“महर्षि बाल्मीकि” के आश्रम की ओर ‘वन यात्रा’ में अग्रसर कुमार राम ने जानकी को कुछ ठिठकते देखा तो उन्हें एक शिला पर बैठा कर अनुज लखन से पास बह रहे झरने का जल लाने को कहा। राम ने जानकी को वन यात्रा के इन्हीं संकटों के प्रति पहले ही सचेत करते हुए अयोध्या में रुक जाने की बात दोहराई। जानकी ने मृदु स्वर में कहा–आर्य, मैं क्लान्त या कष्ट में नहीं हूं, देखिए द्विपहर पश्चात गोधूलि बेला आसन्न है, आपको ‘संध्या वन्दन’ भी तो करना है। यह स्थान घने जंगलों के बीच सर्वथा उपयुक्त लग रहा है। झरना, सरोवर, भांति भांति के सुंदर पुष्पों से लदी डालियां, फलों से लदे वृक्ष, संध्या वन्दन पश्चात फलाहार एवं रात्रि विश्राम हेतु, इस सघन वन में अनुकूल स्थल है। देवी सीता के कथन से सहमत राम लखनलाल सहित संध्या वन्दन हेतु प्रस्तुत हुए।
शिला से उठ कर जानकी सरोवर की ओर जाने को उद्द्यत हुई हीं थी कि बांयी ओर से कुछ वनवासी महिलाएं आती दिखीं। जानकी ने देखा सभी महिलाओं के सिर पर लकड़ी का गठ्ठर जिसे बाएं हाथ से सहारा दिये थी औऱ दाहिने हाथ में कुल्हाड़ी थी। सभी जानकी से ‘जोहार’ कर आश्चर्यचकित हो उन्हें निहारने लगीं। उनमें से एक ने कुछ साहस कर बड़ी विनम्रता से प्रश्न किया — देवी, आपका परिचय जानने की उत्सुकता है। इस वन से यदा कदा साधु संत ऋषि मुनियों का ही आवागमन रहता है, आप जैसे सम्भ्रांत दिखने वाले यहां कैसे ? संभवतः ‘बड़े महाराज’ (महर्षि वाल्मीकि) जी के आश्रम जाना है।
वैसे तो हमारी बस्ती इस झरने के पीछे है किन्तु जब हम लकड़ियां इकट्ठा कर रहे थे, कुछ अचम्भित सी करने वाली घटनाओं पर हमारा ध्यान गया। हमने देखा– विभिन्न पक्षियों के झुंड उच्च स्वर में सरोवर तक आ कर जल में कुछ क्रीड़ा कर बार बार आ जा रहे हैं, यही नहीं वन के मृग कुलांचे भरते हुए सरोवर तक आ कर लौट रहे हैं। हम वनवासी पक्षियों के स्वर से समझ जाते हैं कि वे आपदा में हैं या आनंद में। अपने बच्चों को दाना खिलाने का स्वर ‘ममतापूर्ण’ होता है, किसी शिकारी को देखकर ‘सचेत’ करने वाला होता है, विषधर को देखकर आक्रांता पर ‘आक्रमण’ करने का होता है, किसी पक्षी की मृत्यु पर ‘क्रन्दन’ का होता है। किन्तु आज का स्वर तो ‘आनंदातिरेक’ का था, ऐसा स्वर तो कभी नहीं सुना तभी उत्सुकतावश हम इधर आ गए। जानकी ने आदर एवं स्नेह से महिलाओं से गट्ठर उतार कर बैठने को कहा और विनोद से कुल्हाड़ी का प्रयोजन पूंछा। महिलाओं ने भी मुस्कुराते हुए कहा यह सूखी लकड़ियां काटने के साथ ही हिंसक वन्य पशुओं से आत्मरक्षा का साधन भी है। महिलाओं की जिज्ञासा का उत्तर देते हुए जानकी ने जैसे ही बताया वे ‘जनकनन्दिनी’ एवं ‘अयोध्यानरेश’ की पुत्रवधू हैं, सभी महिलाएं उन्हें दण्डवत प्रणाम करने लगीं। जानकी ने स्नेह से उन्हें उठाकर अपने समीप बैठाया और प्रश्न किया -आपलोग दोनों महाराज के बारे में जानते हैं ? सभी ने सहमति में सिर हिलाया, उनमें से एक ने कहा — हमारी बस्ती से दूर अन्य बस्ती, जो कि बड़े महाराज के आश्रम के निकट है, के एक युवक ने ही आश्रम में इस विषय मे हुई चर्चा को सुन हमें बताया था। वहीं पधारे कुछ ऋषियों ने विस्तार से ताड़का वध, देवी अहिल्या उद्धार तथा शिव धनुष भंजन का विवरण सुनाया था। उनके अनुसार राक्षसी आतंक अब समाप्त होने वाला है।
जानकी की महिलाओं से चर्चा चल ही रही थी कि दोनों कुमार सरोवर से शिला की ओर आते दिखे, जानकी जैसे ही उठकर खड़ी हुईं अन्य वनवासी महिलाएं भी खड़ी हो कर उधर निहारने लगीं। उत्कंठा से नयनों से ही उन्होंने जानकी से इनका परिचय जानना चाहा। जानकी ने अत्यंत स्नेह एवं गर्व से बताया— जो गौर वर्ण के अति सुन्दर, सर्वदा सतर्क, महावीर, मेरे लघु देवर हैं और – श्याम वर्ण, धीर, गम्भीर, प्रसन्नचित्त, सिंह के समान गति वाले– कह कर जानकी ने अपने आँचल को समेटते हुए नयनों को नीचे कर संकेतों में ही परिचय दे दिया। वनवासी महिलाएं मुदित हो अखंड सौभाग्य का आशीष देने लगीं।
दोनों कुमारों के समीप आने पर वनवासी महिलाओं ने प्रणाम किया, तभी वनवासी पुरुषों का एक समूह पक्षियों के विशिष्ट स्वर को सुनते हुए उधर आया। उन्होंने आश्चर्य से नव आगंतुकों के साथ अपनी बस्ती की महिलाओं को देखा। उनकी उत्कंठा भांप कर एक महिला ने बड़े ही उल्लास से कहा—अरे, ये अयोध्या के राजकुमार एवं साथ हैं ‘जनकनन्दिनी जानकी’—-जिनके बारे में बड़े महाराज के आश्रम जाने वाले उस युवक ने बताया था। श्याम वर्ण के हैं अयोध्यानरेश के ज्येष्ठ पुत्र ‘राम’ एवं गौर वर्ण के हैं इनके अनुज ‘लखनलाल’ —-इतना सुनते ही सभी वनवासी पुरूषों ने नव आगंतुकों को दण्डवत प्रणाम कर अपना सम्मान प्रकट किया। राम ने बड़े स्नेह से उनको उठाकर ह्रदय से लगाकर अपने समीप एक अन्य शिला पर बैठाया।
वनवासी पुरुषों ने वनवासी महिलाओं को सम्बोधित करते हुए कहा—-हमारा परम सौभाग्य है कि ऐसे अति विशिष्ट, सम्माननीय एवं पूजनीय लोगों की सेवा का अवसर मिल रहा है। आप सभी देवी जानकी तथा दोनों राजकुमारों के भोजन विश्राम की व्यवस्था करें। यह सुनते ही राम ने वनवासियों के सेवा भाव का संज्ञान लेते हुए विनम्रता से कहा— प्रिय भाइयों, आप सबका सद्भाव हमें प्रमुदित कर रहा है किन्तु अपने पूज्य पिता श्री को दिये वचनानुसार किसी पुर, नगर, बस्ती या किसी के गृह में वास न कर वन में ही निवास करना है। वनवासियों के आग्रह पर राम के विवरण सुनकर सभी वनवासी कातर होकर उनकी पग वंदना करने लगे। माता पिता पर भक्ति, भौतिक सुख का त्याग, भाई के प्रति स्नेह सुनकर वे हतप्रभ रह गए। कभी विधाता की करनी को दोष देते कभी अपने भाग्य को सराहते। उन वनवासियों में से एक ने अपने को संयत कर बड़े आदर से जोहार करते हुए कहा—हे राजन, हम वनवासियों के तो आप ही ‘राजा’ हैं, राक्षसी आतंक यहां तक व्याप्त था, आपके शौर्य से यह वन भी सुरक्षित हुआ। दर्शन लाभ तो हुआ अब आपकी सेवा का भी लाभ लेने दीजिए। यहीं हम आपके फलाहार की व्यवस्था कर देंगे। वन के फलों, मधु, कन्द मूल की हम अच्छी पहचान कर लेते हैं, यही नहीं बड़े महाराज की कृपा से गो भी पालन करते हैं। ऐसा कथन जब चल रहा था सभी वनवासी महिला एवं पुरुष भावुक हो हाथ जोड़े सहमति में सिर हिलाते हुए टकटकी लगाए राम को निहार रहे थे। भक्तवत्सल भगवान तो भक्तों की इन्हीं भावनाओं के आगे द्रवित हो जाते हैं। राम ने एक बार जानकी और लखनलाल को देखा और उनके अनुकूल रुख को भांप कर बड़े स्नेह से दोनों हाथ उठाते हुए संकेत में ही अनुमति दे दी। प्रमुदित, उल्लसित वनवासी राजा राम की जय जयकार कर सारी व्यवस्था हेतु उद्यत हुए।
फलाहार पश्चात राम ने वनवासियों को उनके निवास स्थान जाने का आग्रह किया, किन्तु कोई भी प्रस्तुत नहीं हुआ, सभी वहीं रुकना चाहते थे। उनकी ऐसी भावना समझ राम ने सहमति दी और उनसे इस घोर वन में जीवन यापन कैसे कर रहे हैं जिज्ञासा प्रकट की। कुमार राम से वनवासी राम होने की यात्रा में यह राम का पहला सार्वजनिक “जन-संवाद” था वह भी समाज से दूर, संसाधन विहीन घने जंगलों के निवासियों के साथ। राम की सहृदयता से प्रभावित वनवासियों ने अपने जीवन यापन के बारे में बताना प्रारम्भ किया। जीवित रहने के लिए वायु, भोजन एवं जल की आवश्यकता होती है, जो यहां सर्वथा सुलभ है।
हम वनवासी उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से ही आनंद से जीवन यापन कर लेते हैं। सायंकाल गीत संगीत नृत्य के आयोजन के बाद विश्राम कर प्रातःकाल शीघ्र उठकर जंगल से पुष्प, वनौषधि का संग्रह कर साप्ताहिक हाट में विनिमय कर बासन, बसन या अन्य नित्य प्रयोजनीय आवश्यक वस्तुएं ले आते हैं। यदा कदा दूर पहाड़ के समीप विशेष प्रकार के पत्थर साहूकारों के मांगने पर खोज कर लाते हैं, सुना है उनसे रत्न बनाए जाते हैं। महिलाएं लकड़ी, पत्ते आदि एकत्र करती हैं। राम द्वारा शारीरिक अस्वस्थता पूछने पर वन में उपलब्ध पत्तियों, जड़ी बूटियों का विभिन्न शारीरिक अस्वस्थता में बड़े उत्साह से वर्णन करते हुए कहा कि आप को भी इनकी पहचान करा देंगे क्योंकि आपको कई वर्षों तक इसी प्रकार के वनों में वास करना है। इसी प्रकार की आंतरिक चर्चा के पश्चात कुछ मनोरंजक कार्यक्रम हुए। राम ने सभी से विश्राम करने का और अपनी बस्ती लौट जाने का आग्रह किया।
उधर महर्षि बाल्मीकि आश्रम प्रातःकाल से ही कुछ अधिक चहल पहल वाला हो गया, क्योंकि महर्षि बाल्मीकि ने अपने साधना कक्ष से नित्य के समय से पहले ही बाहर आ कर अपने शिष्यों को एक विशेष यज्ञ की व्यवस्था का निर्देश दिया था। सभी शिष्य निर्देशानुसार समुचित व्यवस्था में तत्पर हो गए, तभी एक वनवासी युवक ने आश्रम में प्रवेश किया। यह वनवासी वही युवक था जिसकी चर्चा अन्य वनवासियों ने राम से की थी।उसकी सेवा यही थी कि प्रतिदिन प्रातःकाल आश्रम में आकर ऋषियों द्वारा अपेक्षित विभिन्न यज्ञों हेतु आवश्यक समिधा, पूजन हेतु अनेक प्रकार के पुष्प, फल, कन्द मूल तथा औषधीय वनस्पतियों यथा पत्ते, छाल, जड़ आदि की व्यवस्था करना। आश्रम में प्रवेश करते ही युवक ने अनुभव किया दिव्य एवं भव्य वातावरण। आश्चर्यचकित हो सामने बड़े महाराज को देख कर दण्डवत प्रणाम करने लगा। ‘महर्षि वाल्मीकि’ ने अति स्नेह से उसे उठाकर कहा—वत्स, आज तुम अपनी पसन्द के इस वन में उपलब्ध सबसे सुन्दर विभिन्न प्रकार के पुष्प अति शीघ्र ले आओ। प्रफुल्लित युवक जो आज्ञा कह कर उत्साहित होकर विभिन्न प्रकार के पुष्प लेने चल पड़ा। उसने मन ही मन में विचार किया— अवश्य ही कोई अति विशिष्ट व्यक्ति आश्रम पधार रहे हैं। पूरे मनोयोग से बड़े महाराज के आदेशानुसार रंग बिरंगे पुष्प एकत्र कर रहा था तभी सरोवर में नए नए खिल रहे कमल के पुष्प देखकर उन्हें लेने सरोवर में उतर गया। प्रमुदित हो सभी पुष्पों को लेकर आश्रम जा ही रहा था तभी पक्षियों के विशिष्ट कलरव को सुनकर चौंक गया, पुनः विचार किया पहले इन पुष्पों को आश्रम में पहुंचा कर कलरव पर ध्यान दूंगा।
प्रातःकाल राम ने एकत्र वनवासियों से वन में आगे जाने की इच्छा प्रकट की, रात्रि में राम के बार बार आग्रह पर भी वे वहीं पर रहे थे, अभी भी वे आगे की वन यात्रा में साथ जाने को तत्पर थे। बहुत समझाने पर बड़े महाराज के आश्रम तक जाने को सहमत हुए। राम के साथ चले तो कुछ ही लोग थे पर जैसे जैसे आगे बढ़ते गए अन्य बस्तियों के लोग भी जुड़ते गए। राम के ‘सौंदर्य’, ‘शील स्वभाव’, ‘आत्मीयता’ एवं ‘सम्मोहक वाणी’ के साथ साथ ‘अद्भुत कृतित्व’ की चर्चा से सभी अनायास ही खिंचे चले आए। वे अति उत्साह से वन के पुष्पों, फलों,कन्द मूल एवं वनों की विभिन्न प्रकार की औषधियों का वर्णन करते हैं। राम भी बड़े मनोयोग से सुन कर लखनलाल को भी इंगित करते हैं। ऎसे ही आत्मीय वार्तालाप करते करते वाल्मीकि आश्रम के समीप पहुंचे।
बड़े महाराज के आदेश का अनुपालन कर वह युवक मन ही मन मगन होते हुए आश्रम से आगे बढ़ता ही है कि पक्षियों के विचित्र कलरव की ध्वनि से उसी दिशा की ओर चल पड़ा। कुछ आगे बढ़ते ही बहुत आश्चर्यजनक दृश्य दिखा। आस पास की अनेक बस्तियों के वनवासी एवं उनके साथ दो तापस एवं एक देवी। उत्कंठा से वह युवक अति शीघ्रता से उस ओर बढ़ चला। उस युवक को देख कर वनवासियों में से एक ने राम से बताया—-इस युवक ने ही आपके कृतित्व से हमें परिचित कराया था।
‘जोहार’ करते हुए वह युवक जैसे ही राम के समीप आया, टकटकी लगाए केवल निहारता रह गया। “नीले कमल के समान स्वरूप, बाएं देवी जानकी और दाहिने लखनलाल, कांधे पर धनुष एवं तरकश” – छवि वैसी ही जैसी ‘त्रिकालदर्शी’ बड़े महाराज ने आश्रम में मिथिला के धनुष यज्ञ के उपरांत अन्य ऋषियों को सुनाई थी। एक समय से नयनों में बसी ऐसी छवि को निहारते ही भाव विह्वल हो प्रेमाश्रु लिए राम के समक्ष दण्डवत हो गया। राम ने अति प्रसन्न हो युवक को उठाकर हृदय से लगाया। प्रेम से झर झर बहते अश्रु और भावातिरेक से गदगद कंठ से युवक पुनः राम के चरणों को पकड़ कर अश्रुओं से पखारने लगा।
इस भावपूर्ण दृश्य ने सभी को भावुक कर दिया। बरबस उसे उठाकर राम ने पुनः हृदय से लगा कर स्नेहशीर्वाद दिया। युवक ने देवी जानकी तथा लखनलाल के चरणों को प्रणाम कर आश्रम की ओर चलने का निवेदन किया। राम ने सानुनय अन्य वनवासियों को वापस अपनी अपनी बस्ती जाने का आग्रह किया। वे बारम्बार राम, देवी सीता एवं लखनलाल को प्रणाम कर अपने भाग्य को सराहते हुए इस छवि को हृदय में बसा कर लौट चले और राम जी अपनी भार्या जानकी तथा अनुज लखनलाल के साथ महर्षि वाल्मीकि के आश्रम की ओर– आनंद, उमंग और उल्लास में मगन उस युवक के साथ। इस पूरे प्रकरण में देवताओं ने वनवासियों के भाग्य को सराहते हुए पुष्प वर्षा की।