परवरिश दुनिया की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी होती है जिस पर बच्चों का वर्तमान और भविष्य दोनों टिका होता है। बदलते वक़्त के साथ परवरिश के तौर तरीक़ों में भी काफ़ी बदलाव आ गया है।
कभी आपने रुककर यह सोचा है कि आज की दुनिया पहले आपके बचपन की तुलना में कितनी बदल गई है। हाँ ! कभी-कभी रोज़ मर्रा की उलझनों में हमारे मन में उन पुराने सुनहरे पलों की याद ज़रूर कचोटती है। हालाँकि हम अपने आप को ख़ुशक़िस्मत महसूस करते हैं दुनिया में आयी उन सब सकारात्मक बदलाव और आधुनिकता के साक्षी होने के लिए जो पिछले दो-तीन दशकों में हुए हैं। परंतु आधुनिकता, आविष्कारों और इस नएपन में जहाँ बहुत कुछ अच्छा है वहीं बहुत कमियां भी हैं, जिसकी वजह से नई और आने वाली पीढ़ी बहुत कुछ खो रही है। इन बीते दशकों में आए बदलावों के कारण बच्चों की परवरिश में भी काफ़ी बदलाव आ गया है। जहाँ कुछ अच्छी तो कुछ बुरी बातें भी हैं। अच्छाई और बुराई हर चीज़ में होती है, परंतु परवरिश एक ऐसी नींव है जिससे न केवल एक बच्चे या उसके परिवार का निर्माण होता है बल्कि एक विकसित समाज और देश का भविष्य भी निर्भर करता है।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए चलिए हम उन स्मृति की गलियों में चलते हैं और देखते हैं हम अपने माता-पिता से कितने अलग हैं अपने बच्चों की परवरिश करने में :
1) सेलफ़ोन द्वारा विचलित — जब हम छोटे थे हमारे माता पिता सेलफ़ोन से चिपके नहीं रहते थे उन दिनों सोशल नेटवर्किंग साइट्स भी नहीं थे। बार-बार ईमेल चेक करना, फेसबुक, इंस्टाग्राम, रील्स देखना, टेक्स्ट मैसेजेस और वॉट्सऐप पर घंटो चैटिंग करना, इन सब चीज़ों में हमारे बड़े, हमारे माता-पिता व्यस्त नहीं रहते थे। हम साथ बैठकर खाना खाते, अपने माता पिता के कामों में उनकी मदद किया करते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि अधिकांश समय माता-पिता के साथ ही व्यतीत करते थे। पर आज ऐसा नहीं है और जाने अनजाने इसकी वजह से बच्चों और माता पिता के बीच प्रत्यक्ष रूप से बातों का संचार नहीं हो पाता है।
2) चिंता मुक्त खेलना — हमें बचपन में बाहर खेलने कूदने में कोई डर नहीं था, पार्क हो या दोस्त का घर हम बिना डरे मज़े से खेल कूद कर समय से घर वापस आ जाते थे। परन्तु आज के माहौल में बच्चों को कहीं अकेले भेजने में भी हमें डर लगा रहता है।
3) घरवालों के साथ बातचीत — हमारे घर वाले हमसे बात करने के लिए मैसेजेस का सहारा नहीं लिया करते थे खाना खाने के लिए बुलाना हो या कुछ और बात हो उन्हें वॉट्सऐप या टेक्स्ट मैसेज का सहारा नहीं लेना पड़ता था। हम आमने सामने बैठ कर बातें करते थे, साथ में खाते-पीते थे और विचारों का आदान प्रदान हुआ करता था।
4) टीवी देखने का वक्त — आजकल की तरह उस समय हर वक़्त टीवी पर कार्यक्रम नहीं आया करते थे। टीवी देखने का एक निर्धारित समय हुआ करता था।
5) जानकारी अर्जित करना — आज बच्चे क्या हमें भी कुछ जानकारी चाहिए होती है, किसी भी प्रश्न का उत्तर चाहिए होता है तो एक क्लिक में हाज़िर। परंतु दशकों पहले यानी हमारे बचपन में किसी भी प्रश्न के उत्तर के लिए हमें अपने बड़ों से, शिक्षकों से, बहुत सारे प्रश्न करने पड़ते थे, कई सारी किताबें, समाचार पत्र, मैगज़ीन पढ़नी पड़ती थी, तब जाकर कहीं उन प्रश्नो का उत्तर मिलता था। हाँ ! देर भले ही लगती थी परंतु उस दौरान कई अन्य अहम जानकारियां भी हासिल हो जाया करतीं थीं जो आगे चलकर कहीं ना कहीं हमें बहुत काम आती थीं, अपितु आज ही काम आती है।
6) पत्राचार — हम अपने दादा-दादी, नाना-नानी, दोस्तों आदि को पत्र लिखते थे। पत्र का आदान-प्रदान भावनाओं का आदान-प्रदान होता था। पत्र को लिफ़ाफ़ों में डाल कर उन लिफ़ाफ़ों को सुन्दर से सजाया करते थे, उसकी ख़ुशी जितनी हमें होती थी उतनी ही पत्र पढ़ने वाले को भी होती थी। आज कोई अपने हाथों से पत्र नहीं लिखता ई-मेल टाइप करता है, हालाँकि ईमेल द्वारा अपनी तस्वीरें वीडियो भी साँझा किया जाता है परंतु उसमें अटैच्ड फाइल में वह (अटैचमेंट) नहीं होता, मतलब वह अपनत्व नहीं होता।
7) साप्ताहिक छुट्टी का इंतज़ार — हमें पूरे सप्ताह रविवार का इंतज़ार रहता था सिर्फ़ इसलिए नहीं कि रविवार छुट्टी है, बल्कि इसलिए भी कि रविवार यानी टीवी पर फ़िल्म देखने का मौक़ा, रविवार यानी घूमने जाने का दिन, रविवार यानी बाहर खाना खाने का मौक़ा। जबकि अब ऐसा नहीं होता जब मर्ज़ी हम बाहर से खाना मंगवा लेते हैं, बच्चों को घर के पौष्टिक खाने से ज़्यादा बाहर के पिज़्ज़ा बर्गर खाने में रुचि है, जब मन किया एक क्लिक में फ़िल्म देखी जब मन किया घूमने निकल गए।
8) संयुक्त परिवार — हमारे समय में ज़्यादातर संयुक्त परिवार हुआ करते थे यदि किसी कारणवश – जैसे कामकाज की वजह से कहीं दूर रहना पड़े तब भी वह हर चीज़ अपने पूरे परिवार की सलाह मशवरा के साथ ही किया करते थे। इसका फ़ायदा यह होता था कि बच्चे शुरू से ही एडजस्ट करना, अपनों के बीच सामंजस्य के साथ रहना सीख जाते थे।
9) संयम — हमें हर चीज़ इतनी आसानी से नहीं मिला करती थी ऐसी कई ख़्वाहिशें थी जो पूरी भी नहीं होती थी। इससे बच्चे संयम में रहना सीख जाते थे। आजकल तो माता-पिता बच्चों की मुँह से बात निकली भी नहीं की पूरी कर देते हैं, जिसके कारण आज बच्चों में संयम नाम की चीज़ ही नहीं है।
ऐसे कई सारे और बदलाव हैं जिससे परवरिश में अंतर साफ़ देखा जा सकता है। उदाहरण स्वरुप हम दादी-नानी के द्वारा पंचतंत्र की कहानियां, रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथों को सुन कर बड़े हुए हैं, जिससे हमारे जीवन में अनुशासन, सद्भावना, सहानुभूति, दूसरों के प्रति सम्मान बड़ों का आदर जैसी कई सारे गुणों का बीजारोपण होता है। आज के बच्चे संवेदना से परे आत्मकेन्द्रित होते जा रहे हैं। हम अपने बच्चों को बचपन से ही इंडिपेंडेंट बनाने के चक्कर में यह भूल गए हैं कि हमें बच्चों को आत्मनिर्भर तो बनाना है पर, बचपने से आज़ाद नहीं करना। कभी-कभी बच्चों के मन का न करने से भी उनका भला ही होता है। हर वक़्त उनकी हाँ में हाँ मिलाना ज़रूरी नहीं है, वे माँगे या न माँगे टॉफी, चाकलेट, आइसक्रीम आदि हर समय उपलब्ध कराना उचित नहीं है। लाड़ के साथ समय-समय पर थोड़ी डाँट लगाना भी आवश्यक है। बच्चों को आत्मरक्षा सिखानी है आत्मरक्षा के नाम पर हिंसा नहीं। गालियाँ देना आजकल के फ़ैशन में आता है जो जितनी गालियाँ देगा उतना ही कूल लगेगा यह धारणा बदलनी होगी। बच्चों को मर्यादित भाषा का पाठ पढ़ाना होगा। हम आधुनिकता की चकाचौंध में इतने मशग़ूल हो गए हैं कि अपने संस्कार जो हमें अपने माता-पिता से मिले थे वे भूलते जा रहे हैं और अपने बच्चों को आधुनिकता की होड़ में झोंकते जा रहे हैं।
समय के साथ चलना अत्यंत आवश्यक है। आधुनिक उपकरणों का उपयोग करना भी आना चाहिए, परंतु अपने संस्कारों के मूल्य पर कदापि नहीं। आधुनिकीकरण हमारी ज़रूरत है और संस्कार एवं संस्कृति हमारी धरोहर है। ज़रूरतों को पूरा किया जाता है पर धरोहर को संजोया जाता है। किंतु हम अपनी ज़रूरतों को ही धरोहर समझ कर अपने बच्चों को सच्ची दौलत यानी अपनी संस्कृति और संस्कारों से दूर करते जा रहे हैं। आधुनिकता का मतलब यह नहीं कि हम अपनी नींव को ही खोखला करते जाएं।
अब वक़्त आ गया है हम अपनी उस कीमती धरोहर, जिससे हमारी पह्चान है उसके बीज अपने बच्चों में बोयें, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी, हमारे बच्चे संस्कृति और संस्कारों के साथ आधुनिक युग में एक सुनहरे कल का निर्माण कर सकें।