवंत प्रभु श्री राम के चरणों में प्रणाम करते हुए कहते हैं — “अंजनीसुत महावीर” ने कार्य सिद्ध कर दिया है।
संपूर्ण कपिदल “श्री राम” के चरणों में प्रणाम करने लगा, (परे सकल कपि चरनन्हि जाई)
तभी—
“पवन तनय के चरित सुहाए,
जामवंत रघुपतिहि सुनाए”।
