दान

केशव कोठारी कोलकाता

“त्येन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्”

अर्थ: त्यागपूर्वक भोग करो और किसी के धन का लोभ मत करो। यह श्लोक दान के महत्व को रेखांकित करता है। इसका अर्थ है कि हम जो भी संपत्ति या संसाधन प्राप्त करते हैं, उसमें त्याग और दूसरों के साथ साझा करने का भाव होना चाहिए। किसी भी वस्तु पर पूर्ण अधिकार न जताते हुए, इसे दूसरों की भलाई के लिए उपयोग में लाना ही दान का सही अर्थ है।

दान मानव जीवन को पवित्रता और श्रेष्ठता की ओर ले जाता है। यह न केवल समाज में समरसता और सहानुभूति उत्पन्न करता है, बल्कि आत्मा को भी शुद्ध करता है। दान का अर्थ केवल धन या वस्त्र देने तक सीमित नहीं है; यह समय, ज्ञान, और सेवा देने का भी एक रूप है।

महाभारत में दान के महत्व को समझाने के लिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन और कर्ण की परीक्षा ली। यह कथा कर्ण और अर्जुन के स्वभाव के अंतर और सच्चे दान की महिमा को उजागर करती है। एक दिन श्रीकृष्ण ने सोचा कि क्यों न अर्जुन और कर्ण की दानशीलता को परखा जाए। उन्होंने एक पहाड़ को सोने में बदल दिया और दोनों को बुलाकर कहा, — “यह पूरा पहाड़ सोने का है। इसे पिघलाकर गांव के गरीब लोगों के बीच वितरित करना है। मैं देखना चाहता हूं कि तुम दोनों में से कौन इसे बेहतर तरीके से दान कर पाता है।”

अर्जुन ने इस काम को अपने तरीके से करने का सोचा। उन्होंने गणना शुरू की और सोचने लगे कि पहाड़ को कैसे

बांटा जाए ताकि सभी लोगों को उचित हिस्सा मिल सके। उन्होंने मजदूरों को बुलाया, पहाड़ काटना शुरू किया, और लोगों की सूचियां तैयार की। अर्जुन का काम व्यवस्थित था, परंतु इसमें समय अधिक लग रहा था। कई घंटे बीत गए, पर अर्जुन पहाड़ के केवल एक छोटे से हिस्से को ही पिघलाकर वितरित कर पाए। वह थकने लगे और परेशान होकर श्रीकृष्ण से बोले, “यह कार्य बहुत कठिन है। इतने बड़े पहाड़ को खत्म करना असंभव सा लग रहा है।”

इसके बाद श्रीकृष्ण ने कर्ण को बुलाया और वही कार्य करने को कहा। कर्ण ने बिना कोई गणना किए या पहाड़ को काटने का प्रयास किए, सभी ग्रामीणों को बुलाया और कहा, “यह पूरा सोने का पहाड़ अब आप सभी का है। इसे ले जाएं और अपनी आवश्यकताओं के अनुसार उपयोग करें।” कर्ण ने पहाड़ को बिना किसी शर्त या योजना के सीधे गरीबों को दान कर दिया। उसने यह नहीं सोचा कि कितना हिस्सा किसे मिलेगा या उसके पास क्या बचेगा।

श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, “अर्जुन, तुमने दान करने से पहले बहुत सोचा और योजना बनाई। यह दान स्वार्थ और गणना से प्रेरित था। लेकिन कर्ण ने बिना किसी स्वार्थ या गणना के पूरी संपत्ति त्याग दी। यही सच्चा दान है।” कृष्ण ने अर्जुन को सिखाया कि दान का सार निष्काम भाव और पूर्ण त्याग में है। कर्ण की दानशीलता उसे महादानी बनाती है, क्योंकि वह दूसरों की मदद करने के लिए अपनी इच्छाओं और लोभ को त्याग देता है।

“साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय। मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय।”

अर्थात ईश्वर से प्रार्थना है कि वह इतना दे जिससे हम अपने परिवार का पालन-पोषण कर सकें और जरूरतमंदों की मदद कर सकें।

दान मानवता की पहचान है। यह हमें आत्मिक संतोष देता है और समाज को मजबूत बनाता है। चाहे वह कर्ण की तरह त्याग का प्रतीक हो, या आधुनिक युग में जरूरतमंदों की सहायता का माध्यम, दान हर रूप में पूजनीय है। उपनिषद् और संत कवियों के संदेश हमें प्रेरणा देते हैं कि हम अपने कर्तव्यों को समझें और दान की संस्कृति को अपनाएं। याद रखें, दान केवल वस्त्र, धन, या भोजन देने का नाम नहीं है। यह अपने समय, प्रयास, और भावनाओं को दूसरों के साथ साझा करने का भी एक नाम है। यही सच्ची मानवता है।