फरवरी का महीना नजदीक आता देख पड़ोस की कांता बीते कुछ दिनों से बेहद खुशनुमा मिजाज में नजर आ रही थी। एक अन्य बुजुर्ग पड़ोसी ने पूछा, क्या बात है कांता बड़ी खुशी नजर आ रही हो कई दिनों से ! बुजुर्ग पड़ोसी का सवाल सुन कांता बोली- चाचा आपको मालूम नहीं फरवरी आने वाली है। कांता का जवाब सुनकर चाचाजी कुछ बोलते इससे पहले ही कल्पना ने सवाल उछाला- ‘फरवरी आ रही है तो क्या हुआ कांता, इसमें विशेष खुशी की क्या बात है !’
कल्पना के प्रश्न पर कांता दोनों को संबोधित करते हुए बोली- सुनो चाचाजी और कल्पना भाभी आप भी। फरवरी में आता है प्रेमी जोड़ों का विशेष दिन जिसे ‘वेलेंटाइन डे’ कहते हैं। आदान-प्रदान के लिए उपहारों की खरीदारी को मेरी दुकान में प्रेमी-प्रेमिकाओं अच्छी भीड़ होती है और कुछ अतिरिक्त कमाई भी, बस इसीलिए मन मिजाज थोड़ा ठीक है। इतना कहते हुए कांता चॉबी लेकर हल्के-हल्के मुस्कुराते हुए दुकान को निकल पड़ी। चाचा छत पर बैठे धूप सेंकने लगे और कल्पना भाभी अपने घरेलू का में व्यस्त हो गई।
शाम को जब कांता दुकान से घर लौटी तो चेहरे पर मुस्कान बिल्कुल नहीं थी। सामान्य दिखने के बजाए वह कुछ गंभीर दिख रही थी।
क्या हुआ कांता बाई ! सुबह हंसते-हंसते दुकान गई थी और लौटी हो तो मुंह लटकाएं…। ग्राहक नहीं आए क्या ? उम्मीद के मुताबिक बिक्री नहीं हुई क्या ? मुनाफा कम हुआ क्या ? कल्पना भाभी ने एक साथ तीन-तीन सवाल दाग दिए। कांता बोली, आज मैं दुकानदारी को लेकर चिंतित नहीं हूं मेरी चिंता का कारण बच्चों की समझदारी है। अरे तेरी दुकान में तो युगलों का सामान मिलता है, बच्चे और बच्चों की समझदारी कहां से आ टपकी। कल्पना भाभी ने फिर एक साथ दो सवाल किए।
अबकी कांता ने लंबी सांस ली और बोली आज बच्चे दुकान में कई-कई बार आएं, लेकिन चीज लेने नहीं सरस्वती पूजा का चंदा लेने। तो इसमें गंभीर और चिंतन की क्या बात है, बुजुर्ग चाचा बोले, हम भी बचपन में यूं ही चंदा इकट्ठा कर सरस्वती पूजा करते थे। कांता बोली, नहीं चाचाजी चिंता की बात है, क्योंकि चंदा लेने भले ही बच्चे आएं हो, लेकिन उनकी सोच और उनके शब्द अच्छे नहीं थे। बच्चे छोटे थे, लेकिन उनके शब्द बड़े।
इतना कहते हुए कांता ने बोलना शुरू किया – मैं एक ग्राहक को सामान दिखा रही थी, तभी मेरे कानों में आवाज आई – ‘आंटी ओ आंटी चंदा दे दो’। जिधर से आवाज आई उधर मेरी नजर गई तो देखा कि चार-पांच बच्चे जो मुश्किल से आठ से दस वर्ष के
बीच के रहे होंगे, मैंने चंदा दे दिया। बच्चे सरस्वती मैया की जय बोलते हुए चले गए। मैं फिर ग्राहक में व्यस्त हो गई। थोड़ी देर में फिर आवाज आई, मैंने देखा कुछ और बच्चे हैं मैंने उन्हें भी चंदा दे दिया। बच्चों का यह झुंड भी हो-हो करता निकल गया। इस बीच ग्राहक भी सामने खरीद कर चले गए थे। मैं दुकान में अकेली थी, फिर आवाज आई – ‘आंटी, ओ आंटी, चंदा दे दो’।
सरस्वती पूजा करनी है। मैं फुर्सत में थी, इसलिए अबकी बच्चों को पास बुलाकर पूछा – पढ़ाई करते हो ? पूछते वक्त मुझे जरा भी ख्याल ही नहीं था कि मेरा ये सवाल, जबाव के बदले मुझे चिंता देकर जाएगा। झुंड से एक बच्चे की आवाज आई-‘आंटी चंदा देना हो तो दो, वरना रहने दो, लेकिन पढ़ाई-लिखाई की बात मत करो।’
मैने उसका जवाब सुना। कुछ बोल पाती इससे पहले दूसरे बच्चे ने कहा -‘अरे आंटी चंदा नहीं देगी, ये तो मुसलमान है’ मैं अवाक रह गई। ये बच्चे क्या बोल रहे हैं ? इनकी सोच को क्या हो गया ? ये बच्चे देश के भविष्य कैसे हो सकते हैं ? इन बच्चों में हिंदू-मुस्लिम का भाव कैसे पनप गया ? इनके मन में ये सब कहां से आया ? मैं चिंतन में थी, तभी समूह से एक बच्ची ने दुकान में बने मंदिर की तरफ हाथ करते हुए बोला, ‘देखो मंदिर है, जिसमें भगवान की फोटो भी रखी है यानी आंटी हिंदू है।’
मुझसे कुछ कहते न बना और मैं अपना धर्म बचाते हुए चुपचाप चंदा देकर, फिर से चिंतन में खो गई और अभी तक उन छोटे-छोटे बच्चों के बड़े-बड़े भड़काऊ शब्द कानों में बार-बार गूंज रहे हैं।