डॉ. ऋचा गुप्ता गाजियाबाद
सुबह का समय महिलाओं के लिए सदा से ही मुश्किल भरा रहा है। बच्चों का, पति का टिफ़िन, काम वाली की खट खट, पूजा, नहाना ..समय धीरे से कब सरक जाता है, पता ही नहीं चलता और उसी समय फ़ोन पर घंटी बज जाये तो दिमाग़ कुंद होकर काम करना ही बंद कर देता है।
रुचि काम की उधेड़बुन में सोचती हुई, यंत्रचालित काम करती जा रही थी, कि तभी फ़ोन की घंटी बजी पराठे पर घी डाल, पलटते हुए, फ़ोन पर एक नज़र डाली तो पापा का नाम फ़्लैश हो रहा था। नाम देखते ही लगा अचानक दुनिया ही रुक गई हो जैसे, हाथ पैर सुन्न हो गए थे। उसने हिचकते हुए फ़ोन उठाया, आँखों में नमी साफ़ दिखाई दे रही थी। फ़ोन उठाते ही पापा कह,आंसुओं के साथ हिचकी बंध गई थी। उधर से मम्मी की आवाज़ आयी – “रुचि रुचि आवाज़ नहीं आ रही क्या !”
इतने में रुचि सम्भली —
“मम्मी आपको अभी फ़्री होकर कॉल करती हूँ।”
पराठा अब तक जल चुका था रुचि वही धम्म से बैठ गई तभी बड़ी लड़की निकलकर आयी,
“मम्मी क्या हुआ ! तबियत सही नहीं लग रही क्या ?”
“हाँ …शायद गर्मी कुछ ज़्यादा हो रही।”
“अच्छा …सुन आज कॉलेज में ही कुछ खा लेना। मुझसे नहीं हो पा रहा कुछ। पापा और बहन का टिफ़िन बंद कर दे मैं कुछ देर लेटने जा रही हूँ।”
ये कह रुचि चुप अपने कमरे में चली गई। कमरे में जा जैसे ही आँख बंद की। यादों की खिड़की खुल गई। पापा को गए सात साल हो चुके थे।पर आज भी लगता जैसे कहीं से आवाज़ दे रहे हों।
“रुचि रुचि …चल ज़रा चाय तो पिला…” और मेरा हमेशा की तरह पैर पटकना।
“कितनी चाय पापा …बैठने ही नहीं देते और आपको नुक़सान भी करती है ना”
“अच्छा एक टिकिया तो लगा दे हींग आचार से।”
पापा मठरी को टिकिया ही बोलते थे। खटाई, आचार, हरी धनिया की चटनी सब पापा को पसंद और वही सब डॉक्टर बंद कर चुके थे। काफ़ी टाइम से शुगर थी तो आँख और किडनी पर शुगर का असर हो चुका था। पर खाने पीने का शौक़ वैसे ही था। जितना शौक़ खाने का था उतना ही खिलाने का भी। पापा को सफ़ेद कपड़ों का बहुत शौक़ था। कलफ़ लगा सफ़ेद रंग का कुर्ता पैजामा पहन के जब निकलते तो देखते ही बनता था। ग़ज़ब का व्यक्तित्व था उनका, लंबी नाक, चोड़ा माथा और गठीला बदन। पर, बीमारी के चलते आख़िरी दिनों में काफ़ी कमजोर हो गये थे। पर आवाज़ में धमक वैसी की वैसी ही थी। पेशे से वकील थे तो आवाज़ में दम होना ही था। हमारा परिवार मध्यम वर्गीय था, पर कभी किसी चीज़ कमी खली नहीं। तभी एक दम से आवाज़ आयी “रुचि रुचि …दरवाज़ा तो खोल मैं आया हूँ।”
अचानक झटके से आँख खुली शायद पापा आ गए …पापा आ गए…
आँख खुली तो पता लगा फ़ोन बज रहा था मम्मी का। फ़ोन उठाया तो मम्मी बोली “अब तू फ़्री हो गई होगी। सुबह पापा के फ़ोन से कॉल लगाया था। मेरे फ़ोन में जानें क्या हुआ था। पापा का नंबर अभी भी रखा हुआ है। बैंक और कई ज़रूरी जगह पर यही नंबर दिया हुआ है, ना।
मैंने हममम कहा —
“क्या हुआ आवाज़ सही नहीं लग रही आज तेरी।”
पता नहीं, माँ को आवाज़ से कैसे पता चल जाता कि बच्चा सही है या नहीं है। क्या ही सेंसर लगाया है, ये भगवान ने माँ के दिल में, जो बस आवाज़ से बच्चे के दिल का हाल जान लेती है।
“कुछ नहीं मम्मी गर्मी थोड़ी ज़्यादा हो गई है।”
“अच्छा थोड़ा पानी ज़्यादा पी, दूध पीती नहीं, खाने पीने का ख्याल रखती नहीं।”
माँ की नसीहतों का पिटारा खुल चुका था, पर आज तो दिल कहीं पापा में अटका था।
“माँ कुछ देर में कॉल करूँ सचमुच अच्छा नहीं लग रहा।”
माँ ने हममम कह फ़ोन रख दिया।
पापा का आख़िरी वक़्त सही नहीं निकला दिमाग़ ने काम करना बंद कर दिया था। काफ़ी दिन अस्पताल में रहे, और शरीर इतना कमज़ोर हो चुका था, कि दवाई असर ही नहीं कर रही थी। हर रोज़ अस्पताल जाती तो उनकी लंबी उम्र की दुआ करती।
समझती थी, कि ऐसे में पापा बच भी गए तो आगे का जीवन सरल न होगा, पर उनका न होना ….ऐसा तो मैं सोच भी नहीं पाती थी। बेटियों की स्नेह की डोर पापा से कैसे जुड़ी होती, इसे एक बेटी के अलावा कोई नहीं जान सकता। बेटी के ऊपर आने वाली हर मुश्किल को पापा से होकर गुज़रना होता है। ऐसे ही हर मुश्किल में चट्टान से खड़े थे मेरे पापा भी। हर बार जब मैं परेशान होती तो कहते – “मैं हूँ अभी …परेशान क्यों होती है।”
आज भी बड़ा मन हो रहा था कि पापा आए और कहे मैं हूँ ना अभी परेशान क्यों हो रही है। घड़ी पे नज़र गई तो देखा चार बज रहे थे। बच्चों के आने का वक़्त हो रहा था आज सुबह से ही दिल अनमना सा हो रहा था। दिल ही नहीं लग रहा था। बार बार फ़ोन के कॉन्टैक्ट्स में जाकर पापा का नंबर छूकर देख रही थी। काश एक बार बस एक बार बस एक बार पापा से बात हो पाती।
सोचते सोचते चाय चढ़ा दी चाय की ख़ुशबू में फिर पापा की याद हो आयी। कितनी चाय पीते थे ना पापा। ख़ुद ही बना लेते थे। जब देखते सब अपने कामों में लगे हैं। इतने में फ़ोन फिर बजा भाई का फ़ोन था वीडियो कॉल। मन ही मन बड़बड़ाई पता नहीं इसे भी वीडियो कॉल की क्या चुल है। शक्ल तो सुबह से रो रो के ख़राब कर रखी है। पूछेगा तो क्या बोलूँगी ख़ैर थोड़ा बाल सही करके फ़ोन उठाया।
“कैसी है बहन …आज मम्मी सुबह बता रही थी कुछ परेशान हैं।”
मैंने बात पलटते हुए कहा — “अरे कुछ नहीं मम्मी को तो यही लगता रहता है।” “अच्छा सुन परेशान मत होना।” — “मैं हूँ ना अभी”
बस उसका यह कहना था और आँखों से झर झर आँसू बह निकले ध्यान से देखा तो पापा का चेहरा भाई में स्पष्ट दिखाई दे रहा था उस दिन लगा सच पापा गए कहाँ है भाई के रूप में यही तो है ना।