दुःख प्रतियोगिता

कुछ व्यक्ति स्वभाव से आहें भरने वाले होते हैं। वह दुःख ओढ़ने को गरिमायुक्त बनाते हैं, सुख को छिछोरपने के मुहल्ले में पहुँचा देते हैं। साधारणतया, उनके वाक्यों में ठंडी साँसों के पंक्चुएशन के साथ बातों में पीड़ा से जुड़े शब्द सब्ज़ी के ऊपर धनिया से छितरे होते हैं।
वह दुःख ढूँढ लाते हैं - सुख के भीड़ भरे बाज़ार में किसी कूचे से उठा लाते हैं एक दुःख को, उस दुःख को भी जो पहले सुखी हुआ करता था। समाज, देश, ब्रह्मांड - कोई भी परे नहीं उनके दुखान्वेषी कोलंबस से। वह आपको कभी भी रोक के कह सकते हैं कि “गुरू देखा ? हमसे तो देखा नहीं जाता।” वह समोसे को चटनी में डुबो कर खाते हुए आपको यह भी बतलाते हैं कि ऐसा
ज़ुल्म देख कर उनकी आँखें भर आती हैं और हम यहाँ समोसे टूँग रहे हैं। वह कई बार रोते-रोते रुक सकते हैं, उनके आंसू छलक-छलक जाने को आतुर होकर वापस अपने बिल में चले जा सकते हैं। वह वीरतापूर्वक आपके पहाड़ को लांघ कर अपने राई भरे दुःख को यों गगनचुंबी बना सकते हैं कि आह करते हुए भी आप वाह कर बैठते हैं।
सफल किस्म के दुःख - प्रकाशक इतना दुःख प्रकट कर सकते हैं, कि आपके दुःख का स्तर आपको बड़े टुच्चे किस्म का प्रतीत होने लगता है और आप उसको एक अपराध बोध के साथ अंदर जज़्ब कर लेते हैं और आप अपना समोसा नीचे रख देते हैं (जबकि आपका मन उसे दूर फेंक देने का हो रहा होता है)।
