डॉ. प्रेमशंकर त्रिपाठी कोलकाता
गुरुवर विष्णुकांत शास्त्री कहा करते थे – ‘व्यक्ति को ‘स्मृति-जीवी’ नहीं ‘कृति-जीवी’ होना चाहिए।’ अतीत की स्मृतियों को कुरेदना बढ़ती उम्र का संकेत है और सतत कर्मरत रहकर भविष्य की ओर देखना यौवन की निशानी है। ‘वृद्ध हूँ मैं ऋद्धि की क्या / साधना की, सिद्धि की क्या’ कहने वाले निराला के इसी गीत की पंक्ति है – ‘स्मरण में है आज जीवन’ । परन्तु यदि पुरानी यादों को साम्प्रतिक संदर्भों के आलोक में देखने-विचारने की जरूरत पड़ जाय, तो अतीत के वे क्षण अनुप्रेरित भी करते हैं। व्यक्ति, परिवेश या घटना-विशेष की यादें हमें बहुत कुछ सिखाती-बताती भी हैं।
इस छोटी सी भूमिका की आवश्यकता इसलिए, क्योंकि भारत-चीन के बीच चल रही तनातनी मुझे अपने बाल्यकाल के एक प्रसंग की स्मृति करा रही है। स्मृति को कुरेदा कानपुर से बड़े भैया डॉ. लक्ष्मीशंकरजी के एक फोन ने। चीन-भारत के वर्तमान विवाद के बीच उन्हें अतीत का वह प्रसंग याद आ रहा था, जब चीन के खिलाफ पढ़ी गई कविता पर मुझे पुरस्कार मिला था। लगभग साढ़े पाँच दशक पूर्व की उस घटना की स्मृति थी तो मुझे भी, (क्योंकि वह मेरे जीवन का पहला पुरस्कार था), परन्तु सुनाई गई कविता की कुछ पंक्तियाँ विस्मृत हो गईं थीं। ‘मुझे पूरी रचना याद है’ – कहते हुए भैया ने उसे सुना भी दिया। और इस प्रकार
मन पहुँच गया उस समारोह स्थल तक, जहाँ यह महत्त्वपूर्ण प्रसंग घटित हुआ था।
1962 के भारत-चीन युद्ध का माहौल था। कलकत्ता के तुलापट्टी स्थित ज्ञान योगानन्द पुरी मठ के प्रांगण (बाबूलाल का अखाड़ा) में कार्यक्रम आयोजित था, जिसमें चीन द्वारा की गई कुटिलता एवं विश्वासघात के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त करनेवाली ओजस्वी कविताएँ प्रस्तुत की जा रहीं थीं। साहित्यिक संस्था ‘ज्योत्स्ना’ के तत्त्वावधान में आयोजित इस समारोह में मैं भी बड़े भैया के साथ उपस्थित था। वह ज़माना ऐसा था, जब टी.वी. तो था ही नहीं, रेडियो भी चुनिन्दा घरों में ही होते थे। अखबारों-पत्रिकाओं के पढ़ने की रुचि पुस्तकालयों में जाकर पूरी होती थी। साहित्यिक-सामाजिक गोष्ठियों में कवियों-साहित्यकारों को सुनने का एक अलग आकर्षण होता था।
मुझे याद है कि उसी प्रांगण में स्थित पुस्तकालय कक्ष में हमलोगों ने गोपाल सिंह नेपाली की चर्चित रचना ‘चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा’ कवि के मुख से सुनी थी। उसी गोष्ठी में किसी वक्ता ने चीन के दुष्टतापूर्ण रवैये को रेखांकित करते हुए कविवर सोहनलाल द्विवेदी की इस संदर्भ में लिखी कविता भी सुनाई थी। ‘आपदा को अवसर में बदलने’ का सूत्र प्रदान करनेवाली उस महत्त्वपूर्ण कविता की आरंभिक पंक्तियाँ स्मृति-कोष में आज भी सुरक्षित हैं – ‘किया चीन ने नहीं आक्रमण / दिया हमें वरदान है। एक रात को एक हो गया / सारा हिन्दुस्तान है।’
धोखे से किए गए चीनी हमले ने ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ नारे का खोखलापन उजागर कर दिया था; पंचशील के सिद्धांत की धज्जियाँ उड़ा दी थीं। जोशीले गीत वातावरण में गुंजित हो रहे थे; जनता को जागृत करने तथा सेना का मनोबल बढ़ाने की स्वर लहरी तरंगित हो रही थी। संभवतः उसी गोष्ठी में सबसे पहले ‘सूत्रकार’ संपादक ‘स्नेहीजी’ को सुनने का सौभाग्य मिला था। उनके ओजस्वी गीत की आरंभिक पंक्तियाँ थीं- ‘साथियों सुनो ज़रा / स्वदेश की परंपरा / वसुंधरा है युद्ध के कगार पर।। दुश्मनों का दल खड़ा है द्वार पर।’
गीत के हर बंद के साथ ‘सावधान’ कहते हुए वे जिस टेक या तरन्नुम का उच्चार करते थे, वह स्वर मानो जन-जन को उद्वेलित कर देने के अपूर्व सामर्थ्य से सम्पन्न था। ऐसे माहौल में मेरा बाल-मन भी कुछ सुनाने को उत्सुक था। एक सामयिक रचना मुझे भी कंठस्थ थी। श्रद्धेय चाचा राम कुमार त्रिपाठी तथा आदरणीय बहनोई अरुण प्रकाश अवस्थी की प्रेरणा से मुझे भी उस गोष्ठी में काव्य-आवृत्ति का अवसर प्राप्त हुआ। मैंने ऊँचे स्वर में काव्य-पाठ किया भी –
‘ओ कुटिल क्रूर अति दुष्ट चीन / अभिमान भरे ओ मतवाले।
ओ पंचशील के विध्वंसक / ओ बुद्धिहीन विषधर काले ।।
ओ साम्यवाद के परिपोषक / ओ शठ वंचक अंतरवाले।
मिट्टी में तुझे मिला देंगे / हम वीरव्रती भारतवाले ।।
तेरे मद को हम तोड़ेंगे / फोड़ेंगे क्रूर कपालों को।
अब नष्ट-भ्रष्ट कर डालेंगे / हम तेरी कुटिल कुचालों को।।
सीमा रेखा को लाँघ चीन / अब चैन नहीं तू पायेगा।
भीषण संग्रामी ज्वाला में / तू शीघ्र भस्म हो जायेगा।।
भारत के वीर सिपाही अब / आगे बढ़ते ही जायेंगे।
यदि सम्मुख काल स्वयं आये / तो उससे भी टकरायेंगे ।।
बाल-मन का अपरिमित उत्साह था या काव्य-पाठ का मौका मिलने का असीम उल्लास; कविता की सहजता का प्रभाव था या चीन विरोधी वातावरण का दबाव; उच्च स्वर में मेरी प्रस्तुति को पर्याप्त सराहना मिली। करतल-ध्वनि के बीच ही ‘आकाशवाणी’ जैसी बुलन्द आवाज़ ने सबका ध्यान आकृष्ट किया – “जिस बच्चे ने यह कविता पढ़ी है, उसे आशीर्वाद ! उसे पुरस्कार स्वरूप मैं रजत पदक प्रदान करने की घोषणा करता हूँ। मैं संध्या-वंदन कर रहा था, लेकिन इस बालक की प्रस्तुति ने मुझे मंत्र-मुग्ध कर दिया।”
वास्तव में कार्यक्रम स्थल के ऊपरी तल पर स्थित मंदिर प्रांगण से यह स्वामीजी की आवाज थी। स्वामीजी की इस घोषणा का लोगों ने हर्षोल्लास से स्वागत किया। मेरे लिए तो यह बहुत बड़ा पुरस्कार था। अपने उस आनंद की कल्पना करता हूँ तो आज भी मन पुलकित हो जाता है। इस प्रोत्साहन के कारण ही कविता एवं साहित्य के प्रति मेरी दिलचस्पी बढ़ती गई।
वह कालखण्ड भारत-चीन युद्ध के कारण ओज एवं वीर-भाव से परिपूर्ण था। 1962-63 में चीन के सम्मुख भारत को जिस अप्रतिष्ठा का सामना करना पड़ा था, उससे सभी मर्माहत थे। राष्ट्रीय संकट की इस घड़ी में छात्रों के लिए एन.सी.सी. की सैनिक शिक्षा तो अनिवार्य कर ही दी गई थी, प्राध्यापकों से भी आह्वान किया गया था कि वे स्वयं सैनिक शिक्षा प्राप्त कर विद्यार्थियों को एन.सी.सी. के माध्यम से प्रशिक्षित करें।
कवियों के स्वरों में भी रूपान्तरण हुआ था; देवी सरस्वती की वंदना में आह्वान किया जाने लगा था –
‘सीमा पर सकोप पाक-चीन गठबंधन है मानसर कमल विहीन लहरा रहा।ऐरी वीणापाणि वीण छोड़ ले कृपाण हाथ देश के चतुर्दिक आज शत्रुदल छा रहा।।’
राष्ट्रीयता से पूरित उस परिवेश में मेरे बाल-मन में टूटी-फूटी भावनाएँ जन्म लेने लगीं थी। कविता के रूप में उन्हें व्यक्त करने की छटपटाहट से जिस अभिव्यक्ति ने आकार ग्रहण किया, वह बेडौल-सा था। उन भावों को छंदबद्ध करने का काम किया डॉ. अरुण प्रकाश अवस्थी ने। वह छन्द अविकल रूप से प्रस्तुत है –
वंशज, बहादुर शिवा औ’ प्रताप के हैं,
जब तक असि रहे हाथ, हिम्मत न हारेंगे।
अमर करेंगे सब कीर्ति वीर भारत की,
दुष्ट चीनियों का गर्व खर्व कर डारेंगे।।
बांध के कमर ‘प्रेमशंकर’ समरांगण में,
देखना पार्थ-पुत्र भाँति गज़ब गुजारेंगे।
मारेंगे, मरेंगे, ललकारेंगे, करेंगे क्रान्ति,
नाक-दम रहते, हम ना कदम टारेंगे ।।
उस समय की स्थिति का विवेचन करने वाली भगवती प्रसाद वाजपेयी ‘विश्व’ की एक रचना। व्यंग्य की चासनी में लिपटी अवधी (बैसवाड़ी) भाषा की इस लंबी कविता की भूली-बिसरी पंक्तियाँ –
दले दलाई लामा, पंचेन लामा होइगे बहिला।
पंचशील पँच पेड़वा कटिगे, चाऊ चीरें चइला।।
जब ते च्यांग भगेडू होइगे, तब ते चाऊ आए।
रूसी भालुन के वन का, लंबा कोट सियाए ।।
चीन, महाप्राचीन फितरती, जादूगर फौरेबी।
फंदन फंदन जाल फँसावै, हर फंदन औरैबी ।।
नम माटी गदहन ते ज्वातै, बिन माची, बिन सहिला।
पंचशील पंचपेड़वा कटिगे, चाऊ चीरें चइला ।।
1962 में चीनी आक्रमण के बाद मिले अपमान की प्रतिक्रिया में दिनकर ने 1963 में ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ लिखकर राष्ट्रीय क्रोध को अभिव्यक्त किया था। इस पराजय से दिनकर इतने विचलित हुए थे कि उन्होंने पं० नेहरू के साथ अपने आत्मीय संबंधों की अपेक्षा राष्ट्रीय स्वाभिमान को तरजीह दी थी। ‘घातक है जो देवता सदृश दिखता है / लेकिन कमरे में ग़लत हुक्म लिखता है’ जैसी कठोर पंक्ति तो उन्होंने लिखी ही; ‘सैनिक से प्रश्न’ तथा ‘सैनिक का उत्तर’ कविताओं के माध्यम से तत्कालीन नेतृत्व के खोखलेपन को भी उजागर किया। सैनिक का उत्तर है –
गीता में जो त्रिपिटक निकाय पढ़ते हैं,
तलवार गलाकर जो तकली गढ़ते हैं।
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का।’
बड़ी वेदना का साथ दिनकर ने अंत में लिखा था- ‘यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है। भारत अपने घर में ही हार गया है।’
कुटिल चीन बीच बीच में फिर पुरानी हरकतें दुहरा देता है, लेकिन वह भ्रम में है। क्योंकि 1962 के भारत और आज के भारत में पर्याप्त अंतर है। चार वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सैनिकों के बीच अपने ओजस्वी उद्बोधन में इशारों-इशारों में उसे चेतावनी देते हुए ‘वंशीधर कृष्ण’ के ‘सुदर्शन चक्रधारी’ कृष्ण में रूपान्तरण का स्मरण भी कराया था। इस सन्दर्भ में याद आ रहे हैं कवि अरुण प्रकाश अवस्थी –
हमीं वृन्दाविपिन में श्याम बन मुरली बजाते हैं,
हमीं ब्रजवीथियों में रास की लीला रचाते हैं।
मगर जब राष्ट्र के सम्मान पर आघात होता है,
हमीं गीता सुनाकर के सुदर्शन भी उठाते हैं।।