मुँह नोचवा

वो समय था 2002 के जून - जुलाई का, एक शाम हमारे पड़ोस में रहने वाली संध्या आती है और गपशप के दौरान बोली - आजकल गाँव में बड़ा दहसत का माहौल है। मैंने पूछा क्या हुआ बोली - आपको नहीं पता क्या ? एक हफ्ते से कितने कांड हो रहे हैं। मुझे भी जिज्ञासा हुई जानने की, वो बताने लगी एक मुँह नोचवा आया हुआ है ! मुझे हँसी आ गयी पर रोकते हुए मैंने कहा - अरे ! ये क्या बच्चों जैसी बातें कर रही हो ? संध्या ने कहा सच में एक जगह नहीं बल्कि कई प्रदेशों में दहशत फैली हुई है। जाने कितने लोग छत से गिर गए। अपने हाथ पैर तोड़वा लिए इस चक्कर में और कितने लोगों को मुँह नोचवा नोच भी चुका है, जिससे जलने के जैसे निशान बन जाते हैं।

फिर तो आये दिन ही कॉलेज से लौट कर कोई न कोई नई कहानी मुँह नोचवा की बताती। अब तो मुझे भी यकीन होने लगा कि कुछ तो है जो शहरों में भी आने लगा। कोई कहता नीली बत्ती की तरह है, तो कोई बंदर के पंजे की तरह। इतना डर भर गया था लोगों में कि कहीं रात की गश्त लगाते हुए पुलिस की गाड़ियों पर हमले हुए तो कहीं रात में जानवर की नीली आँखे देख, मुँह नोचवा समझ लिया जाता था।

पर, चारों ओर डर का माहौल बन गया था। एक सुबह उठी तो पता चला कि आज हमारे पीछे वाली गली में भी मुँह नोचवा आया था। जिनके यहाँ हमला हुआ था उनका मेडिकल स्टोर था मार्केट में जहां दिन में दो तीन लोगों ने मिल कर मुँह नोचवा को गाली दी थी और रात में हमला हो गया। सबसे बड़ी दहशत तो मुझे तब हुई जब पता चला उन दो - तीन लोगों में एक मेरे पति देव भी थे और मेरा बच्चा भी छोटा था। बस अब मेरे ही घर का नम्बर है - ये सोच कर ही नींद उड़ गई। जैसे - तैसे कई दिन गुजर गए।

एक दिन पता चला मुँह नोचवा और कोई नहीं बल्कि एक पहाड़ी कीड़ा है, जो बारिश न होने की वजह से फैल गए हैं और फिर लुप्त हो गए एक दिन अचानक से .... मुँह नोचवा!

उमा शुक्ला, लखीमपुर