नाना भांति राम अवतारा

     प्रियंका शुक्ला पुरी

 

      जब जब होई धरम की हानि,
     बाढ़हि असुर अधम अभिमानी।
     तब-तब प्रभु धरि विविध सरीरा,
     हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।

भगवान राम के अवतार के अनेक कारणों में से एक कारण राजा भानुप्रताप को ब्राम्हणों द्वारा दिया गया श्राप भी है, जिसकी वजह से रावण का जन्म और प्रभु राम का धरती पर अवतरण होता है।

 तुलसीदास जी कृत रामचरित मानस के अनुसार कैकय नामक देश में सत्यकेतु नाम का राजा राज्य करता था। उसके दो पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र भानुप्रताप और छोटे पुत्र का नाम अरिमर्दन था। भानुप्रताप अत्यंत बलशाली था, उसकी भुजाओं में अपार बल था। उनका भाई भी अत्यंत बलवान था। रामचरित मानस के अनुसार वो युद्ध में पर्वत के समान अटल था। भाई – भाई में परस्पर अगाध प्रेम था, किसी प्रकार का छल व दोष नहीं था।

राजा सत्यकेतु ने नियम के अनुसार अपने ज्येष्ठ पुत्र भानुप्रताप को राजगद्दी पर बिठाया और स्वयं वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए वन को चले गए। भानुप्रताप उदार, धर्मपरायण व ईश्वर में सच्ची श्रद्धा रखता था। जब वो राजा बना तो हर ओर उसका यश गान होने लगा। वो वेदों का अनुसरण करता था। वेद की बताई रीति के अनुसार प्रजा का उत्तम विधि से पालन करता था। उसके राज्य में प्रजा हर तरह से सुखी थी। प्रजा भी अपने राजा के प्रति असीम श्रद्धा रखती थी और प्रेम करती थी। राजा भानुप्रताप का एक मंत्री था, जिसका नाम धर्मरुचि था जो राजा का परम हितैषी और शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान था। राजा स्वयं महाप्रतापी तो था ही, पर बुद्धिमान मंत्री और परम वीर भाई के संग ने उसकी शक्ति को और बढ़ा दिया था। राजा की चतुरंगिणी सेना, जिसमें एक से बढ़कर एक योद्धा थे, जो रण में अपने प्राणों की आहुति देने को तैयार रहते थे का यशोगान चारों दिशाओं में था।

राजगद्दी में बैठने के कुछ समय पश्चात भानुप्रताप ने शुभ मुहूर्त देखकर अपनी शक्तिशाली सेना के साथ विश्व विजय के लिए नगर से प्रस्थान किया। राजा ने कई युद्ध किए और सभी राजाओं को अपने बल से युद्ध में परास्त कर दिया। तुलसीदास जी लिखते हैं कि अपनी भुजाओं के बल से उसने सातों द्वीपों को अपने वश में कर लिया था और सभी राजाओं से कर ले कर उन्हें छोड़ दिया। संपूर्ण भू-मंडल पर उस समय भानुप्रताप ही एकमात्र चक्रवर्ती सम्राट थे। अपनी विजय पताका दसों दिशाओं में लहराने के बाद राजा अपने नगर वापस लौटे। तुलसीदास जी ने लिखा है कि राजा का बल पाकर धरती भी कामधेनु के समान अर्थात मनचाही वस्तु देने वाली हो गई। उनके राज्य में प्रजा सभी प्रकार से सुखी व संतुष्ट थी। स्त्री, पुरुष स्वस्थ, सुंदर व धर्मपारायण थे।

राजा का मंत्री भी विष्णु भक्त था। वह राजा को सदैव धर्म नीति की शिक्षा देता रहता था। राजा स्वयं नीतिवान व धर्म मार्ग पर चलने वाला था। वह गुरु, पितर, साधु संतों व ब्राह्मणों की सेवा करता रहता था। धर्मशास्त्रों का आदर पूर्वक पालन करता था। उसने अनेक तालाब, सुंदर बगीचे, ब्राह्मणों के लिए घर, मंदिरों का भी निर्माण कराया। वेदों पुराणों में जितने प्रकार के यज्ञ बताए गए, राजा ने कई कई बार उन यज्ञों को कराया। 

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उसे किसी प्रकार के फल की इच्छा नहीं थी, वह निष्काम भाव से जो भी धर्म के कार्य करता वो भगवान वासुदेव के श्री चरणों में अर्पित करता। इस प्रकार राजा भानुप्रताप धर्म मार्ग पर चलता हुआ सुख पूर्वक राज्य कर रहा था।

एक बार राजा भानुप्रताप अपने घोड़े पर सवार होकर शिकार के लिए विंध्याचल के घने जंगलों में गए और कई हिरणों का शिकार किया। तभी उसकी दृष्टि एक विचित्र सुअर पर पड़ी। राजा ने ऐसा विचित्र जानवर पहले कभी नहीं देखा था। राजा ने उसका पीछा किया। वह पवन वेग से एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच जाता। वह एक मायावी पशु था। राजा उसका पीछा करते हुए ऐसे घने जंगल में पहुंच गया जहां का रास्ता अत्यंत दुर्गम था। अपना बचाव न पाकर राजा से बचने के लिए वह एक गहरी गुफा में छुप गया। गुफा में जाने का मार्ग न पाकर राजा को वापस लौटना पड़ा। पर राजा रास्ता भटक गया। अपने घोड़े के साथ थका हारा, प्यास से व्याकुल राजा पानी के लिए कोई सरोवर खोजने लगा, तभी राजा को एक आश्रम दिखा जहाँ‌ राजा भानुप्रताप से युद्ध में डरकर भागा हुआ राजा, कपट से मुनि का वेश धारण कर रहता था। उसने जब राजा को देखा तो तुरंत पहचान गया पर मुनि वेश धारी उस राजा को भानुप्रताप पहचान न सका। प्यास से व्याकुल राजा को उसने सरोवर का रास्ता बता दिया। सरोवर में अपनी प्यास बुझा राजा जब वापस आश्रम आया तो तपस्वी ने राजा से परिचय पूछा। राजनीति का अनुसरण करते हुए राजा ने अपना परिचय न बताकर, कहा कि मैं भानुप्रताप का मंत्री हूं। शिकार करते हुए मार्ग भटक गया हूं। उस कपटी तपस्वी (मुनि) ने कहा कि जंगल बहुत घना है, रात बहुत बीत गई है तुम आज रात यहीं विश्राम करो भोर होते ही चले जाना।

तुलसी दास जी लिखते हैं –

तुलसी जस भवितव्यता, तैसी मिलै सहाय।
आपु आवै ताहि पै, ताहि तहाँ लै जाय॥

अर्थात जो होनहार होते हैं, वैसी ही सहायता उन्हें मिल जाती है, या तो स्वयं उसके पास आ जाती है या उसे ही खींच कर वहाँ ले जाती है।

राजा अपने घोड़े को बांध कर, कपटी मुनि के चरणों में सर झुकाकर बैठ जाता है। तब उस कपटी ने राजा को अपने जाल में फंसाने के लिए अध्यात्म का ज्ञान देना शुरू कर दिया। राजा को लगा कि ये कोई महान तपस्वी है और मुनि को अपना परिचय देने का निश्चय कर कहा कि “मैं राजा भानुप्रताप हूँ।” तभी वेष धारी मुनि ने कहा कि मुझे पता है कि “तुम महाराज सत्यकेतु के पुत्र राजा भानुप्रताप हो, तुम्हारे मंत्री का नाम धरमरुचि है।” राजा को महान आश्चर्य हुआ। राजा ने मुनि के चरणों में सर नवाकर पूंछा कि “छमा करे मुनि आप कौन हैं ? “मुनि ने कहा कि “मैं त्रिकाल दर्शी हूँ‌, जब से यह सृष्टि बनी है मैं तब से हूँ। मैंने कोई दूसरा तन धारण नहीं किया इसलिए मेरा नाम एकतनु है। “उसने राजा को बहुत उपदेश दिया। राजा उससे अत्यंत प्रभावित हो, उसकी बातों में आ गया और उसको अपना गुरु मान लिया।

कपटी मुनि ने राजा से वरदान मांगने को कहा, मुनि से प्रभावित राजा ने, कभी वृद्ध न होने का और सौ कल्पों तक कभी क्षय न होने वाला राज्य मांगा। मुनि ने कहा तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी। लेकिन एक बात का स्मरण रखना कि गुरु और ब्राह्मणों को नाराज मत करना, अगर ये नाराज हो गए तो तुम्हारा नाश हो जायेगा। राजा ने हाथ जोड़कर कहा कि ऐसा कोई उपाय बताइए जिससे ब्राह्मण कभी नाराज न हों। मुनि ने कहा उपाय तो है, पर इसके लिए तुम्हे एक साल तक हर दिन एक हजार ब्राम्हणों को भोजन कराना होगा और ब्राह्मणों का भोजन मैं बनाऊँगा। उस भोजन को जब वो ब्रह्मण ग्रहण करेंगे तो वो तुम्हारे वश में होंगे, साथ ही उन ब्राह्मणों के घर जो ब्राह्मण भोजन करेंगे वो भी तुम्हारे वश में हो जायेंगे। तुम निश्चिंत होकर विश्राम करो, मैं अपने तप से तुम्हें तुम्हारे राज्य पहुंचा दूंगा। पर स्मरण रखना तुम मुझसे मिले, क्या बात हुई ये गोपनीय रखना, अन्यथा तुम्हारा नाश हो जाएगा। राजा थका तो था ही, लेटते ही गहरी नींद सो गया।

उसी समय कालनेमि राक्षस, जो मुनि का मित्र था और मायावी सुअर का वेश धर राजा को मार्ग से भटकाया था और राजा का शत्रु भी था, मुनि से कहा कि मेरे कहे अनुसार तुमने आधा काम कर दिया, अब इस राजा को नष्ट करने का बाकी का काम मैं करूंगा। उसने अपनी माया से राजा को उसके महल में पहुंचा दिया। भोर के समय स्वयं को महल में देख राजा को घोर आश्चर्य हुआ। वो चुपचाप नगर के बाहर गया और अपने घोड़े में सवार होकर वापस आया सभी को लगा राजा वापस आ गया है। इधर तीन दिन के बाद उस दुष्ट मुनि की जगह कालनेमी राक्षस ने महल में आकर पुरोहित को गायब कर दिया। राजा भी उसे पहचान न सका, उसे लगा कि ये मुनि है जो ब्राह्मणों की रसोई बनाने आए हैं।

राजा ने सभी ब्राह्मणों को भोजन के लिए निमंत्रित किया। उस दुष्ट राक्षस ने अनगिनत स्वादिष्ट व्यंजन बनाए। साथ ही अनेक पशुओं का मांस भी पकाया और ब्राह्मण का मांस भी भोजन में मिला दिया। ब्राह्मणों की पूजा अर्चना के बाद उन्हें आसान देकर भोजन परोसा गया। ब्राह्मणों ने जैसे ही भोजन ग्रहण करने के लिए हाथ बढ़ाया, तुरंत आकाशवाणी हुई “हे ब्राह्मण देव इस भोजन को ग्रहण मत करो इसमें पशु के साथ ब्राह्मण का मांस पकाया गया है” ब्राह्मणों ने क्रोधित होकर तुरंत राजा भानुप्रताप को श्राप दे दिया कि हे राजा तेरा सारा राज्य नष्ट हो जाए और तू अगले जन्म में अपने कुटुंब और मंत्री सहित राक्षस योनि में जन्म पाए। तभी पुनः आकाशवाणी हुई कि हे ब्राह्मण देव आपने बिना सोचे समझे श्राप दे दिया है, इसमें राजा का कोई अपराध नहीं है। ब्राह्मणों को घोर आश्चर्य हुआ। राजा रसोई में गया वहाँ न पुरोहित था और न भोजन था। राजा ने ब्राह्मणों को सारा वृतांत सुनाया। ब्राह्मणों ने कहा कि हे राजा तेरा कोई दोष नहीं है पर श्राप को बदला नहीं जा सकता। यह समाचार सारे राज्य में फैल गया। चारों ओर हाहाकार मच गया। प्रजा शोक से व्याकुल होकर अपने विनम्र, दयालु, पराक्रमी राजा के लिए विधाता को दोष देने लगी। इधर इन दोनों ने दूसरे राजाओं के साथ मिलकर राज्य में आक्रमण कर दिया। ब्राह्मणों के श्राप के कारण राजा युद्ध में परास्त हो गया। उसका धन, बल राज्य सब नष्ट हो गया। अगले जन्म में ब्राह्मणों के श्राप के कारण यही राजा भानुप्रताप ने विश्वा ऋषि के कुल में जन्म लिया, पर माता राक्षस कुल की थी उसका भाई अरिमर्दन कुंभकर्ण और मंत्री धर्मरुचि, विभीषण के रूप में विख्यात हुए।

रावण ने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया था, वह महान पंडित, वेदों पुराणों का ज्ञाता हर विद्या में पारंगत था पर श्राप वस राक्षस हो कुमार्गगामी हो गया था। रावण इतना पराक्रमी था कि उसने सभी देवताओं को भी अपने अधीन कर लिया था। घोर तपस्या करके उसने ब्रह्मा जी से मानव और बानर को छोड़कर किसी के हाथों न मरने का वरदान प्राप्त कर लिया। अब वो और शक्तिशाली हो गया, रावण के आतंक से चारों ओर त्राहि त्राहि मच गई।

उस रावण के विनाश और उसे सद्गति देने के लिए भगवान श्री हरि ने मनुज के रूप में अवतार लिया और उसका अंत किया। रावण अपने पिछले जन्म में हरि भक्त था, भगवान ने पिछले जन्म में मिले श्राप से अपने भक्त को अपने हाथों से मुक्ति दिलाने के लिए भी राम के रूप में अवतार लिया।

नाना भाँति राम अवतारा।
रामायन  सत  कोटि  अपारा॥