श्रृंगबेरपुर के राजा निषाद राज अपने राज दरबार में सचिवों के साथ विमर्श कर रहे थे तभी गुप्तचर ने आ कर सूचना दी- 'एक रथ जिस पर अयोध्या नरेश का ध्वज है, उसे वहां के सचिव हांक रहे हैं तथा रथ पर तीन तापस वेषधारी विराजमान हैं'।
निषादराज ने मन में विचार किया - अयोध्या नरेश के कोई अति विशिष्ट परिचित सन्त गण सम्भवतः गंगा स्नान हेतु पधार रहे हैं, सचिव स्वयं रथ हांक रहे हैं। निषादराज अपने सचिवों को समुचित व्यवस्था हेतु निर्देश दे ही रहे थे कि अन्य गुप्तचर ने सूचित किया 'रथ में अयोध्या के कुमार राम, देवी सीता तथा कुमार लखनलाल विराजित हैं, रथ आर्य सुमंत हांक रहे हैं। विचित्र बात यह लगी कि उन्नत किस्म के अश्व आगे चल तो रहे हैं किन्तु अत्यंत धीमी चाल से, और बार - बार पीछे मुड़कर देखते रहते हैं। आर्य सुमंत भी मलिन मुख से हैं। कुमार राम तथा देवी सीता के मुख मंडल पर सौम्यता है पर कुमार लखनलाल कुछ उद्विग्न से दिखे।'
कुमार राम का नाम सुनते ही निषादराज तुरंत सिंहासन से उठ गए और कहा - कुमार राम मेरे बाल सखा हैं, मित्र हैं - मैं स्वयं उनके पास जाऊंगा। माँ गंगा के दर्शन, पूजन तथा स्नान की समुचित व्यवस्था का निर्देश देते हुए निषादराज सचिवों तथा परिजनों के साथ स्वागत हेतु मार्ग तक आए। धीरे - धीरे रथ भी पहुँचा।
निषादराज को देख कुमार राम भार्या सीता तथा अनुज लखनलाल के साथ रथ से नीचे उतरे। निषादराज ने कुमार राम व देवी सीता को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया और कुमार लखनलाल को गले लगाया। उसने आश्चर्यमिश्रित हर्ष से राम से जिज्ञासा प्रकट की - प्रभु क्या किसी विशिष्ट संकल्प से इस वेष में गंगा स्नान हेतु पधारे हैं। राजकुमार स्वरूप में तो आप अत्यंत सुंदर लगते ही हैं, किन्तु आपका यह वेष भी अति सम्मोहक है।
गंगा स्नान हेतु सेवकों ने सारी व्यवस्था कर दी है,आप माँ गंगा के दर्शन, स्नान एवं पूजन पश्चात महल में पधार कर इस सेवक को सेवा का अवसर दे कृतार्थ करें और अपने राजकुमार स्वरूप में आ जाएं। मित्र निषादराज की प्रेम और भक्ति पूर्ण बातें सुन कुमार राम अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने निषादराज को बताया - मित्र मैं पूज्य पिता श्री के वचनों को पूरा करने हेतु पुर, ग्राम, नगर कहीं भी आश्रय नहीं लूंगा, वन में रहते हुए तापस धर्म निभाउंगा, अतः महल जाना सम्भव नहीं है। आश्चर्य एवं विस्मय से निषादराज ने जिज्ञासा प्रकट की - तब आर्य सुमंत ने सारा घटनाक्रम विस्तार पूर्वक बताया।
निषादराज सारी बातें सुन कर सन्न से रह गए। उन्होंने राम के चरणों मे गिर कर कहा - धन्य हैं मेरे मित्र, मेरे सखा, मेरे प्रभु। मैं आपके इस संकल्प को प्रणाम करता हूँ। अवश्य ही प्रभु इस लीला द्वारा कोई महत्वपूर्ण कार्य सिद्ध करना चाहते हैं। मैं आपके इस महत्कार्य में साधक बनना चाहता हूं, आप कुछ दूरी पर स्थित मेरे बगीचे तक चलें। वे उन्हें ले कर शीशम के वृक्षों से आच्छादित घने वन में आए। एक वृक्ष के नीचे सेवकों से कुश का बिछौना तैयार करवाया, तपस्वी भोजन के अनुरूप कंदमूल, फल तथा दोना भर - भर जल की व्यवस्था की।
सायंकाल हो रहा था। प्रभु ने संध्यावंदन पश्चात कुछ समय तक धर्म चर्चा की, तत्पश्चात वे देवी सीता सहित विश्राम हेतु प्रस्तुत हुए। निषादराज ने सुरक्षा हेतु सेवकों को पहले ही सतर्क कर दिया था, वे स्वयं लखनलाल के साथ कुछ दूरी पर बैठ विधि गति विचार कर कातर एवं भावुक हो रहे थे। पूरी रात इसी चर्चा में बीती।
प्रभु जब धर्म चर्चा कर रहे थे तभी झुंड के झुंड नगर व ग्रामवासी आकर भूमिष्ठ हो प्रणाम कर रहे थे। अयोध्या में घटित घटना जो सर्वविदित हो गई थी, वे विधि गति की चर्चा कर दु:खी हो रहे थे, किन्तु प्रसन्न भी हो रहे थे कि आज वे मुनि विश्वामित्र की यज्ञ रक्षा करने वाले, देवी अहिल्या का उद्धार करने वाले तथा शिव धनुष तोड़ने वाले कुमार राम का इतनी सहजता से दर्शन लाभ प्राप्त कर रहे थे। इतने पराक्रमी, भक्त वत्सल तथा मातृ पितृ भक्त कुमार राम का दर्शन उनके लिए अमूल्य निधि थी।
इन्हीं दर्शनार्थियों में एक केवट भी था। दर्शन करने वह भी आया था। राम के रूप, बल, मातृ-पितृ भक्ति की चर्चा तो सभी कर रहे थे, किन्तु वह तो अपलक राम के चरणों को ही निहार रहा था। इन चरणों के प्रताप से ही शिला हुई देवी अहिल्या अपने स्वरूप को पा कर धन्य हो पतिलोक गई थीं। उस प्रभाव को मन की आंखों से देख कर केवट पुलकित हो रहा था, नयनों से अश्रुधारा अनवरत बह रही थी। पुनः चरणों का दर्शन कर वह लौट गया।
प्रातःकाल प्रभु ने निषादराज से आगे की यात्रा हेतु कहा। निषादराज ने दंडवत करते हुए इसी वन में ही पूरा काल बिताने हेतु निवेदन किया। राम ने मित्र को समझाया - आगे के वनों में अनेक सिद्ध साधक, तपस्वी, ऋषि, मुनि होंगे, उनका दर्शन उनका सत्संग मेरे तापस धर्म को सफलीभूत करेगा।
निषादराज राम के आग्रह के आगे नतमस्तक हो गए। प्रभु राम देवी सीता, लखनलाल तथा निषादराज के साथ गंगा तट तक आए।
गंगा पार करने हेतु नौका की आवश्यकता थी। एक नाव पर केवट बैठा था। प्रभु ने उससे आग्रह किया - भैया उस उस पार जाना है ले जाओगे। केवट तो पिछले दिन से ही प्रभु चरणों के ध्यान में मगन था, सबको लगा उसने अनसुना कर दिया है। श्रृंगबेरपुर के राजा की उपस्थिति में उनके मित्र अयोध्या राज्य के ज्येष्ठ कुमार राम का आग्रह अनसुना करने वाले केवट का व्यवहार सभी को विचित्र लगा। प्रभु तो अंतर्यामी हैं, भक्त की दशा उन्हें विदित हो गई। उन्होंने केवट से गंगा पार कराने हेतु पुनः आग्रह किया। केवट जैसे नींद से जागा, चौंक कर प्रभु की ओर देख कर कहने लगा - पार तो ले जाऊंगा पर मेरी एक बात मानेंगे तब, पहले मैं आपके इन चरणों को पखारूँगा फिर नाव पर चढ़ाऊँगा। बड़ी शक्तिवान है इन चरणों की धूल - जिनके स्पर्श से शिला बनी मुनिपत्नी देवी अहिल्या अपने पूर्व स्वरूप में आ गई थीं। मेरी तो काठ की नौका है, यदि यह मुनिपत्नी हो गई तो मेरी और मेरे परिवार की जीविका कैसे चलेगी ? मानता हूँ, आप अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र हैं, कुमार लखनलाल के क्रोध को भी जानता हूँ, हमारे महाराज के आप मित्र हैं और महाराज स्वयं उपस्थित भी हैं किन्तु जब तक आपके चरण पखार नहीं लेता मैं अपनी नाव पर नहीं चढ़ाऊँगा।
भक्त वत्सल प्रभु अपने इस भोले, हठीले एवं सीधे सादे भक्त के वश में हो गए, हंसते हुए कहा - जैसी इच्छा हो करो, मुझे विलम्ब हो रहा है। प्रभु आज्ञा पा कर केवट आनंद से उछल पड़ा, दौड़ते हुए तट के समीप स्थित अपनी झोपड़ी तक चिल्लाते हुए परिवारजनों से कहा - जल्दी घाट पर आओ, और वह एक कठौता ले आया। उस कठौते में गंगाजल भर कर प्रभु को उसमे चरण डालने का आग्रह करता है। प्रभु भक्त की भक्ति के वशीभूत हो कठौते में चरण रखते हैं। अत्यंत आनंद और उमंग से केवट उन चरणों को पखारने लगा जिनका ध्यान विरंचि, शम्भु, सनकादिक मुनि, सिद्ध साधक, तपस्वी आदि निरंतर कर आत्मलीन रहते हैं। माँ गंगा कठौते में प्रभु नख देख आनंदित हो हिलोरें लेने लगीं।
प्रेम पुलकित केवट के नयनों से भक्ति और अनुरक्ति की अजस्र धारा भी प्रभु के चरण पखार रही थी। देवगण आनंदित हो पुष्प वर्षा कर केवट के भाग्य को सराहने लगे। केवट सपरिवार प्रभु का चरणोदक पान कर अपने पुरखों तक तृप्त कराता है। देवी सीता और लखनलाल प्रभु के इस हठीले भक्त के प्रति उनकी भक्त वत्सलता से सम्मोहित हो गए। केवट ने वन्दना करते हुए प्रभु राम, माँ सीता तथा लखनलाल को नाव पर चढ़ाया। नयनों में अश्रु लिए श्रृंगबेरपुर वासी प्रभु को निहार कर धन्य हो रहे थे। केवट ने प्रभु राम तथा माँ सीता को आसन दिया। लखनलाल उनके सामने विराजित हुए। केवट ने माँ गंगा को प्रणाम कर नौका बढ़ाई। जिसके नाम स्मरण से ही अधमाधम भी भव सागर तर जाता है, वही व्यक्तित्व गंगा पार करने हेतु केवट का सहारा लेता है। भक्त के लिये भगवान अपने को उसी की मंशा के अनुरूप ढाल लेते हैं।
उस पार देवी सीता ने विधिवत गंगा पूजन कर शुभाशीष प्राप्त किया। प्रभु राम संकोचवश थे, केवट को उतराई क्या दूं, माँ सीता ने मणि मुद्रिका देनी चाही पर केवट ने प्रभु तथा माँ सीता के चरणों मे गिर कर विनीत स्वर में कहा - आज तो मुझे सब कुछ मिल गया अब और नहीं चाहिये, हां यदि देना ही चाहते हैं तो वनवास पूर्ण कर जब वापस लौटें, तो इन चरणों का दर्शन पुनः मिले, तब आप जो भी देंगे शिरोधार्य होगा।
हठीले भक्त ने एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया ---- वनवास अवधि पूर्ण कर वापसी में प्रभु कई ऋषि मुनि आश्रम आये किन्तु भक्त केवट ही था जिसके पास वे दोबारा आए।